सतीश देशपांडे का लेख: बीजेपी के हिंदुत्व के चौसर पर भारी पड़ सकता है, स्टालिन का  सामाजिक न्याय का पासा

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जब यह बात कहने पर, कि “लोकतंत्र खतरे में है”, आपके ऊपर हमले होने लगें और आपको गाली दी जाने लगे, या जब सत्ताधारी राजनेता को सत्ता से हटाने का आह्वान करने वाले पोस्टर छापने पर आपके ऊपर पुलिसिया कार्रवाई होने लगे, या जब जिन संस्थाओं को स्वायत्त होना चाहिए, वे ही शक्तिशाली लोगों को खुश करने लगें, तो आपको समझ जाना चाहिए कि लोकतंत्र सचमुच खतरे में है। भारतीय लोकतंत्र निस्संदेह संकटग्रस्त हो चुका है। 2024 का आम चुनाव स्वतंत्र भारत का सर्वाधिक निर्णायक चुनाव होगा, यहां तक कि आपातकाल के बाद 1977 के चुनावों से भी ज्यादा निर्णायक, क्योंकि आज के समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सफलतापूर्वक किया जा चुका है।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन द्वारा इस महीने की शुरुआत में आयोजित ‘ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस’ (एआईएफएसजे, यानि अखिल भारतीय सामाजिक न्याय संघ) के महत्व को इसी व्यापक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ग़ैर-भाजपा दलों में से तीन को छोड़कर, शेष सबको एक साथ लाने में (किंतु-परंतु के साथ ही सही) इस सम्मेलन की उपलब्धि, एक दूसरे रूप में प्रेरक होने के बावजूद राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की उपलब्धि से ज्यादा रही है। हालांकि घोर आशावादी लोग कह सकते हैं कि यह सम्मेलन और यात्रा, दोनों एक-दूसरे की पूरक साबित होंगी, फिर भी ऐसी आशा के फलीभूत होने से पहले इसे अनेक कसौटियों से होकर गुजरना होगा।

इस सम्मेलन को इस अहसास के नतीजे के तौर पर देखा जाना चाहिए कि अपनी हालिया चुनावी सफलताओं के बावजूद ‘हिंदुत्व’ अंततः तथाकथित उच्च जातीय हिंदुओं का विश्वदृष्टिकोण है। 2014 और 2019 में हासिल किये गये बहुमत एक ऐसी कुशल चुनावी जोड़तोड़ का नतीजा थे, जिनमें अब तक दूसरी पार्टियों को वोट दे रही जातियों-उपजातियों को वहां से अलग कराकर अपने में मिलाकर अन्य पार्टियों से थोड़े ज्यादा वोट बटोर लिए गये थे। तथाकथित निचली जातियों को वास्तविक सत्ता में हिस्सेदारी दिये बिना बस थोड़ा सा प्रलोभन का झुनझुना थमाकर उनका समर्थन हासिल कर लेने की यह रणनीति है। इसका विकल्प, विभिन्न जातियों का एक असली गठबंधन, तभी संभव होगा जब ‘हिंदुत्व’ के चरित्र में एक बुनियादी बदलाव हो, जो कि इसकी “उच्च-जातीयता” को मिटा दे, या कम से कम कमजोर कर दे। इसमें भाजपा से भी बड़ी बाधा आरएसएस है, जिसके सामने शुरुआती दिनों में ही यह सवाल दरपेश हुआ था, लेकिन उसने अपनी ब्राह्मणवादी जड़ों के प्रति वफादार बने रहने का विकल्प चुना था। निहितार्थ यह है कि ‘हिंदुत्व’ अपने वर्तमान स्वरूप में गहरे सामाजिक विभाजन का बायस बना ही रहेगा।

विपक्ष के नजरिये से, यह कमजोरी एक अवसर है, जिसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इस सम्मेलन ने इसी की आधारशिला रखी है। जाति आधारित जनगणना, जिसका अतीत में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने विरोध किया है, उसकी मांग को पुनर्जीवित करके इसने न्यायपालिका के उस चयनात्मक विवेक पर सबका ध्यान खींच दिया है, जो विभिन्न तरह के आरक्षणों संबंधी आंकड़ों की मांग करते समय वह अपनाती है। स्तालिन के बयान खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे ‘आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों’ (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण को न केवल अदालत द्वारा आंकड़ों के बग़ैर ही समर्थन की तत्परता को उजागर करते हैं, बल्कि इस मुद्दे पर अपनायी गयी राजनीतिक चुप्पी को भी तोड़ते हैं।

