Friday, March 29, 2024

पर्यावरण दिवस पर विशेष: तपती धरती और आग बरसाते आसमान के बीच प्यासे हैं बस्तर के आदिवासी

कोंडागांव, बस्तर। जल, जंगल, जमीन का अस्तित्व आदिवासी समाज से है। लेकिन आज बस्तर का आदिवासी समाज साफ पानी पीने के लिए भी परेशान है। दरअसल आजादी के 75 साल बाद भी बस्तर संभाग के कोंडागांव जिले के मंडा गांव पंचायत के लोग झरिया (चुआं) का पानी पीने को मजबूर हैं। हालात यह हैं कि तपती गर्मी में महिलाएं पानी खत्म होने की स्थिति में दोपहर में सूखी नदी से पानी की तलाश में बालू खोदकर पानी निकल रही हैं। ‘जनचौक’ ने इस मंडा गांव की महिलाओं से मिलकर उनकी परेशानी के बारे में जानने की कोशिश की।

जिला मुख्यालय से महज 20 से 25 किलोमीटर की दूरी पर बसा मंडा गांव दो भागों में बंटा हुआ है। जो भंवरडीह नदी के दोनों किनारे पर है। इस गांव के दूसरे हिस्से में पहुंचने के लिए सूखी हुई बालू से भरी नदी को पार करना पड़ा। इस गांव के पटेलपारा में मिट्टी काटकर रास्ता बनाया गया है। जिससे गांव के लोग आवा-जाही करते हैं। यहां एक शख्स ने बताया कि सरपंच और गांव वालों की मदद से यह रास्ता बना है। लेकिन बरसात में यह भी खराब हो जाता है।

गांव के लोग गंदा पानी पीने को मजबूर

जून के पहले सप्ताह में बेइंतहा गर्मी के बीच यहां की महिलाएं अपनी जरूरत के लिए नदी से पानी लेने जाती हैं। लेकिन यह पानी इन्हें आसानी से नहीं मिलता है। स्थिति यह है कि नदी सूखी होने के कारण लोग पहले बालू में गड्ढा खोदते हैं और उसमें से निकलने वाले गंदे पानी को पीते हैं। घर के बच्चे भी छोटे-छोटे बर्तन लेकर 500-600 मीटर की दूरी तय करके पानी लेने जाते हैं।

बालू से पानी निकालती महिला।

महिलाओं से पीने के पानी के लिए होने वाले परेशानी के बारे में बात करने पर पता चला कि महान्गी सुरिया दोपहर को 40 डिग्री तापमान में बालू को खोदकर पानी निकालती हैं, जिससे उन्हें बहुत परेशानी होती है। वह कहती है कि “इस गंदे पानी को पीने के कारण लोगों की तबीयत खराब होती है। गांव के लोगों को हैजा, मलेरिया, दस्त, बुखार जैसी बीमारियां होती रहती है।” महान्गी इस गांव में आशा वर्कर के तौर पर काम करती हैं।

वह बताती है कि “कभी-कभी गांव में नर्स आती हैं। गांव के लोगों का चेकअप करती हैं और दवाई दे जाती हैं। दवाइयां मेरे पास रहती हैं, लोगों को कुछ परेशानी होती है तो मैं दे देती हूं।” महान्गी का मानना है कि “बच्चों और बाकी लोगों को यह सारी परेशानियां गंदे पानी के कारण होती हैं। बाकी हमारे पास इस पानी को पीने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।” वह सवाल पूछती हैं कि “कहां जाएं पानी के लिए? नदी में पानी नहीं है, हैंडपंप तो बेकार ही पड़े हैं।”

महिलाएं ही लाती हैं पानी

महान्गी के साथ गांव की अन्य महिलाएं भी पानी भरने आईं थीं। दिनभर में कितना पानी इस्तेमाल होता है पूछने पर सुमित्रा कहती हैं कि “हम लोग दिन भर में कम से कम पांच से छह बार पानी लेने जाते हैं। गर्मी के दिनों में पानी की जरूरत ज्यादा होती है और नदी में पानी कम हो जाता है।”

