मुल्क की हवा में इतने कील-कांटे कि गुब्बारा उड़ते ही फट जाता है

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अपनी जात पूछने जैसे अपमान को परे झटककर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने जब संसद में दहाड़ते हुए जब उसी सदन में जातिवार जनगणना करवाये जाने की ऊर्ध्व-बाहु घोषणा की थी तो कई लोगों को इस में ‘बड़बोलेपन’ के अलावा कुछ नहीं दिखा होगा। हां, घने बादल के बीच से निकली बिजली की चमक तरह की अखिलेश यादव की त्वरित प्रतिक्रिया से सत्ता-पक्ष के शुभ-चिंतकों ने अपने-अपने कान जरूर मूंद लिया था। सदन में जो हुआ, सो हुआ।

सदन के बाहर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की प्रतिनिधि सभा में भी इतनी जल्दी जातिवार जनगणना को ‘हरी झंडी’ दिखा दी जायेगी, किस ने सोचा होगा! स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी से लग जाता है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की केरल के पलक्कड़  में हुई प्रतिनिधि सभा में इस विषय पर गहन चर्चा हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचार प्रमुख सुनील अंबेकर ने 2 सितंबर 2024 को जाति जनगणना के लिए संगठन के समर्थन का साफ संकेत कर दिया।

कितने जबरदस्त उक्ति-संग्राम के बाद राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने आगे की यात्रा के रास्ते पर पड़े जातिवार जनगणना के पत्थर को सिर पर लादने के लिए खुद को राजी किया होगा, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। गठन के सौ साल पार करते-न-करते ऐसा ‘धर्म-संकट’ राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ (स्था: 27 सितंबर 1925) के मूल-संघर्ष के सामने ‘मर्म-संकट’ बनकर खड़ा हो जायेगा ऐसा उस के किसी सिद्धांतकार ने कभी सोचा भी न होगा। भू-स्खलन के कारण रास्ता पर पड़े मिट्टी-पत्थर का खुले दिल-दिमाग पर कितना बोझ पड़ता है यह तो वे ही समझते हैं, जो कुछ देर के लिए भी बाल-बच्चों के साथ ऐसी स्थिति में फंस जाते हैं। मीडिया में ऐसे दृश्य दिखते तो रहते हैं लेकिन ऐसे दृश्य के बोझ का एहसास दर्शकों को बिल्कुल ही नहीं होता है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को खुले दिल-दिमाग से समर्पित इस समय के लाखों स्वयं-सक्षम स्वयं-सेवकों के खुले दिल-दिमाग पर क्या गुजर रही होगी! इस दर्द को भारतीय जनता पार्टी के सत्ता-प्रवाह में ‘समाहित आयातित लोग’ समझ ही नहीं सकते हैं। कल्पना ही की जा सकती है कि लाखों पूर्वज-स्वयं-सेवक की आत्मा कितनी कचोट रही होगी! नरेंद्र मोदी की सत्ता बनाने में स्वयं-सक्षम सत्ता-सहयोगी, लेकिन राजनीति में विरोधी, भी नहीं समझ सकते हैं।

गहन मंथन के पश्चात निकले निष्क्रिय निष्कर्ष विष को स्वीकार करना राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के लिए कितना कठिन होगा, इस का अनुमान करना बाहर के लोगों और ‘उदार-बुद्धिजीवियों’ के लिए भी संभव नहीं है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की पूरी कतार के लिए कातर स्थिति है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के लिए आगे के रास्ता पर तीखे विचारधारात्मक मोड़ के साथ आत्म-रक्षात्मक प्रतिरोध का पत्थर, नहीं पहाड़ है।

अब भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्यों में बिखराव साफ-साफ दिखने लगा है। हिंदुत्व की राजनीति की चुनावी विफलताओं के बाद भारतीय जनता पार्टी अपने ही बुने जाल में बुरी तरह से उलझ गई है। यह जाल सामाजिक न्याय-दृष्टि के धागों से बना हुआ है। जातिवार जनगणना पर उन के रुख से उनकी राजनीतिक पोटली न सिर्फ ऊपर से खुल गई है बल्कि उस पोटली की दोहरी सिलाई नीचे से भी खुल गई है।

