सामने 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव है। उस के बाद पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु केरल और पुदुचेरी में 2026 में चुनाव होना है। 2027 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है। 2029 में लोकसभा को चुनाव है। चुनावों की इस धारावाहिक श्रृंखला को इस समय याद करने का मतलब! मतलब यह है कि सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ‘पूरी तरह से’ चुनावी मोड में है।
जाहिर है कि इंडिया गठबंधन में कांग्रेस भी चुनावी चक्रव्यूह के मुकाबले में कमर कस चुकी है। इस बीच कांग्रेस को भी अपनी अचूक तैयारी कर लेनी है। संगठन को चुनौती के लिए बिल्कुल चुस्त-दुरुस्त कर लेना है। स्वाभाविक है कि कांग्रेस कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती है। दोनों तरफ की चुनावी तैयारी को देखते हुए इनकी हर राजनीतिक और खासकर संगठन संबंधी पहलकदमियों पर नजर बनाये रखना जरूरी है।
सांगठनिक तैयारी के अंतर्गत अभी बिहार कांग्रेस में अखिलेश प्रसाद सिंह को हटाकर राजेश कुमार को नया अध्यक्ष बना दिया गया है। अखिलेश प्रसाद सिंह जन्म के आधार पर ऊंची और दबंग समझी जानेवाली जाति से है। जबकि बिहार कांग्रेस के नये अध्यक्ष राजेश कुमार का संबंध जन्म के आधार पर दलित समुदाय से है। यह ठीक है कि जाति और समुदाय की छवि से उस जाति या समुदाय के सभी सदस्यों की व्यक्तिगत और पारिवारिक पृष्ठ-भूमि या स्वभाव मेल खाये यह जरूरी नहीं है। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि जाति और समुदाय एक बहुत गहरी सामाजिक सच्चाई है तो उस के बाहरी प्रभाव का सिर्फ लाभ और खामियाजा व्यक्तियों के हिस्से आ ही जाता है।
राजेश कुमार दलित समुदाय के सदस्य हैं। जाहिर है कि राजेश कुमार के बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष बनने से दलित समुदाय के सदस्यों में उछाह दिखता है। यह माना जा सकता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय की अपनी प्रतिबद्धता के अंतर्गत यह राजनीतिक कदम उठाया हो। भले ही कांग्रेस के निंदक इसे वोट बटोरुआ राजनीतिक प्रयास के रूप में लेंगे लेकिन यह सच है क्या निष्पक्ष आम लोगों के मन में कांग्रेस के इस कदम से संतोष हुआ होगा। कांग्रेस का यह राजनीतिक कदम विवेक सम्मत लग रहा है।
हालांकि अखिलेश प्रसाद सिंह के सुपुत्र ने दिनकर की काव्य पंक्ति का उल्लेख किया है; ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’ जबकि उसी ‘रश्मिरथी’ की इस काव्य पंक्ति को कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।’ आज-कल बिहार का चुनावी संदर्भ आते ही कई लोगों को रामधारी सिंह दिनकर की बहुत याद आ रही है। पिछले दिनों जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत आये थे तो वे भी दिनकर को याद कर गये हैं कि ‘सौभाग्य न सब दिन सोता है देखें, आगे क्या होता है?’
