“हुजूर! टमाटर की खेती ने हमें बर्बाद कर दिया…” खेतों में लहलहाती उम्मीदें, मंडियों में बिखरते किसानों के सपने-ग्राउंड रिपोर्ट

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” हुजूर…! मैं एक मामूली किसान हूं। रेहन की ज़मीन लेकर दो बीघा में टमाटर उगाए, दो लाख रुपये खर्च किए, लेकिन लागत तक नहीं निकल रही। टमाटर कोई पूछने वाला नहीं। टमाटर की खेती ने हमें बर्बाद कर दिया। कुछ खेत में सड़ रहे हैं, तो कुछ फेंकने पड़ रहे हैं। हमारा परिवार भुखमरी की कगार पर आ गया है। लगता है, नसीब फूट गए हैं। घर में ऐसा मातम छाया है, जैसे कोई अपना खो दिया हो। रातों की नींद उड़ गई है, समझ नहीं आता कि अब करें तो क्या करें?”

रुंधे गले से यह दर्द सोनभद्र के घोरावल इलाके के बहुअरा गांव के किसान रामपति मौर्य का है। अपने तीन बच्चों के साथ दिन-रात खेतों में मेहनत कर टमाटर के सपने बोए थे, मगर बाज़ार की बेरुख़ी ने उन सपनों को माटी में मिला दिया। टमाटर का हाल यह है कि दो रुपये किलो भी कोई नहीं पूछ रहा। कुछ टमाटर खेत में छोड़ दिए, कुछ मवेशियों को देने से भी डर लग रहा है कि कहीं वे बीमार न पड़ जाएं। गांव वालों को टमाटर तोड़ने की छूट दे दी, लेकिन कोई मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं।

टमाटर की लाली के पीछे लुट गए किसान

यह सिर्फ़ रामपति मौर्य की नहीं, बल्कि सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, भदोही, गाजीपुर, जौनपुर, चंदौली और बनारस के सैकड़ों किसानों की कहानी है। हज़ारों किसानों ने अपनी मेहनत से उगाए टमाटर सड़कों पर फेंक दिए, क्योंकि इनकी कीमत अब कौड़ियों के बराबर हो गई है। सोनभद्र में क़रीब आठ हज़ार हेक्टेयर में टमाटर की खेती होती है। सबसे ज़्यादा खेती करमा में होती है, जहां 4000 एकड़ में किसान टमाटर उगाते हैं। इस साल रॉबर्ट्सगंज और घोरावल में 3000 एकड़ से अधिक ज़मीन पर टमाटर की खेती हुई है। किसानों ने टमाटर की लालिमा देख उस पर दिल लगा दिया, मगर अब वही लालिमा उनके आंसुओं में बदल गई है।

बहुअरा के किसान विक्रमा यादव कहते हैं, “हमने जितना पैसा टमाटर की खेती पर लगाया, उसकी पांच फ़ीसदी भी कमाई नहीं हुई। समझ में नहीं आता कि करें तो क्या करें?” यही दर्द कैलाश मौर्य, लक्षन मौर्य, छब्बी यादव, रमेश यादव, भगवानदास मौर्य का भी है। इन किसानों ने प्रति बीघा 80 से 82 हज़ार रुपये खर्च किए, लेकिन मुश्किल से 10 से 15 हज़ार रुपये भी नहीं मिले। घाटा इतना बड़ा कि उसकी भरपाई करना असंभव लग रहा है।

कसया के किसान सोमारू, अभिषेक और राजकुमार सिंह, रानीतारा के अशोक मौर्य कहते हैं, “टमाटर तोड़ने पर हमें मज़दूर को रोज़ाना 200 रुपये मज़दूरी देनी पड़ती है। बाज़ार बहुत मंदा है। 30 किलो का एक कैरेट टमाटर 32 रुपये में बिक रहा है। भाड़ा तक नहीं निकल पा रहा। सरकार हमारी मुश्किलों पर तनिक भी ध्यान नहीं दे रही। आप ही बताइए, हम अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करें?”