संघर्ष, प्रतिरोध आदि से रणनीतिक दूरी बनाकर चलनेवाले सामाजिक समानता नहीं समरसता के लिए संकल्पित और सौ साल पहले स्थापित राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के सामने तब सत्ता का नहीं भ्रामक खतरे की काल्पनिकता में ‘अस्तित्व’ का सवाल था। स्थापना के सौ साल बाद अब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के सामने ‘अस्तित्व’ का भी सवाल है और सत्ता का भी सवाल है। राजनीतिक सत्ता के मोह में सांगठनिक अस्तित्व की निरर्थकता की ओर तेजी से बढ़ रहे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के लिए यह बिल्कुल ‘अप्रत्याशित’ स्थिति है। सुना है कठिन समय में संजय जोशी, जी ‘उसी संजय जोशी’ की याद आ रही है। क्या पता, गलत सुना हो!

संस्कृति या अस्तित्व की राजनीति और सत्ता की राजनीति मनुष्य की सामाजिक और राजकीय गतिविधियों की दो समानांतर पटरियों पर चलती है। इन समानांतर पटरियों के मिल जाने से आगे का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है, कभी-कभी तो भयानक दुर्घटना भी हो जाती है। अकसर एक बात हमारे ध्यान से उतर जाती है कि भारत एक राष्ट्र है, भारत राष्ट्र की सत्ता एक है, लेकिन इस की सामाजिकताएं अनेक नहीं, असंख्य हैं।

यह मानना व्यावहारिक नहीं है कि सामाजिकता और राष्ट्रीयता में कहीं भी किसी भी हाल में सम-व्याप्ति की स्थिति बन सकती है। अधिक-से-अधिक यह हो सकता है कि कोई बड़ा सामाजिक समूह अन्य छोटे-छोटे समूह को अपने वर्चस्व की ‘सहृदयता’ साथ नत्थी कर ले। इस तरह से छोटी-छोटी सामाजिकताओं के किसी बड़ी सामाजिक से नत्थीभुक्त होने के बाद आंतरिक उपनिवेश ‘आराम’ से काम करने लगे!

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या (30 जनवरी 1948) और भारत के संविधान को भारतीयों के द्वारा (26 जनवरी 1950) आत्मार्पित करने तथा संविधान के प्रभावी हो जाने के बाद हुए पहले आम चुनाव (25 अक्तूबर 1951 से 21 फरवरी 1952) के ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की पहल पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में (21 अक्तूबर 1951) भारतीय जनसंघ का गठन हुआ था जो अब भारतीय जनता पार्टी के नाम से जानी जाती है। इस इस प्रसंग में सहयोगी हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद का भी उल्लेख जरूरी है।

महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने अपनी प्रवर्तित राजनीतिक पार्टी को अपनी सांगठनिक सम-व्याप्ति में भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की चुनौती के साथ संसदीय राजनीति में आगे बढ़ने का असंभव दायित्व सौंपा था। यह दायित्व बिल्कुल असंभव इसलिए था कि भारत की राष्ट्रीयता और भारत का राष्ट्रवाद भारत के संविधान से सुपरिभाषित और भारतीयों की आकांक्षा की सम-व्याप्ति में है; भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की अन्य सम-व्याप्ति असंभव है। जाहिर है कि भारत का संविधान और उस के प्रावधान राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के ‘राजनीतिक एजेंडा’ के लिए एक बड़ी बाधा है। कोई समझदार अपने पथ की बड़ी बाधा के साथ कैसा सलूक करता है, यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है।