वो कहती हैं कि “स्थिति यह हो जाती है कि मजबूरी में पीने के लिए गंदे पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। गर्मी में पानी की खपत ज्यादा हो जाती है इसलिए पानी लेने बार-बार जाना पड़ता है। जब नदी बरसात में पूरी भर जाती है तब यहां से उस तरफ जाने के लिए भी रास्ता नहीं होता। हम लोग डोंगी के सहारे दूसरी तरफ जाते हैं। यहां तक की प्रेग्नेंट महिलाएं और स्कूल के बच्चों के लिए यह जी का जंजाल बना रहता है।”

महान्गी और सुमित्रा

मैंने सुमित्रा से पूछा कि आप पंचायत के चुनाव में जब वोट डालती हैं तो अपने प्रत्याशी से पानी की समस्या के बारे में नहीं कहतीं क्या? इसका जवाब देते हुए वह कहती हैं, “वोट के वक्त कहते हैं कि पानी की सारी समस्या दूर हो जाएगी। यहां तक की हमारे गांव के लिए जो सुविधाएं हैं उसे दूसरे गांवों को दे दिया जाता है। हम लोग तो सिर्फ वोट देने के लिए ही रह गए हैं”। वह बताती हैं कि “इस समस्या के लिए हमने कलेक्टर तक को पत्र लिखा है। लेकिन हमें इसका कोई जवाब नहीं मिला है।

कोंडागांव जिले में नारंगी नदी के बाद दूसरी बड़ी नदी भंवरडीह है। जो जिले के कई गांवों से होकर गुजरती है। इसमें ज्यादातर गांव सुदूर इलाकों में पहाड़ियों में बसे हुए हैं। मंडा गांव का पटेलपारा भी पहाड़ी की छोर पर बसा हुआ है। जिसमें लगभग 50 घर है। जिनके लिए एक चापानल (हैंडपंप) की सुविधा है। जो गांव वालों के पानी की प्यास बुझाने के लिए सक्षम नहीं है और नदी धीरे-धीरे जलवायु परिवर्तन की भेंट चढ़ रही है। स्थानीय महिलाओं के अनुसार यह नदी कहीं-कहीं इतनी गहरी है कि उसमें मगरमच्छ रहते हैं तो कहीं-कहीं रेत से पटी पड़ी है।

बुजुर्ग महिलाएं पानी लाते वक्त गिर भी जाती हैं

जयमती इस गांव की एक बुर्जुग महिला हैं जो आज के दौर में भी साड़ी के साथ ब्लाउज नहीं पहनती हैं। इनकी उम्र 60 साल से अधिक है। जयमती ने इस गांव में पानी के संघर्ष का एक लंबा दौर देखा है। किसी समय यहां पानी हुआ करता था और अब पानी नहीं रहता है। पानी की खपत इतनी ज्यादा है कि वह परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खुद पानी लेने जाती हैं।

वह हलबी भाषा में बताती हैं कि “पानी के लिए इतनी परेशानी है कि मेरी जैसी डोगरी (बुजुर्ग) महिलाएं दो-तीन तसले लेकर पानी लेने जाती हैं।” वह बताती हैं कि “मेरी जैसी बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति ऐसी है कि वह पानी लाने और ले जाने के क्रम में कई बार गिर भी जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में हम लोग फिर से उठते हैं और गंदा पानी लेकर जाते हैं। इसी गंदे पानी को हम लोग पीते हैं। बदबू के साथ पानी पीने में मिट्टी का भी स्वाद आ जाता है।

जयमती

जुनकी गर्मी में अपनी एक छोटी बच्ची के साथ पानी लेने जाती हैं। उसकी एक छोटी सी बच्ची तपती गर्मी में बिना टी-शर्ट के मां के साथ जाती है। जुनकी कहती हैं कि “बहुत गर्मी है, पानी की खपत ज्यादा है, महिलाएं ही पानी लेने ज्यादा जाती हैं। इससे हम लोग थक जाते हैं। इसलिए मेरी जैसी अन्य महिलाएं भी मदद के लिए बच्चों को साथ ले जाती हैं।” जुनकी के पति कृषक है। उसके घर में कुल 11 लोग रहते हैं। जिसमें बच्चे और सास-ससुर और अन्य लोग शामिल हैं।