सोनभद्र के रानीतारा के किसान अशोक मौर्य

खुटहनिया (बरबसपुर) गांव के बंशनारायण अपने पांच बच्चों के साथ दिन-रात टमाटर की खेती में लगे हैं। दिनभर खेतों में मेहनत और रात को रखवाली-यही दिनचर्या बन गई है। मगर टमाटर का ऐसा हाल कि डेढ़ रुपये किलो भी कोई लेने को तैयार नहीं। मेहनत के बावजूद जेब खाली, आंखों में बस चिंता और बेबसी।

खुटहनिया के ही किसान सूर्यमणि यादव कहते हैं, “पिछले साल टमाटर ने अच्छी कमाई दी थी, इस बार उम्मीद में रक़बा बढ़ा दिया। एक लाख रुपये में खेत किराए पर लिया, बीज-खाद में लाखों झोंक दिए, लेकिन अब टमाटर के दाम सुनकर घबराहट होती है। दुकानदारों का उधार कैसे चुकाएं? अब सिर पर हाथ रखने के अलावा कुछ नहीं बचा।”

सोनभद्र के तिलौली गांव की मनोरमा पटेल की आंखों में आंसू हैं। उन्होंने छह बीघा ज़मीन किराए पर लेकर टमाटर उगाया, सोचा था परिवार संवर जाएगा। मगर अब 25 किलो की कैरेट 150-200 रुपये में बिक रही है। मज़दूरी देने के बाद कुछ नहीं बचता। वह कहती हैं, “85 हज़ार रुपये का कीटनाशक उधार लिया था, दुकानदार का पैसा चुकाना है, मगर अब बस आसमान की ओर देखने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। सरकार किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात करती है, लेकिन हमें लागत तक नहीं मिल रही। हम जाएं तो जाएं कहां?”

सोनभद्र के गांवों में जहां भी देखिए, टमाटर के हरे-लाल खेतों के बीच झुके हुए किसान मिलेंगे। सुबह से शाम तक मेहनत करने वाले ये किसान हर फसल के साथ उम्मीदें बोते हैं, लेकिन जब मंडी में अपने पसीने की क़ीमत मांगते हैं, तो हाथ खाली रह जाते हैं। रॉबर्ट्सगंज की मंडी में इस बार भी टमाटर की बंपर फसल हुई, मगर किसानों की आंखों में चमक नहीं, बल्कि मायूसी और बेबसी की परछाइयां हैं।

टूट रहा किसानों का सपना

सोनभद्र के खेतों में कभी लाल टमाटरों की फसल लहलहाती थी, लेकिन आज वही खेत वीरान होते जा रहे हैं। किसानों की उम्मीदें, उनकी मेहनत और सपने-सब कुछ टमाटर की गिरती कीमतों के साथ टूटते जा रहे हैं। राबर्ट्सगंज के वरिष्ठ पत्रकार शशिकांत चौबे कहते हैं, “सोनभद्र के किसानों का टमाटर की खेती से मोह भंग होता जा रहा है, क्योंकि उन्हें इसकी खेती से लगातार घाटा हो रहा है। दूसरी ओर, मिर्च की खेती का क्षेत्रफल लगातार बढ़ रहा है, जो अब तीन हजार हेक्टेयर से अधिक हो चुका है। नगवां के पहाड़ी इलाकों में भी अब मिर्च की खेती होने लगी है।”

सोनभद्र के टमाटर उत्पादक अभिषेक

शशिकांत चौबे बताते हैं, “टमाटर की कीमतें अत्यधिक अस्थिर रहती हैं। जब उत्पादन अधिक होता है, तो किसानों को औने-पौने दामों पर टमाटर बेचना पड़ता है, जिससे लागत भी पूरी नहीं हो पाती। वहीं, जब बाजार में कीमतें बढ़ती हैं, तब तक कई किसान अपनी उपज पहले ही बेच चुके होते हैं। इस अस्थिरता ने किसानों को अन्य विकल्पों की ओर मोड़ने पर मजबूर कर दिया है।”