सामाजिकताओं के आधार पर राष्ट्रीयताओं का गठन एक अव्यावहारिक विचार है। यही अव्यावहारिक विचार बाल्कनीकरण को जन्म देता है। बाल्कनीकरण वह प्रक्रिया है जो विभिन्न सामाजिकताओं में संस्कृति, धर्म आदि की भिन्नताओं में सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के अभाव के चलते राजनीतिक विखंडन से शुरू होती है राष्ट्रीयता की संभावनाओं को बिखेर देती है। बाल्कनीकरण की प्रवृत्ति के उभार को 20वीं सदी के दूसरे दशक में प्रथम विश्व-युद्ध के भयावह दौर में चिह्नित किया गया था।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का प्राथमिक लक्ष्य भारत के विभिन्न भूक्षेत्र की रिहाइशों के ‘उच्च-कुल-शील’ लोगों का संघटन कर विशाल भारत राष्ट्र में धर्म-सांस्कृतिक दबाव समूह के रूप में अपनी स्थिति मजबूत करने का था। इस्लाम के अलावा सारे आगंतुक जत्थों का समावेश किसी-न-किसी तरह से भारतीय संस्कृति की नई धारा के रूप में हो गया था। कई बार नये आक्रामक आगंतुक जत्थों के आने पर पहले से आये हुए जत्थे आत्म-रक्षा के दबाव में सिकुड़कर पुराने जत्थों के साथ सामाजिक समावेश की तरफ बढ़ जाते हैं।

इस्लाम के बाद अंग्रेजों का भारत आगमन हुआ। अंग्रेज भारत में बाहरी तो थे, लेकिन आक्रांता जत्था के रूप में नहीं आये थे। न इस्लाम को माननेवाले शासक समूह में आत्म-रक्षा के प्रति वैसी संवेदनशीलता के लक्षण उभरे जो लक्षण पहले के जत्थों में आत्म-रक्षा के वास्ते उभरते थे। बहुत सामान्य तरीके से इस लक्षण का उभार 1857 के समय देखा जा सकता है। अंग्रेज राजनीतिक रूप से पहले के आगंतुक जत्थों से अधिक भिन्न और समझदार थे। सामरिक रूप से 1857 पर काबू पा लेने के बाद अंग्रेजों ने दो मोर्चों पर काम करना शुरू कर दिया।

पहला मोर्चा था हिंदू-मुसलमान के बीच बढ़ती हुई राजनीतिक-सामाजिक समझदारी को उन के रिश्तों में गलतफहमियां फैलाकर घेर लेना। दूसरा मोर्चा था हिंदू समाज में घुसी वर्ण-व्यवस्था में पल रहे सामाजिक भेद-भाव की पीड़ा का राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए इस्लाम के आगमन के पहले की भारत की ‘ब्राह्मणवादी स्वर्णिम संस्कृति’ की महानता को बौद्धिक रूप से स्थापित करना था।

मुसलमान शासन के दौरान मुसलमानों के द्वारा हिंदुओं जनता पर अत्याचार और हिंदू देवी-देवताओं के अपमान की भयानक-से-भयानक कहानियां गढ़कर उसे भारत के विकल्प वैकल्पिक इतिहास के ‘अंधकार युगीन’ खाता-खजाना में डाल देना। जिस किसी भी कीमत पर हिंदू-मुसलमान में निकृष्टतम हितनाशी वैर विकसित करते रहना। कुल मिलाकर यह कि ब्रिटिश व्यवस्था के पक्ष में हिंदू-मुसलमान दोनों के साथ अलग-अलग संबंध रखना।

ब्रिटिश हुकूमत के दौरान कुछ अच्छे काम भी हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव और टकराव बढ़ाकर भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति और सहमिलानी राजनीति में ऐसा चीरा लगाया कि सांप्रदायिक भेद-भाव का जहर पूरे देश में फैलाव गया। देश विभाजन तक हो गया। यह एक ऐसा काम है जिस ने अंग्रेजों के सारे अच्छे काम को विषाक्त बना दिया।