जुनकी का कहना है कि परिवार में ज्यादा लोग हैं। सास-ससुर बुजुर्ग हैं, वह पानी नहीं भर सकते हैं। इन सबके लिए उन्हें ही पानी भरना और लाना पड़ता है। वह इतना पानी नहीं भर पाती हैं इसलिए बच्चों को भी साथ लेकर जाती हैं।

लगातार बढ़ती गर्मी के बीच पानी की उपयोगिता भी ज्यादा बढ़ जाती है। इस गांव में ज्यादातर परिवार किसान हैं। इनकी आय का स्रोत भी खेती बाड़ी और पशु पालन है। पूरे पटेलपारा में एक ही चापाकल है। बाकी किसी भी तरह की सरकारी जल की सुविधा नहीं है। जिसका सीधा असर ग्रामीणों की कमाई पर भी पड़ रहा है।

पहले नदी में रहता था पानी

मैंने पानी की इस समस्या और नदी के प्रवाह के बारे में मंडागांव के सरपंच रति नेताम से बातचीत की। उन्होंने बताया कि मंडा गांव का एक हिस्सा तो मुख्य मार्ग से जुड़ा हुआ है। लेकिन नदी के कारण पटेलपारा इससे कटा हुआ है। वह कहते हैं कि गांव में एक ही चापाकल है। जिसे बड़ी जद्दोजहद के बाद साल 2021 में ग्रामीणों की मदद से लगाया गया है। लेकिन जलस्तर नीचे होने के कारण गर्मी के दिनों में उसमें भी पानी नहीं आता है। मेहनत के बाद भी चापाकल सफल नहीं है। स्थिति यह हो जाती है कि लोग लंबे समय तक उसे चलाते रहते हैं फिर भी पानी नहीं आता है।

भंवरडीह नदी का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, “नदी पिछले कुछ सालों से गर्मी में पूरी तरह सूख जा रही है। जबकि पहले इसमें अत्यधिक गर्मी पड़ने पर ही पानी कम होता था लेकिन धारा बहती रहती थी। जिससे लोगों को पानी के लिए परेशानी नहीं होती थी।” हाल के समय का जिक्र करते हुए वह बताते हैं कि “नदी में कई जगहों से बालू भी निकाला गया है, जिसके कारण भी नदी में पानी नहीं रहा।

नदी से पानी लेकर जाती बच्ची

ग्रामीणों को हो रही पानी की समस्या पर सरकारी विभाग की कोशिशों के बारे में पूछने पर जवाब देते हुए वह कहते हैं कि “मैंने इस समस्या से निजात पाने के लिए जिला प्रशासन से पटेलपारा में स्टॉप डैम बनाने की मांग की है। जिससे नदी में पानी भी बचाया जा सके और लोगों को नदी को पार करने में कोई परेशानी न हो।”

रति नेताम का कहना है कि “अगर यह स्टॉप डैम बन जाएगा तो ग्रामीणों को कृषि के लिए ज्यादा परेशानी नहीं होगी। सिंचाई के लिए पानी आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। इसके साथ ही जानवरों के लिए पानी की दिक्कत नहीं होगी। फिलहाल पहाड़ी पर रह रहे जानवरों को पानी के लिए लंबा सफर तय करना पड़ता है।”

जलवायु परिवर्तन का असर

नदी में पानी कम होने और ग्रामीणों को गंदा पानी पीने के लिए मजबूर होने के पीछे का एक मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन भी है। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग पूरी तरह से खनिज सम्पदा से भरपूर और पहाड़ियों, जंगलों से घिरा हुआ है। ऐसे में पानी के लिए दिक्कत होना एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।

मैंने इस बारे में रांची यूनिवर्सिटी में जियोलॉजी के प्रोफेसर और पर्यावरणविद डॉ नितीश प्रियदर्शी से बात की। वह नदी में पानी की कमी के बारे में कहते हैं कि “जलवायु परिवर्तन का असर तो हर चीज पर पड़ रहा है। इससे हमारे नदी-नाले भी अछूते नहीं हैं। भंवरडीह पर भी इसका असर पड़ा है। चूंकि ये नदी जंगल के रास्ते से होकर गुजर रही है तो कहीं न कहीं इसके रास्ते में पड़ने वाले जंगल को काटा गया है। जिसका असर अब नदी पर पड़ रहा है।”