किसानों का दर्द इससे भी गहरा है। बीज, उर्वरक, कीटनाशक, पानी और मजदूरी की बढ़ती लागत ने टमाटर की खेती को बेहद महंगा बना दिया है। बारिश की मार, मौसम की बेरुखी और जलवायु परिवर्तन के कारण टमाटर की फसल पर कीटों और रोगों का हमला बढ़ गया है, जिससे उत्पादन घटता जा रहा है। सोनभद्र में ठंडा भंडारण (कोल्ड स्टोरेज) की कमी के कारण किसान अपनी उपज मजबूरन कम कीमत पर बेचने को विवश हैं।

मिर्च बनी किसानों की नई उम्मीद

टमाटर से लगातार नुकसान उठाने के बाद किसानों ने अब मिर्च की खेती को अपनाना शुरू कर दिया है। इसका कारण यह है कि मिर्च का बाजार अधिक स्थिर रहता है, इसकी कीमतें बहुत कम गिरती हैं, और इसे लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है। शशिकांत चौबे कहते हैं, “मिर्च की खेती में रोग और कीट नियंत्रण में आसानी होती है। इसकी नमी की आवश्यकता कम होती है, जिससे यह पहाड़ी इलाकों में भी आसानी से उगाई जा सकती है।”

सवाल उठता है कि क्या किसान दोबारा टमाटर की खेती की ओर लौटेंगे? इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सरकार भंडारण और प्रसंस्करण सुविधाओं को बढ़ावा दे, न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे और किसानों को वित्तीय सहायता दे, तो टमाटर की खेती फिर से फायदेमंद बन सकती है। लेकिन फिलहाल, किसानों की प्राथमिकता मिर्च बन चुकी है, और उनके सपनों की लालिमा टमाटर के साथ धुंधली होती जा रही है।

उम्दा पैदावार किस काम की

पत्रकार शशिकांत चौबे यह भी बताते हैं, “सोनभद्र का टमाटर सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, बल्कि गल्फ देशों, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक भेजा जाता था। लेकिन अब जब अपने ही किसानों की फसल नहीं बिक रही, तो बाहर का टमाटर क्यों खरीदा जाएगा? आज यही उम्दा टमाटर फुटकर में छह-सात रुपये किलो में बिक रहा है, तो सोचिए कि किसानों को थोक में क्या मिलता होगा?”

तिवारीपुर के प्रगतिशील किसान मनीष तिवारी का कहना है कि हर साल टमाटर की लाली, इलाके के किसानों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं होती। जैसे ही खेतों में टमाटर पकने लगते हैं, आढ़तिये औने-पौने दाम पर खरीदारी शुरू कर देते हैं और किसानों के सपनों को मिट्टी में मिला देते हैं। साल 2021 को छोड़ दें तो पिछले कई वर्षों से यही हालात बने हुए हैं।

“बच्चों की फीस कैसे भरें?”

घोरावल के किसान संतोष तिवारी अपने परिवार के साथ खेत में टमाटर तोड़ते हुए एक गहरी सांस लेते हैं। उनके चेहरे पर मेहनत की लकीरें हैं, लेकिन आंखों में चिंता की गहरी छाया। वह कहते हैं, “हमारे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। समझ में नहीं आ रहा कि उनकी स्कूल फीस कैसे जमा करें? सूखे ने धान की फसल चौपट कर दी थी, तो टमाटर से उम्मीद थी, लेकिन अब इतना भी नहीं मिल रहा कि लागत निकल सके। तीन साल पिछले साल यही टमाटर 2000 रुपये प्रति कैरेट बिकता था, और आज मुश्किल से 30-32 में खरीदार नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में कैसे जिएं? हमें तो ऐसा लगता है कि सरकार महंगाई कम करने के नाम पर किसानों को बलि का बकरा बना रही है।”

