झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। झारखंड में इंडिया अलायंस की जीत हुई है, महाराष्ट्र में हार हुई है। इस जीत को भी समझना जरूरी है, इस हार को भी समझना जरूरी है। जरूरी तो है मगर कैसे और क्या का सवाल भी है।
जिन्हें लोकतंत्र में विश्वास है उन्हें लोकतंत्र की बात करते हुए जनता के तर्कशील चयन पर भरोसा करना ही होगा। यह उम्मीद करना कि जनता ‘कुछ लोगों’ की तर्कशील बौद्धिक धारणाओं के पीछे के तर्क-वितर्क को समझे और स्वीकार करे बेवकूफी की उम्मीद के अलावा शायद ही कुछ हो। जनता के तर्क को समझना जरूरी है। किसी को समझने का मतलब किसी भी अर्थ में अपनी समझ को उस पर थोपना नहीं हो सकता है।
किसी अन्य को समझने के लिए कई बार अपनी समझ के बोझ को थोड़ी देर के लिए उतारने की जरूरत होती है। थोड़ी देर के लिए ही सही अपनी समझ से मुक्त होना बहुत आसान नहीं होता है। इस में अंतर्निहित जोखिम को उठाने के लिए न्यूनतम साहस और सलाहियत की भी अनिवार्य जरूरत होती ही है।
ईवीएम (Electronic Voting Machines) में गड़बड़ी या हेरा-फेरी की बात के आरोप का तकनीक एवं अन्य संसाधनों के दुरुपयोगों के तकनीकी विश्लेषण का मामला अलग से विचारणीय है। जिन राजनीतिक दलों का मानना है कि ईवीएम का दुरुपयोग होता है उन्हें इस के लिए अलग से क्या-न-कुछ करना चाहिए। ईवीएम के दुरुपयोग नागरिक समाज को भी कुछ-न-कुछ करना चाहिए। यह किया भी जा रहा है मगर ढंग की कोई सुनवाई नहीं हो पा रही है। चुनाव आयोग विपक्ष की लगभग हर बात की ‘कायदे’ से अनसुनी ही करता है। लोकतंत्र में सरकार का मजबूत या विपक्ष का मजबूर होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण जनता का मजबूत होना है।
जनता की मजबूती राजनीतिक दलों को दिये गये समर्थन के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है। दूसरा कोई रास्ता तो फिलहाल है नहीं। कम-से-कम तब तक दूसरे किसी रास्ता पर कुछ भी कहना मुश्किल ही जब तक अनुशासित, सशक्त और सुचिंतित जनांदोलन की शुरुआत नहीं होती है। महाराष्ट्र की जनता ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में महायुति को समर्थन दिया है तो इस के राजनीतिक निष्कर्ष और निहितार्थ को किस तरह से समझा जाये! क्या इस तरह से कि महाराष्ट्र के लोगों को महाराष्ट्र के संभावित कारोबारों को गुजरात ले जाने की योजना पर कोई आपत्ति नहीं है!
भ्रष्टाचार का अर्थ कांग्रेस के संदर्भ से सीमित है! भारतीय जनता पार्टी और उस के नेताओं, उस के लगुए-भगुए की राजनीतिक और आर्थिक हेरा-फेरी को भ्रष्टाचार के दायरों में नहीं लिया जा सकता है! बेरोक-टोक बढ़ती हुई महंगाई, बेरोजगारी, नफरती बयानों, विषमताओं के प्रति कोई असहमति का कोई स्वर नहीं है। लोग पूंजीपतियों, कारोबारियों के सरकार के बनाने-बिगाड़ने के खेल में लग जाने के खिलाफ बिल्कुल नहीं हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता है।
कहते हैं कि महाराष्ट्र के लोग अपनी अस्मिता को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। मुश्किल यह है कि राजनीति के सशक्त औजार भद्रता के गोदाम से नहीं धूर्तता के गोदाम से निकलते हैं। राजनीति शास्त्र में यह बात कहीं-न-कहीं दर्ज जरूर होगी कि लोकतंत्र का दूसरा पहलू है ‘जनता के द्वारा जनता के खिलाफ जनता का शासन’! नहीं दर्ज हो तो अब दर्ज की जानी चाहिए। दुनिया भर में लोकतंत्र का यह दूसरा पहलू अभी उभर कर सामने आ गया है।
सवाल तो अब यह है कि अंततः इस की राजनीतिक प्रतिध्वनि की कर्कशता की हद क्या होगी! यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोग स्वतंत्रता और अधिकार की बात को हमेशा याद रखते हैं। हां कभी-कभी पतन का ऐसा दौर भी आता है जब लोग ‘गुलामी में आनंद’ खोजने के चक्कर में पड़ जाते हैं। यह वही दर है जब ‘गुलामी में आनंद’ की खोज की जाती है।
क्या यह सच है कि आजादी गुलामी के कई रूपों में से किसी एक रूप को चुनने के अधिकार तक सीमित रहती है? क्या शासन की शैली में बदलाव की प्रक्रिया का मतलब एक तरह की गुलामी से निकलकर दूसरी शैली की गुलामी की तरफ बढ़ने के अलावा कुछ और नहीं होता है? अगर ऐसा ही है तो यह बहुत ही भयानक है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में महायुति की जीत हुई यह कोई अचरज की बात नहीं है। इतनी बड़ी जिस तरह से हुई है वह अचरज की बात है।
