उच्चतम न्यायालय ने अपने आधिकारिक ईमेल आईडी के फूटर पर लिखे गए स्लोगन ‘सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास’ के साथ पीएम के फोटो वाले स्लोगन को हटाने का निर्देश दिया है। उच्चतम न्यायालय रजिस्ट्री ने एनआईसी को कहा है कि वह इस नारे को हटाए और उसकी जगह उच्चतम न्यायालय की ईमेज को रखे। एनआईसी ने उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री के उस निर्देश का अनुपालन कर दिया है और अब उच्चतम न्यायालय के आधिकारिक मेल में उच्चतम न्यायालय की तस्वीर डाल दी गई है।
दरअसल एनआईसी द्वारा ‘सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास’ स्लोगन के साथ पीएम की तस्वीर आधिकारिक मेल आईडी में डाली गई है। एनआईसी की ईमेल सर्विस में उक्त स्लोगन और पिक्चर डाला गया था। सुप्रीम कोर्ट इस ईमेल सर्विस का इस्तेमाल वकीलों को सूचना देने और नोटिस देने आदि के लिए भी करता है।
उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री के संज्ञान में 23 सितंबर की शाम यह तथ्य आया कि उच्चतम न्यायालय के आधिकारिक ईमेल में एनआईसी ने जिस फूटर का इस्तेमाल किया है, उसका सुप्रीम कोर्ट के फंक्शनिंग से कोई ताल्लुक नहीं है। इसके बाद रजिस्ट्री ने एनआईसी को निर्देश दिया है कि वह जिस फूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं उसे हटाएं और उसकी जगह उच्चतम न्यायालय की इमेज इस्तेमाल करें।
लौह अयस्क के निर्यात पर बैन की याचिका पर केंद्र को नोटिस
लौह अयस्क निर्यात पर बैन की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा है। उच्चतम न्यायालय ने एनजीओ “कॉमन कॉज” द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी कर केंद्र को लौह अयस्क के निर्यात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने या लोहे के निर्यात पर 30 फीसद का निर्यात शुल्क लगाने का आदेश जारी करने की याचिका पर ये नोटिस जारी किया है।
प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि लौह अयस्क को घरेलू उपयोग के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि देश के इस्पात उद्योग को इसकी आवश्यकता होती है और वे इसे उच्च कीमतों पर आयात करने के लिए मजबूर होते हैं। प्रशांत भूषण ने कोर्ट को बताया कि कई राज्यों में लौह अयस्क का खनन पर रोक है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने तीन अलग-अलग मामलों में फैसले देते हुए इनके खुले खनन और निर्यात पर भी पाबंदी लगाने को कहा था।
दरअसल, राष्ट्रपति के पास जब घरेलू स्टील उद्योग पर संकट की मूल वजह लौह अयस्क के निर्यात को बताते हुए गुहार लगाई गई तो तत्कालीन राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से राय मांगी थी। कोर्ट ने निर्यात पर रोक सहित कई पाबंदी की राय दी थी।
सरकार ने सुनवाई के दौरान कहा कि कोर्ट के इस मंतव्य के बाद केंद्र ने लौह अयस्क निर्यात रोक दिया था। साथ ही सरकार ने जरूरी और लौह अयस्क की बनी बनाई सामग्री के एक्सपोर्ट पर तीस फीसदी निर्यात कर भी लगाने का सख्त प्रावधान किया था, लेकिन निजी कंपनियां गोलियों के रूप में लौह अयस्क का निर्यात करती हैं, कच्चे माल के रूप में नहीं। जबकि खनन पर रोक के बाद अपवाद के रूप में राज्य सरकार का कर्नाटक खनन निगम ही इस काम में लगा है।
जनहित याचिका में भारत सरकार को विदेश व्यापार (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1992 की धारा 11 और सीमा शुल्क अधिनियम, 1962 की धारा 135(1) के तहत कार्यवाही शुरू करने के लिए एक उपयुक्त रिट, आदेश या निर्देश जारी करने की भी प्रार्थना की गई है, और भारत के निर्यात कानूनों/नीतियों के प्रावधानों के उल्लंघन में लौह अयस्क प्लेटों का निर्यात करने वाली कंपनियों के खिलाफ कानून के अनुसार उचित जुर्माना लगाने की मांग भी की गई है।
विभागीय कार्यवाही में साबित करने का भार ‘कदाचार की संभावना’ का
उच्चतम न्यायालय ने सीआरपीएफ कांस्टेबल की बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए कहा है कि विभागीय कार्यवाही में सबूत का बोझ कदाचार की संभावनाओं का है। जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि विभागीय जांच पब्लिक सर्विस में सेवा और दक्षता में अनुशासन बनाए रखने के लिए है।
दलबीर सिंह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में जनरल ड्यूटी कांस्टेबल था। उसने कथित तौर पर हेड कांस्टेबल हरीश चंदर और डिप्टी कमांडेंट हरि सिंह पर अपनी सर्विस रिवॉल्वर से गोली चलाई थी, जिसके परिणामस्वरूप हरीश चंदर की मौत हो गई और हरि सिंह घायल हो गया। उसे ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया लेकिन हाईकोर्ट ने संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था। इसके बाद हुई विभागीय कार्यवाही में, कमांडेंट, दण्ड देने वाले प्राधिकारी ने विभाग की जांच में प्राप्त सबूतों पर विचार करते हुए निष्कर्ष निकाला कि सिंह ने सर्विस हथियार का दुरुपयोग किया और वह अनुशासनात्मक बल में बनाए रखने का हकदार नहीं हैं। आदेश की अपीलीय और पुनरीक्षण प्राधिकारी द्वारा पुष्टि की गई। हाईकोर्ट ने इन आदेशों को निरस्त कर दिया।