इमरजेंसी विरोध के समय की राजनीति के दौर में भी दिनकर की काव्य पंक्ति को बार-बार दुहराया जाता था; ‘दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ आम जनता ने समय के ‘समय के रथ के घर्घर-नाद’ को ठीक से सुना था और सिंहासन खाली हो गया था। सोचना तो होगा ही कि किस का सौभाग्य जागनेवाला है, किस का विवेक मर गया इस बीच! यह तो मानना ही होगा कि किसी भी समस्या से उबार का रास्ता विवेक के रास्ते ही आया करता है।
दलित समुदाय के सदस्यों पर हुए अत्याचारों की कुछ घटनाओं को याद कर लेना चाहिए, अप्रिय है, शर्मनाक है फिर भी याद किया जाना चाहिए। विविध स्रोतों से प्राप्त विवेक को झकझोरनेवाली जानकारी को याद किया जा सकता है।
1968 में दलित समुदाय के सदस्यों को निशाना बनाने वाली भीड़ की हिंसा के पहले दर्ज उदाहरण में, मद्रास राज्य के किल्वेनमणि में 42 लोगों, ज्यादातर महिलाओं और बच्चों को जिंदा जला दिया गया था।
1973 में मद्रास उच्च न्यायालय ने किल्वेनमणि मामले में सभी आरोपों से सभी आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनमें से ज्यादातर ‘अमीर आदमी’ हैं, और इसलिए ‘यह विश्वास करना मुश्किल है कि वे खुद शारीरिक रूप से घटनास्थल पर गए और घरों में आग लगा दी’। मजे की बात यह है कि उच्च न्यायालय इस महत्वपूर्ण विवरण को दबा देता है कि अभियुक्तों पर हत्या का मुकदमा चलाया गया था।
1990 में सुप्रीम कोर्ट ने 1968 के किल्वेनमणि नरसंहार के सभी आरोपियों को बरी करने के फैसले को बरकरार रखा, भले ही यह अनजाने में हत्या के आरोप के उच्च न्यायालय के दमन को उजागर करता है।
साल, 1977, बेलछी में भीड़ ने आठ हरिजन सहित 11 लोगों की हत्या कर दी। मोरारजी देसाई सरकार द्वारा इसे जातिगत अत्याचार के बजाय गैंगवार के रूप में चित्रित करने के प्रयास को बेलछी का दौरा करने वाली हरिजन सांसदों की एक समिति ने चुनौती दी। विकट मौसम और मूसलाधार बारिश में दूरदराज के इलाके में हाथी की सवारी पर इंदिरा गांधी के बेलछी पहुंच जाने के बाद यह प्रकरण संवेदनशील राजनीतिक घटना के रूप में प्रमुखता से उभरा।
1982 में बेलछी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दो दोषियों के लिए मौत की सजा बरकरार रखी, जिसमें से एक में, दो हरिजनों की हत्या करने का दोषी पाया गया।
1983 में बेलछी मामले में महाबीर महतो की फांसी भारत में हरिजनों के हत्यारे को न्यायिक रूप से फांसी देने का पहला और एकमात्र दर्ज उदाहरण है।
1991 में आंध्र प्रदेश के त्सुंदूर में आठ दलितों की हत्या कर दी गई, यह पहला मामला था जिसमें 1989 के जाति अत्याचार कानून के तहत एक विशेष अदालत की स्थापना की गई थी।
1991 के त्सुंदूर मामले में, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए सभी 53 आरोपियों को 2014 में बरी कर दिया। अपने विवादास्पद फैसले को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय पुलिस को ‘सुनिश्चित’ करने का आदेश देता है कि ‘कोई उत्सव या विरोध प्रदर्शन’ न हो।
‘रणवीर सेना’ ने सारी हदें पार कर दी। 1996 में बिहार में रणवीर सेना ने बथानी टोला में 20 लोगों की हत्या कर दी। मृतकों में ज्यादातर दलित और कुछ मुस्लिम थे। 2012 में बथानी टोला मामले में, पटना उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए सभी तेईस आरोपियों को बरी कर दिया, जिनमें तीन को मौत की सजा सुनाई गई थी।
1997 में बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे में रणवीर सेना ने 58 दलितों की हत्या कर दी, जो देश में कहीं भी जाति अत्याचार के लिए सबसे ज्यादा मौत थी, जिसके बाद राष्ट्रपति केआर नारायणन ने इसे ‘राष्ट्रीय शर्म’ करार दिया।
लेकिन 2013 में लक्ष्मणपुर बाथे मामले में, पटना उच्च न्यायालय ने सभी छब्बीस दोषी व्यक्तियों को बरी कर दिया, जिसमें सोलह लोग शामिल थे, जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी।