बहरहाल, इस आयोजन की संभावनाओं के साकार होने से पहले कई बाधाएं पार करनी होंगी। शुरुआती कठिनाइयां कांग्रेस पार्टी के चरित्र और उसकी उस भूमिका संबंधी हैं, जो विपक्षी एकता की उत्प्रेरक बनने के लिए उसे निभानी होगी। इस बात को भुलाया नहीं जा सकता कि हिंदुत्ववादी ताक़तों की तरह ही राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का नेतृत्व भी हमेशा उच्च जातियों के हाथों में ही रहा है। वह प्रसिद्ध “कांग्रेस प्रणाली”, जिसका दशकों तक भारत में शासन रहा, उसने निचली जातियों को अपने सोपान क्रम के ढांचे में ऐसे समायोजित किया जिससे अधिकांशतः वे राज्यों की ओर निर्वासित रहीं। हालांकि यह सच है कि कांग्रेस नेतृत्व आमतौर पर अपने ‘हिंदुत्व’ या अपनी ‘उच्च-जातीयता’ को उजागर नहीं करता था, फिर भी यह उसका फायदा उठाने के खिलाफ नहीं था। क्या ऐसी पार्टी अपने चरित्र में बदलाव ला सकती है? एक और विकट चुनौती यह है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में, कांग्रेस को आगे की बजाय पीछे रह कर नेतृत्व करने के लिए तैयार होना होगा, भले ही वह विपक्ष की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी क्यों न हो। हालिया घटनाओं से इसकी संभावना नहीं दिखती।

बाधाओं का एक दूसरा समूह स्वयं सामाजिक न्याय के एजेंडे के खंडित ढांचे में है। अनुसूचित जनजातियों/आदिवासियों के मुद्दों की विशिष्टता और ओबीसी तथा अनुसूचित जातियों/दलितों के बीच की आपसी दुश्मनी जगजाहिर है। इन समूहों में से प्रत्येक के भीतर के आंतरिक भेदभाव भी ज्ञात हैं, विशेष रूप से ओबीसी के बीच। क्या विपक्ष इन मनमुटावों पर सौदेबाजी और समझौते कर सकता है, कम से कम भाजपा जैसी कुशलता से, जिससे उसने कामयाबी हासिल की है?

इन सबसे ऊपर यह तथ्य है कि भाजपा की हालिया जीत का कारण केवल जातिगत इंजीनियरिंग नहीं रही है। मुसलमानों के खिलाफ लगातार नफरत भाजपा की रणनीति का अहम हिस्सा रही है और उसे इसका चुनावी फायदा उम्मीद से कहीं ज्यादा टिकाऊ साबित हुआ है। अंत में, “मोदी फैक्टर” भी है। उनका व्यक्तिगत करिश्मा और मीडिया द्वारा श्रमसाध्य रूप से निर्मित उनकी छवि राष्ट्रीय चुनावों में निर्णायक रहे हैं, हालांकि राज्य स्तर पर हमेशा ऐसा नहीं रहा है। विपक्ष के पास इस सबका क्या जवाब हैं?

कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और राहुल गांधी इसका जवाब हैं। यात्रा को चुनावी तात्कालिकताओं से दूर रखा गया और इतना अनूठा बनाये रखा गया ताकि नफरत के खिलाफ इसका संदेश स्पष्ट रहे। इसके अलावा, इस पहल ने राहुल को अपने विरोधियों को जवाब देने के बजाय अंततः अपना एजेंडा निर्धारित करने का मौक़ा दिया। लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि यह कहानी क्या रुख लेती है।

इन सभी घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए, इस ‘एआईएफएसजे’ सम्मेलन से क्या यथार्थवादी उम्मीद की जा सकती है? हमें यह ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना होगा कि आम सार्वजनिक बातचीत में “जातीय राजनीति” का अर्थ आमतौर पर “निम्न-जातियों की राजनीति” होता है। । यह न केवल “उच्च जातियों की राजनीति” पर परदा डाल देता है, बल्कि यह हमें यह पहचानने से भी रोकता है कि, एक अर्थ में, सारी राजनीति जातिगत राजनीति है, क्योंकि हमारे समाज में राजनीति में वह सब कुछ शामिल है जो लोगों के लिए काम का है। हमारे समय का विरोधाभास यह है कि हमें आज जाति का राजनीतिकरण करने की आवश्यकता है ताकि यह कल की राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो जाए। जाति और धार्मिक पहचान के आपस में गुंथे होने से मामले और जटिल हो गए हैं, जैसा कि भाजपा द्वारा पसमांदा मुस्लिम समुदाय को लुभाने के प्रयासों से प्रदर्शित हो रहा है।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ‘एआईएफएसजे’ की पहल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने की है, जो 2019 के चुनाव की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है, और उसका “जाति की राजनीति” का सबसे लंबा इतिहास है। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि सामाजिक न्याय का एजेंडा –जाति आधारित जनगणना की लोकप्रिय मांग के साथ- वह साझा आधार बन सकता है जिस पर विपक्षी दल, कई अनिश्चितताओं के बावजूद, इकट्ठा हो सकते हैं। क्योंकि, आज एकमात्र निश्चितता यह है कि एक समन्वित विपक्ष के बिना लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय होगा, और छोटा भी हो सकता है।     

( प्रोफेसर सतीश देशपांडे का यह लेख द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था। प्रो. सतीश देशपांडे चर्चित समाजशास्त्री हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं। साभार प्रकाशित। अनुवाद-शैलेश )

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