उच्चतम न्यायालय यूनियन ऑफ इंडिया द्वारा दायर अपील में कहा कि हाईकोर्ट ने अनुशासनात्मक कार्यवाही में पारित आदेशों पर न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र को पार कर लिया है, जिसे न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों का पालन करते हुए आयोजित किया गया था। अदालत ने कहा कि विभागीय कार्यवाही में सबूत का बोझ उचित संदेह से परे नहीं है, जैसा कि आपराधिक मुकदमे में सिद्धांत है, लेकिन कदाचार की संभावना है।
क्या प्रतिबंधित किताब रखने के आधार पर यूएपीए केस चल सकता है
उच्चतम न्यायालय ने एनआईए द्वारा दायर उस याचिका पर यह सवाल किया, जिसमें केरल हाईकोर्ट द्वारा क़ानून के छात्र अल्लान शुहैब को ज़मानत देने के फ़ैसले को सही ठहराने वाले आदेश को ख़ारिज करने की मांग की गई है। उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से पूछा है कि क्या किसी व्यक्ति से साहित्य की बरामदगी, प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता और नारेबाजी करने मात्र के आधार पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए जा सकते हैं।
जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस अभय श्रीनिवास ओका की पीठ ने एनआईए द्वारा दायर उस विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई करते हुए ये सवाल किया, जिसमें केरल हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई है, जहां कानून के छात्र अल्लान शुहैब को जमानत देने के निचली अदालत के आदेश की पुष्टि की गई थी। पीठ शुहैब के सह-आरोपी और पत्रकारिता के छात्र ताहा फज़ल द्वारा दायर एक अन्य याचिका पर भी सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने उसी उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी है, जिसने निचली अदालत द्वारा उन्हें दी गई जमानत को रद्द कर दिया था।
पुलिस और एनआईए ने शुहैब तथा फज़ल पर ये कहते हुए यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया था कि वे प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से जुड़े थे। गिरफ्तारी के समय शुहैब और फज़ल की उम्र क्रमश: 19 और 23 साल थी।
राजस्थान के विवाह अध्यादेश की संवैधानिकता को चुनौती
राजस्थान विवाह पर नए कानून का मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया है। राजस्थान के अध्यादेश की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है।याचिका में कहा गया है कि नया विवाह कानून बाल विवाह को सही ठहराता है। बाल विवाह के पंजीकरण की अनुमति देने से खतरनाक स्थिति पैदा होगी। इससे बाल शोषण के मामलों में बढ़ोत्तरी होगी।
यूथ बार एसोसिएशन ने यह याचिका दाखिल की है। याचिका में राजस्थान अनिवार्य विवाह पंजीकरण (संशोधन) विधेयक, 2021 की धारा 8 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। यह संशोधन बाल विवाह के पंजीकरण की अनुमति देता है। याचिका में कहा गया है कि राजस्थान सरकार बाल विवाह को पिछले दरवाजे से प्रवेश देकर अनुमति देने का इरादा रखती है, जो अवैध है और कानून के तहत अस्वीकार्य है।
तमिलनाडु ऑनर किलिंग केस : एक को मौत की सजा और 12 को उम्रकैद
तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले की एक अदालत ने 2003 के झूठी शान के लिए हत्या मामले में शुक्रवार को एक व्यक्ति को मौत की सजा और दो पुलिस अधिकारियों सहित 12 अन्य को उम्रकैद की सजा सुनाई, जिसमें एक युवा जोड़े को महिला के परिवार ने अंतरजातीय विवाह के बाद मार डाला था।
यह मामला एक प्रभावशाली समुदाय के 22 वर्षीय डी कन्नगी और 18 साल पहले अनुसूचित जाति की 25 वर्षीय एस मुरुगेसन के बीच मई 2003 में प्रेम विवाह से जुड़ा हुआ है। नतीजों के डर से, युगल अलग-अलग रहते थे। हालांकि, महिला के परिवार ने, जिसने उनकी शादी को स्वीकार नहीं किया, एक महीने बाद जोड़े को उनसे मिलने के लिए बुलाया था। इस दौरान उन्होंने दंपति की हत्या कर दी। उनके शरीर को जलाने से पहले उनके नाक और कानों के माध्यम से जहर दिया गया।
पुलिस ने घटना को छुपाया और एस मुरुगेसन के परिवार द्वारा दर्ज मामला दर्ज नहीं किया। 2004 में सार्वजनिक आक्रोश के बाद जांच सीबीआई के पास गई। 15 लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए और 81 गवाहों के रूप में सूचीबद्ध किए गए। उनमें से कम से कम 36 गवाह अंत तक पलट गये। एस मुरुगेसन के परिवार के लिए 2003 में शुरू हुई कानूनी लड़ाई करीब दो दशक तक चली।
मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत ने महिला के भाई मरुधुपांडियन को मौत की सजा सुनाई। उनके पिता दुरईस्वामी, तत्कालीन इंस्पेक्टर चेल्लामुथु (अब सेवानिवृत्त) और सब इंस्पेक्टर तमिलमारन (अब इंस्पेक्टर) सहित 12 अन्य लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)