किसान संतोष तिवारी

संतोष तिवारी जैसे हजारों किसान इस बदहाली के शिकार हैं। टमाटर की खेती में मेहनत तो बहुत लगती है, लेकिन जब वही मेहनत मंडी में कौड़ियों के भाव बिकती है, तो किसानों का दिल टूट जाता है। कुछ किसानों ने तो अब खेतों से टमाटर तोड़ना ही बंद कर दिया है, क्योंकि मंडी में उन्हें कोई खरीदार नहीं मिल रहा।

खैरपुर के प्रगतिशील किसान संजय पटेल, सेवथा के केशनाथ और रामलाल बताते हैं, “टमाटर की फसल में जितना जोखिम होता है, उतना मुनाफा नहीं। अगर कीमत 20 रुपये प्रति किलो से कम रहती है, तो खेती में लगाया पैसा भी वापस नहीं आएगा। सरकार को चाहिए कि वह टमाटर उत्पादकों को खाद और कीटनाशकों पर अनुदान दे और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करे, ताकि हमें भी एक स्थायी बाज़ार मिल सके।”

“टमाटर की खेती मजबूरी है, कोई विकल्प नहीं”

सोनभद्र के टेनू गांव के किसान रमेश यादव जो वर्षों से टमाटर की खेती कर रहे हैं, कहते हैं, “यह खेती आसान नहीं है, लागत बहुत ज्यादा है। लेकिन करें भी क्या? अगर कम उगाएं तो मंडी ले जाने में ही खर्च निकल जाता है। व्यापारी तभी खेत में आते हैं, जब फसल ज़्यादा होती है। यहां के ज्यादातर किसान तीन से पांच एकड़ में टमाटर या मिर्च उगाते हैं, लेकिन हर बार उन्हें घाटे का सामना करना पड़ता है।”

सोनभद्र में टमाटर उत्पादकों के सपनों की मौत

सोनभद्र के करमा और घोरावल प्रखंडों में यह कोई पहली बार नहीं हुआ, जब किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी हो। पहले भी मंडियों में टमाटर के दाम इतने गिर गए कि किसान उसे खेत में ही छोड़ने को मजबूर हो गए। जब लागत ही नहीं निकलती, तो मेहनत का मोल कैसा? सरकारें महंगाई का रोना रोती हैं, लेकिन किसानों की इस बदहाली पर चुप्पी साधे बैठी हैं।

किसानों की मेहनत पर मंडराता संकट

तिलौली गांव में टमाटर की खेती करने वाले किसान नरेंद्र सिंह पटेल बताते हैं, “हमारे पास अपनी पिकअप गाड़ी है, जिससे टमाटरों की ढुलाई करते हैं। हमारी गाड़ी अक्सर टमाटर लाने के लिए बिहार, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भी जाती है। छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर, बालोद, धमतर, राजनांदगांव समेत कई जिले टमाटर की खेती के लिए मशहूर हैं। वहां भी व्यापारी किसानों से एक-दो रुपये प्रति किलो के भाव पर टमाटर खरीद रहे हैं। कुछ किसानों ने बेचने से इनकार करते हुए टमाटरों को फेंक देने में ही अपनी भलाई समझी है। आखिर किसान करें भी तो क्या करें?”

जिला उद्यान अधिकारी मेवाराम ने किसानों की मौजूदा स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा, “वर्तमान समय में कृषि क्षेत्र में बढ़ती लागत और कम मुनाफे के कारण किसान लगातार परेशान हैं। उत्पादन की लागत बढ़ने के साथ-साथ बाजार में फसलों के उचित दाम न मिलने से किसानों को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ रहा है। इसी कारण वे अब ऐसी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं, जिनसे उन्हें अपेक्षाकृत अधिक लाभ मिलने की संभावना हो।”