वह कहते हैं कि “पठारी भाग में बहने वाली नदियों के पानी का श्रोत जमीन के नीचे (भूजल) से है। इसलिए जब बारिश नहीं होगी तो पानी की कमी होगी। जंगल पानी को बचाने का एक बड़ा श्रोत होता है। लेकिन जंगल को काटा जाएगा तो पानी स्टोर नहीं हो पाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश भी बेमौसम हो रही है। तेज बारिश से पानी नीचे जाने के बजाय ऊपर ही बह जाता है। जबकि पहले बरसात के सीजन में बारिश धीरे-धीरे दो-तीन दिन तक होती थी। जिससे पानी मिट्टी में चला जाता था और स्टोर होता था।

सूखी नदी से पानी लेकर जाती महिलाएं

यहां तक कि बस्तर में घना जंगल होने के कारण दिन में जितनी भी गर्मी हो शाम को बारिश हो जाती थी। कारण जंगल में मिट्टी, पत्ते, हवा के वाष्पीकरण के कारण लोकल बादल बन जाते थे। जिसके कारण दिन में गर्मी रहने के बाद भी शाम को बारिश हो जाती थी। जिससे यहां की छोटी नदियों में पानी रहता था। अब लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण नदियां भी अपना अस्तित्व खो रही हैं।”

स्वच्छ पेयजल को लेकर सरकारी योजनाएं

15 अगस्त 2019 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “जल जीवन मिशन” की घोषणा की थी। जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्र में साल 2024 तक साफ और सुरक्षित पीने वाले पानी को पहुंचाने की बात थी। जिसके अंतर्गत सभी घरों में नल का कनेक्शन दिया जाना था। जल जीवन मिशन की आधिकारिक वेबसाइट में दी गई जानकारी के अनुसार इस योजना के तहत तीन जनवरी 2023 तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों में 36.13% घरों में नल से पानी की सप्लाई हुई है।

अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। उससे पहले शायद इन आदिवासी महिलाओं तक स्वच्छ पेय जल की सुविधा पहुंचेगी कि नहीं ये बड़ा सवाल है।

ऐसा पहली बार नहीं ही जब ग्रामीणों को स्वच्छ पानी देने का ऐलान किया गया। देश आजाद होने के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में पानी को पहली प्राथमिकता में रखा गया था, जिसमें सभी नागरिकों को साफ पीने के पानी का अधिकार की बात की गई थी। जिसके तहत राज्यों को कहा गया था कि ग्रामीणों को साफ पानी देने के लिए वो टंकियों का निर्माण कराएं।

पानी लेने जाती महिलाएं

इसके बाद साल 1969 में “राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल’ कार्यक्रम को लॉन्च किया गया। जिसका मुख्य उद्देश्य देश की ग्रामीण आबादी को पर्याप्त और सुरक्षित पेयजल मुहैया कराना था। इस कार्यक्रम में आने वाले खर्च को केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने 50-50 के अनुपात में साझा करने का निर्णय लिया गया था। इस कार्यक्रम में यूनिसेफ की तकनीकी मदद से पूरे देश में 1.2 मिलियन बोरवेल और 17,000 पाइपलाइन को पास किया गया।

बाद में साल 1972-73 में “त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम” को लॉन्च किया गया। साल 1986 “राष्ट्रीय जल जीवन मिशन” आया, 1991 में इसका नाम बदल कर “राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन” रखा गया। साथ ही पेयजल और स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत पेयजल आपूर्ति विभाग का गठन किया गया।

पिछले 75 सालों में संविधान लागू होने के बाद से ही सरकार द्वारा स्वच्छ जल के लिए कई स्कीम लाई गईं। लेकिन एक भी छत्तीसगढ़ के इन आदिवासियों को साफ पानी नहीं दे पाईं।

(छत्तीसगढ़ के बस्तर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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