फिर 1999 में रणवीर सेना ने बिहार के शंकरबीघा में तेईस दलितों का नरसंहार किया और पुलिस ने प्राथमिकी में चौबीस आरोपी व्यक्तियों का नाम लिया।
2015 में शंकरबीघा नरसंहार मामले में अभियोजन पक्ष के सभी पचास गवाह एक-एक करके मुकर गए, ट्रायल कोर्ट ने चौबीस आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि ‘अभियोजन पक्ष के सबूत कम पड़ गए हैं’।
2002 का साल, हरियाणा में झज्जर के पास एक पुलिस चौकी के परिसर में भीड़ ने गोहत्या के बेबुनियाद संदेह पर पांच दलितों की पीट-पीटकर हत्या कर दी. गाय के बारे में हिंदू भावना का सम्मान करते हुए, मौके पर बड़ी पुलिस बल न तो पीड़ितों की रक्षा करती है और न ही उपद्रवियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करती है।
2010 में झज्जर लिंचिंग मामले में जातिगत पहलू से इनकार करते हुए निचली अदालत ने एक दलित सहित सात लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसमें कहा गया है कि आरोपियों को ‘पीड़ितों की जाति के बारे में भी पता नहीं था’।
यहां दो-तीन बातें कहना जरूरी है, दलित समुदाय के सदस्यों पर हुए अत्याचार की सभी घटनाओं का उल्लेख यहां संभव नहीं हुआ है। ये सभी घटनाएं ‘कांग्रेस राज’ में हुई थी। कहा जा सकता है कि तमाम सैद्धांतिक समझ, इरादों और आश्वासनों के बाद भी ‘कांग्रेस राज’ इन घटनाओं को होने से रोक नहीं पाया था।
सामाजिक न्याय की जरूरत की समझ और धारणा के मामले में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की पूरी सिद्धांतिकी ही सिर के बल खड़ी रही है। हिंदुत्व की राजनीति का राष्ट्रवाद मुस्लिम विरोधी राजनीति के लिए हिंदू समाज का एक मुश्त ‘वोट-बटोरने’ की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ से शक्ति पाता है। सामाजिक अन्याय की बुनियाद में सक्रिय वर्ण-व्यवस्था के वर्चस्व को टिकाऊ बनाने के इरादों से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का राष्ट्रवाद संगठित है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ वर्ण-व्यवस्था की मजबूती के लिए और भारतीय जनता पार्टी हिंदू समाज के वोट बटोरने में राष्ट्रवाद के इस्तेमाल में लगी रहती है। ऐसा प्रतीत होता है कि दलित समुदाय के सदस्यों पर अत्याचार के मामले में ‘कांग्रेस राज’ की विफलता में भाजपा अपनी सफलता देखती रही ‘कांग्रेस राज’ के विफल होने का इंतजार करती रही।
मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस आज बार-बार सामाजिक न्याय की बात ईमानदारी से उठाती हुई दिख रही है। न सिर्फ सामाजिक न्याय की बात उठा रही है बल्कि संगठन को भी सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के काबिल बनाने की कोशिश कर रही है तो इस के पीछे उस के विवेक के रूठे हुए पाठ के फिर से जागने के प्रयास के रूप में स्वीकार कर किया जाना चाहिए। बात देश की है, घड़ी फैसलाकुन है तो फैसला देश के आम लोगों के विवेक को ही लेना होगा।
राजनीतिक गुणवत्ता तो छोड़िये, न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता के हाल पर गौर कीजिए। कभी ‘अमीर’ होने के कारण अपराध मुक्त कर दिया जाता है। कभी प्रार्थना से प्रेरणा लेकर महत्वपूर्ण फैसला लिखे जाने की खबर आती है। कभी बलात्कार और यौन शोषण के मामले पर अजीबोगरीब ‘नजरिया’ सामने आ जाता है। कभी माननीय न्याय मूर्ति के घर से भारी नगदी ‘मिली, नहीं मिली’ का हो-हल्ला मच जाता है। अधिकारियों के अविवेकी फैसलों के उदाहरण तो खैर भरे पड़े हैं। भगवान नहीं, जनता ही देश की मालिक है। जब विवेक की बात चली है तो अपनी आत्मा से पूछना ही होगा कि हमारा विवेक कहां गया!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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