भेद-भाव से जर्जर इस देश पर ‘बांटो और राज करो’ से बेहतर नीति ब्रिटिश हुकूमत के लिए अन्य हो भी क्या सकता था? भेद-भाव की कुटिलता से व्यावहारिक मुक्ति आज भी भारत के सामाजिक लोकतंत्र का सब से ज्वलंत प्रसंग है। यह कहना जरूरी है कि अंग्रेजों ने हम से ही सीखकर ‘बांटो और राज करो’ की कुटिल-नीति का इस्तेमाल हम पर किया।

आजादी के आंदोलन के दौर में महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जैसे दूरदर्शी नेताओं के कारण वर्ण-व्यवस्था की पीड़ाओं का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक विघटन और विभाजन की अति तक ले जाने के लिए नहीं किया जा सका। जबकि मुसलमानों के संदर्भ में सामाजिक अविश्वास को फैलाकर देश विभाजन तक ले जाना संभव हो गया तो इस के पीछे कई कारण थे।

हिंदू-मुसलमान के बीच अविश्वास की गहरी खाई, संबंध में तनाव, व्यवहार में टकराव को देखते हुए कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली होने की स्थिति में हिंदुओं के जनसांख्यिकीय फायदा (Demographic Dividend) और मुसलमानों की जनसांख्यिकीय निर्भरता (Demographic Dependency) की खतरनाक राजनीतिक परिस्थिति में पड़ने के डर से इनकार नहीं किया जा सकता था।

हिंदुओं के जनसांख्यिकीय फायदा में रहने और मुसलमानों के जनसांख्यिकीय निर्भरता में होने के कारण अंततः पसमांदा मुसलमानों के हिंदू प्रभाव में पड़ जाने का खतरा अशराफ मुसलमानों के नेता भांप रहे थे। यह समझ में आने लायक बात है कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े पसमांदा मुसलमानों में अधिकतर बौद्ध से हिंदू, हिंदू से मुसलमान में परिवर्तित हुए थे। जैसे हिंदुओं में गैर-सवर्णों की संख्या सवर्णों से अधिक है, उसी तरह से पसमांदा मुसलमानों की संख्या अशराफ मुसलमानों से अधिक थी। पिछड़ा समाज और पसमांदा मुसलमानों में ‘युद्ध विराम की शांति’ बनी रहती थी।

पसमांदा मुसलमानों की अधिकतर आबादी किसी-न-किसी तरह से हिंदू चिह्नों की स्मृति संजोये ना-हिंदू-ना-मुसलमान की सामाजिक स्थिति में रहती आ रही है। इसलिए तो इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है, लेकिन पसमांदा मुसलमानों में जाति के आधार पर शोषण का वैसा ही मिलता-जुलता रिवाज है। यह स्पष्ट है कि भारत में इस्लाम के आगमन पर बहुत बड़ी आबादी सामाजिक समानता से प्रभावित होकर इस्लाम की ओर लपकी थी। लेकिन इस तरह से आकृष्ट आबादी का वैसा स्वागत इस्लाम में नहीं था जैसा स्वागत उच्च-कुल-शील लोगों का था। ऐसे में ‘आकृष्ट आबादी’ ठिठक गई थी। कहना न होगा कि मुस्लिम लीग पर मुख्य रूप से अशराफ मुसलमानों का ही वर्चस्व था और कहीं-न-कहीं आज भी है।

धर्म-संस्कृति की राजनीति करनेवाले किसी भी रंग-ढंग के हों समानता के विचार से असहमत रहते हैं। देश विभाजन की विभीषिका को झेलते हुए भारतीय उप-महाद्वीप की अंतरात्मा बहुत बुरी तरह से घायल थी। पाकिस्तान में मुहाजिर की समस्याओं पर अलग से अध्ययन किया जा सकता है। वर्ण-व्यवस्था में भेद-भाव की पीड़ा के परिप्रेक्ष्य को निष्क्रिय करने के लिए भारत में आरक्षण की व्यवस्था की गई।

