उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि देश में लोगों का खानपान क्या है कौन शाकाहारी होगा और कौन मांसाहारी, इसमें कोई दखल नहीं दे सकता। जस्टिस संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने याचिकाकर्ता की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोई हलाल खाए या झटका इसमें न्यायालय दखल नहीं दे सकता। कल आप कहेंगे कि किसी को भी मांस नहीं खाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने ‘हलाल’ को चुनौती देने वाली याचिका को शरारतपूर्ण करार देकर खारिज कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोर्ट ये तय नहीं कर सकता कि कौन वेजिटेरियन होगा और कौन नॉन वेजिटेरियन। जस्टिस कौल ने कहा, “हलाल केवल ऐसा करने का एक तरीका है। अलग-अलग तरीके संभव हैं, हलाल है, झटका है। कुछ लोग झटका करते हैं, कुछ हलाल करते हैं, यह कैसे एक समस्या है? कुछ हलाल मांस खाना चाहते हैं, कुछ झटका मांस खाना चाहते हैं, कुछ रेंगने वाले जंतुओं का मांस खाना चाहते हैं।”
अदालत ने पशुओं को स्लॉटरिंग में हलाल किए जाने के तरीके पर प्रतिबंध लगाए जाने की याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। अदालत ने याचिका को शरारतपूर्ण बताते हुए कहा कि याचिका पर सुनवाई नहीं हो सकती।
लाइव लॉ के अनुसार उच्चतम न्यायालय में अखंड भारत मोर्चा नामक संगठन की ओर से अर्जी दाखिल कर प्रिवेंशन ऑफ क्रुअल्टी टू एनिमल एक्ट की धारा-28 को चुनौती दी थी और हलाल कर पशुओं के वध करने के तरीके को चुनौती दी थी। उक्त कानून में प्रावधान किया गया है कि अपने धर्म के हिसाब से पशुओं के वध कानून में अपराध नहीं है। हलाल, झटका जैसे तरीके को कानून की धारा-28 के तहत प्रोटेक्ट किया गया है। हलाल में नस काटी जाती है और झटका में एक बार में सिर को अलग किया जाता है।
हलाल प्रैक्टिस मुस्लिमों में जबकि झटका विधि हिंदुओं में प्रचलित है। याचिकाकर्ता का कहना था कि हलाल के जरिए पशुओं को मारने से उन्हें ज्यादा तकलीफ होती है। ऐसे में भारत जैसे सेक्युलर देश में इसकी इजाजत नहीं होनी चाहिए। झटका विधि से पशु को तकलीफ से नहीं गुजरना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका रिजेक्ट करते हुए कहा कि याचिका नुकसान पहुंचाने वाली प्रकृति की है।
याचिकाकर्ता-संगठन के वकील ने आग्रह किया, “यह माना गया है कि जानवरों की खुद की आवाज़ नहीं है और वे स्वयं अदालत तक नहीं पहुंच सकते हैं। यहां तक कि यूरोपीय न्यायालय ने भी फैसला सुनाया है कि ‘हलाल’ बेहद दर्दनाक है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि इस प्रक्रिया में पशु को अत्यधिक दर्द और पीड़ा होती है। अधिवक्ता ने पीठ का ध्यान पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि इसकी धारा 3 इसे प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य बनाती है कि वह किसी भी जानवर की देखभाल करने वाला या प्रभारी होने के कारण जानवर को दर्द या पीड़ा के इस तरह के तरीके को रोकने को सुनिश्चित करने के लिए सभी उचित उपाय करे।
धारा 11 (1) (एल) इसे दंडनीय अपराध बनाती है। अगर कोई किसी जानवर को मारता है या किसी भी जानवर (आवारा कुत्तों सहित) को दिल में क्रूरतापूर्वक इंजेक्शन या किसी अन्य अनावश्यक रूप से स्ट्राइकिन इंजेक्शन का इस्तेमाल करके मारता है और धारा 28 जो किसी भी समुदाय के धर्म के अनुसरण में या किसी भी धार्मिक संस्कार के लिए किसी भी तरह से किसी जानवर की हत्या करने की छूट देती है।
वकील ने तर्क दिया कि अगर कोई शाकाहारी है, तो जानवरों के साथ क्रूरता क्यों होनी चाहिए? जलीकट्टू मामले में, आवश्यकता के सिद्धांत को दोहराया गया था। यह कहा गया था कि भोजन के लिए जानवरों की हत्या की अनुमति है, लेकिन जानवरों के प्रति मानवता दिखाने के लिए इस तरह की हत्या भी एक तरीके से की जानी चाहिए। जब उन्होंने आग्रह किया कि इस तरह की प्रथा जो मानवता के खिलाफ है, को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, तो पीठ ने याचिका को शरारतपूर्ण बताते हुए खारिज कर दिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)
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