सोनभद्र में दूर-दूर तक सिर्फ टमाटर की खेती

उन्होंने बताया कि “मिर्च की खेती का रकबा लगातार बढ़ रहा है। पहले जहां 10 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मिर्च की खेती की जाती थी, वह अब घटकर आठ हजार हेक्टेयर रह गई है। इसके विपरीत, पहले जहां मात्र चार हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मिर्च की खेती होती थी, अब यह बढ़कर छह हजार हेक्टेयर तक पहुंच गई है। इससे साफ है कि किसान परंपरागत फसलों से हटकर ऐसी फसलों की ओर बढ़ रहे हैं, जो उनके लिए बेहतर साबित हो सकती हैं।”

हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि “अभी भी टमाटर का रकबा अधिक बना हुआ है। किसान अपनी उपज का अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए लगातार नए विकल्पों की तलाश कर रहे हैं, जिससे फसल चक्र में बदलाव देखने को मिल रहा है।”

किसानों की उम्मीदों की मौत

सोनभद्र के प्रगतिशील किसान एवं पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं, “भारत में सिर्फ खेती-किसानी ही एकमात्र ऐसा संसाधन है जिसने भीषण मंदी और कोरोना के दौर में देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा और लोगों को भूखों मरने नहीं दिया। आज वही किसान अपनी उपज सड़कों पर फेंकने को मजबूर हो रहे हैं। जहां टमाटर की खेती का रकबा ज्यादा है, वहां मंडियों में इसका दाम चार-पांच रुपये मिल रहा है। सोनभद्र में टमाटर उत्पादकों को तोड़ाई का खर्च भी नहीं निकल रहा है, फिर भी योगी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है!”

सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठाते हुए वह कहते हैं, “क्या योगी सरकार के सभी अस्त्र चुक गए हैं अथवा बर्बाद हो रहे किसानों को राहत देने के लिए उसके पास सिर्फ थोथे वादे और हवा-हवाई घोषणाएं ही बची हैं? टमाटर उत्पादक किसानों का मटियामेट हो रहा भविष्य बचाने के लिए क्या सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं है?”

राजेंद्र यह भी कहते हैं, “अनाज की तरह सब्जियों पर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू होना चाहिए, ताकि उत्पादकों को सही भाव मिले और उपभोक्ताओं का हित भी बना रहे। यह तभी संभव है जब सरकार धरातल पर उतरकर काम करेगी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोनभद्र में टमाटर और मिर्च का प्रोसेसिंग प्लांट लगाने की योजना तैयार की थी, मगर वह नौकरशाही की लापरवाही की भेंट चढ़ गई। सरकार को चाहिए कि वह यहां सूप बनाने वाली फैक्ट्री लगवाए। अफसोस की बात यह है कि भाजपा सरकार बातें तो बड़ी-बड़ी करती है, लेकिन करती कुछ भी नहीं है।”

सोनभद्र के गांवों में किसानों के दर्द को महसूस करने के लिए बस एक बार उनके खेतों में झांक लीजिए। वहां लहलहाते टमाटर के पौधों के बीच मायूसी और बेबसी पसरी हुई मिलेगी। बरसों से टमाटर की खेती करने वाले किसान अब टूट चुके हैं। उम्मीदें सूख रही हैं, सपने बिखर रहे हैं, और मेहनत बेभाव लुट रही है।

बाजार की साजिश और किसानों की मजबूरी

सोनभद्र में आदिवासियों और किसानों के अधिकारों के लिए संघर्षरत संस्था पीवीसीएचआर के संयोजक डॉ. लेनिन कहते हैं,”टमाटर का पौधा दक्षिण अमेरिका से इंग्लैंड होते हुए 16वीं शताब्दी में भारत आया था। आज दुनिया में चीन के बाद भारत टमाटर उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया के व्यंजनों में टमाटर अपनी जगह बना चुका है। फिर भी, अगर यह कौड़ियों के भाव बिक रहा है, तो यह हमारी कृषि नीतियों और बाजार व्यवस्था की विफलता को उजागर करता है।”