संविधान निर्माताओं को पूरा विश्वास था कि वर्ण-व्यवस्था के सामाजिक भेद-भाव के तत्व को लोकतांत्रिक वातावरण में देर-सबेर पूरी तरह से नष्ट नहीं भी तो कम-से-कम निष्प्रभावी जरूर कर दिया जा सकेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समझा जा सकता है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ! कारण कई गिनाये जा सकते हैं, लेकिन तथ्य यही रहेगा कि सामाजिक स्वीकार्यता और सम्मानजनक स्वीकृति का माहौल शर्मनाक ढंग से अधूरा है।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के सिद्धांतकारों ने हमेशा आरक्षण को विरोध की दृष्टि से ही देखा, बहुत संवेदनशीलता हुई तो कुछ ने दया की दृष्टि से देखा है; अधिकार की दृष्टि से किसी ने नहीं देखा है। याद रहे, परेशानी कृपापूर्वक दिये जाने से नहीं अधिकार पूर्वक ले लेने से होती है। आरक्षण के प्रति राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का विरोध सिर्फ सैद्धांतिक न होकर व्यावहारिक भी रहा है। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने पर दक्षिण-पंथी राजनीति की गतिविधि और समय-समय पर पछाड़ मारकर उठनेवाले आरक्षण विरोधी आंदोलन और उस के नेतृत्व-समूह को याद किया जा सकता है।

मंडल आयोग की सिफारिश के राजनीति प्रभाव से निपटने के लिए ही भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन की तरफ तेजी से बढ़ गये थे; यह इतिहास नहीं अभी सक्रिय मतदाता समाज के बड़े हिस्से का आंखों देखी अनुभव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब किस को बता रहे हैं कि मंडल आयोग की सिफारिश भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से लागू की गई। इस के पहले तक सुदूर इतिहास की घटनाओं के बारे में गुब्बारा फुला रहे थे, लेकिन अब तो बहुत ‘निकट इतिहास’ की घटना की व्याख्या गलत इरादों से कर रहे हैं; मीडिया रहने भी दें। मीडिया अब गये जाने की बात हो गई है, उस का क्या रोना।

मतदाता समाज को गलत व्याख्या के माध्यम से रिझाने, बहलाने, फुसलाने और उस में सहयोगी होने की ऐसी कोशिश को राजनीतिक दुश्चरित्रता के अलावा क्या कहा जा सकता है? इस तरह के बयान अपनी ही राजनीतिक लाइन पर चलते हुए कष्ट भोगनेवाले कार्यकर्ताओं के संघर्ष का भी अपमान है। हिंदुत्व की राजनीति को वर्ण-व्यवस्था के कारण बने सामाजिक वातावरण की अव्यवस्था को ठीक करने में कभी दिलचस्पी नहीं रही है। इस का कारण बिल्कुल साफ है।

मुसलमानों से जुड़े काल्पनिक मुद्दों पर लड़ने-भिड़ने का माहौल बनाकर वर्ण-व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने और स्थाई बहुमत के जुगाड़ की कोशिश में ‘हिंदू एकत्रीकरण’ की राजनीति अब काम नहीं कर रही है। सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक मानकों पर पिछड़े समाज और पसमांदा मुसलमानों, बहुजन और न्याय-पसंद लोगों के भरोसे इंडिया गठबंधन भारत के इस न्याय-युद्ध को मुहब्बत से जीत सकता है।

हे माननीय मुल्क की हवा में इतने कील-कांटे कि गुब्बारा उड़ते ही फट जाता है और मामला फुस्स हो जाता है। हे माननीय धर्म-क्षेत्र और कुरुक्षेत्र में ‘पवित्र युद्ध’ के लिए समवेत ‘महा-पुरुषों’ ने पहले भी बहुत कुछ कहा था, आप भी कह रहे हैं तो क्या कमाल है! फिर कहें, भारत का राष्ट्रवाद भारत के संविधान से सुपरिभाषित और भारतीयों की आकांक्षा की सम-व्याप्ति में है; भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की कोई अन्य सम-व्याप्ति असंभव है; इसे संभव करने की कोशिश ही राष्ट्र विरोधी हरकत है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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