ऐसा समझा जाता है कि इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की भूमिका बहुत बड़ी रही है। यह सच है तो समझ लेना चाहिए कि संसदीय व्यवस्था में बदलाव हो चुका है। जन-प्रतिनिधियों की जगह संघ प्रतिध्वनियों ने ले लिया है। इस में बुरा क्या है, भला क्या है यह तो जनता के सोचने का मामला है।
सोचने की बात यह है कि लोकतंत्र के इस दूसरे पहलू, यानी जनता को जनता के खिलाफ के शासन-तंत्र से, जो राजनीतिक सूत्र निकलता है उस की सिद्धांतकी क्या होती है, क्या हो सकती है? भारत के राजनीतिक दलों को इन स्थितियों का एहसास होना चाहिए। ऐसा लगता है कि संघ प्रतिनिधियों के ‘विभीषणी दबाव’ का एहसास भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को भी है। न होता तो कभी यह नहीं कहते कि भारतीय जनता पार्टी अब बड़ी हो गई है और उसे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के निदेशन की जरूरत नहीं है। लेकिन लोकसभा के चुनाव में हुई दुर्गति के कारण भारतीय जनता पार्टी पर फिर से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का वर्चस्व कायम हो गया प्रतीत होता है। सरकार पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के वर्चस्व का मतलब अलग से समझने की जरूरत है, हालांकि यह पहले से भी कोई कम स्पष्ट नहीं है।
न मुंह में दांत, न पेट में आंत! जिंदा रहने की जद्दोजहद में आदमी बिना दांत, बिना आंत के लगे ही रहता है। बड़े लोगों का मानना है कि जनता आजादी को लेकर क्या करेगी। उस के लिए जो जरूरी है, वह आजादी नहीं आजादी के अलावा कुछ अन्य है। वह अन्य क्या है यह बड़े लोगों को पता है। न्याय! न्याय क्या है, अन्याय क्या यह भी उन्हीं को पता है। बड़े लोगों का मानना है कि जनता को न्याय-अन्याय के मसलों से निरपेक्ष रहना चाहिए।
लोकतंत्र का मुख्य आशय वर्ग वर्चस्व को समाप्त कर सभी वर्गों तक लोकतांत्रिक मूल्यों, वैज्ञानिक और आर्थिक विकास का आनुपातिक लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचाना है तो वह आशय फेल हो चुका है। दवा में ही जहर मिल चुका है। लोकतंत्र यदि बेकाबू वर्ग वैमनस्य को काबू में रखने का कोई सफल उपाय नहीं करता है तो फिर वर्ग-संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। वर्ग-संघर्ष की स्थितियों की इस अनिवार्य राजनीतिक प्रक्रिया का कैसा स्वागत होगा, अभी से कहना मुश्किल है। यह केवल भारत की बात नहीं है। इसलिए दुनिया के लोगों को इस बात की चिंता होनी चाहिए और शायद है भी। सब से ज्यादा चिंता तो ‘स्वस्थ पूंजीवाद’ के समर्थकों को होनी चाहिए।
समझना जरूरी है कि विषमताओं को बढ़ने से रोकने में विफलता का नतीजा पहले स्वस्थ लोकतंत्र की संभावनाओं को और फिर स्वस्थ पूंजीवाद के रास्तों में अवरोध खड़ा करने की तरफ बढ़ जायेगा। स्वस्थ लोकतंत्र के अभाव में विषमता बढ़ती है। जाहिर है कि यह स्थिति राष्ट्र के लोगों में गहरा और कभी न दूर किया जाननेवाला आर्थिक विभाजन और वर्ग वैमनस्य को अधिक व्यग्र और उग्र बना देगा। वर्ग-विद्वेष के असहनीय हो जाने पर उत्पन्न अनिवार्य वर्ग-संघर्ष की स्थितियों में जो अफरातफरी मचेगी उस की भी चिंता कहीं-न-कहीं ‘विश्व व्यवस्थापकों’ को होनी ही चाहिए। शायद हो भी! क्या पता!
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि विश्व-युद्धों के नतीजों के सामने आने के बाद ही व्यवस्था के बहु-मूल्य उपकरण के रूप में लोकतंत्र का आग्रह विश्व-व्यवस्था में बढ़ा था। आज जब दुनिया पर फिर से विश्व-युद्ध का खतरा मंडरा रहा है तो उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लापरवाही का भी नतीजा माना जाना चाहिए। अनुभव बताता है कि मनुष्य के विरुद्ध मनुष्य का इस्तेमाल बहुत दिनों तक संभव नहीं हो सकता है। लोकतंत्र के प्रति लापरवाही से भारत भी अछूता नहीं है।
भारत के राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों को चुनाव परिणाम के विश्लेषण से सीमित न बने रहकर दक्षता के साथ लोकतांत्रिक स्थितियों के दत्त-चित्त विश्लेषण में लगना चाहिए। यह सहज ही महसूस किया जा सकता है कि भारत की राजनीतिक स्थिति को समझना जरूरी तो है लेकिन सवाल है कैसे और क्या समझना जरूरी है?
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)