“अब टमाटर का खेल सिर्फ किसानों के हाथ में नहीं रहा। बड़े कारोबारी और कंपनियां जैसे रिलायंस फ्रेश इसे अपनी मर्जी से खरीदती-बेचती हैं। जब चाहें, दाम गिरा देती हैं, और जब चाहें, आसमान छूने लगते हैं। बीच में फंसे किसान बस देख भर सकते हैं। सरकारें भले ही किसानों की भलाई के दावे करें, मगर सच यह है कि खेती अब धीरे-धीरे कॉरपोरेट के शिकंजे में जा रही है।”

डॉ. लेनिन आगाह करते हैं, ” पहले ही छोटे व्यापारियों पर बड़े घरानों का कब्ज़ा हो चुका है। अब “खेती-किसानी और धर्म” भी इनके निशाने पर हैं। सरकार चाहती है कि खेती पर भी कॉरपोरेट राज करे। असल कमाई तो बिचौलिए कर रहे हैं। किसान का घर उजड़ रहा है, उपभोक्ता की थाली से सब्जियां गायब हो रही हैं, और बड़ी कंपनियों की तिजोरियां भर रही हैं। अगर सरकार ने जल्द ही कदम नहीं उठाए, तो आने वाले समय में हालात भयावह हो सकते हैं।”

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य, जो हाल ही में सोनभद्र के टमाटर उत्पादक किसानों से मिलकर लौटे हैं, बताते हैं कि जिले में हालात बेहद चिंताजनक हैं। वह कहते हैं, “सोनभद्र के टमाटर को कोई पूछने वाला नहीं है, जबकि इसकी गुणवत्ता उत्तर भारत के बाकी टमाटरों से बेहतर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि भारत पूरी दुनिया को खिला सकता है, लेकिन जब अपने ही किसान भूखे मर रहे हैं, तो इस दावे पर कौन यकीन करेगा? आज हालात यह हैं कि अगर सरकार ने सही नीति नहीं अपनाई, तो कहीं भारत भी श्रीलंका जैसी आर्थिक बदहाली की ओर न बढ़ जाए। किसानों को अब अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी, वरना उनकी मेहनत का फल कोई और ले उड़ेगा।”

“अब किसान टमाटर छोड़कर मिर्च की खेती की ओर बढ़ रहे हैं। बाजार की अस्थिरता, बढ़ती लागत, जलवायु परिवर्तन और भंडारण की कमी ने उन्हें मिर्च जैसी तुलनात्मक रूप से अधिक लाभदायक फसल की ओर मोड़ दिया है। अगर सरकार टमाटर की खेती में दोबारा भरोसा जगाना चाहती है, तो मूल्य स्थिरीकरण, भंडारण सुविधाएं और तकनीकी सहायता देनी होगी। वरना यह बदलाव स्थायी हो जाएगा और टमाटर की खेती सोनभद्र के इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाएगी।”

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के किसानों ने सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर टमाटर फेंककर विरोध जताया, मगर उत्तर प्रदेश के किसानों के पास इतना भी हौसला नहीं बचा। वे बस अपने खेतों को ताकते हुए आंसू बहाने को मजबूर हैं। अगर सरकार ने अभी भी किसानों की सुध नहीं ली, तो कल के खेत सिर्फ खाली बंजर ज़मीन बनकर रह जाएंगे, और अन्नदाताओं की किस्मत पर हमेशा के लिए अंधेरा छा जाएगा।

पत्रकार राजीव मौर्य सवाल उठाते हैं, “सड़कों पर बहाया गया टमाटर किसानों के खून-पसीने से सींची गई फसल है। सरकारें वादे तो बहुत करती हैं, मगर इन किसानों की लाचारी कौन सुनेगा? क्या इनके आंसू कभी सूखेंगे? क्या इन्हें मेहनत का सही दाम मिलेगा? या फिर टमाटर की तरह इनका जीवन भी बेभाव बर्बाद होता रहेगा?”

(विजय विनीत, बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। सोनभद्र से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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