नैनीताल। जिम कार्बेट नेशनल पार्क की ओर जाने से पहले उत्तराखंड का जो शहर स्वागत करता है उसका नाम रामनगर है। यह शहर नेशनल पार्क की प्रतिष्ठा से पहले व्यापारिक पड़ावों के लिए ख्यात रहा है। पहाड़ों से किसान अपनी उपज नीचे मैदान में लाकर इसी शहर में सौदा किया करते थे। रामनगर के चौराहों के नाम जैसे बैल पड़ाव, पैठ पड़ाव से भी इस ऐतिहासिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
21वीं शताब्दी के पहले दशक में सड़कों के विकास के बाद से व्यापारिक जरूरतों के लिए पहाड़ी किसानों का नीचे मैदानों में आना तो अब नहीं होता, लेकिन जिम कार्बेट समेत टूरिज्म इकोनॉमी के बड़े हब के रूप में उत्तराखंड का रामनगर पूरे तौर पर विकसित हो चुका है।
गिनती के हजार-दो हजार सरकारी-गैरसरकारी नौकरियों को छोड़ दें तो करीब डेढ़ लाख आबादी वाला यह शहर पूर्ण रूप से अपनी आजीविका के लिए पर्यटन पर निर्भर है, लेकिन अब इस पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है। पहले पार्टियां चुनाव में लोगों को धर्म-संप्रदाय के आधार पर महीने-पंद्रह दिन के लिए बांटती थीं, मगर अब लोग परमानेंट बंट गए हैं, दुखद यह है कि लोग बंटवारे का मजा ले रहे हैं।’
उत्तराखंड के किसान नेता ललित उप्रेती यह बातें कहते हुए थपली बाबा की मजार और रिंगोड़ा मजार का जिक्र करते हैं, जिनको 7 जुलाई के भूमि पर अतिक्रमण (निषेध) अध्यादेश, 2023 के आने से पहले ही 12 मार्च को बुल्डोजर से राज्य सरकार ने ध्वस्त करा दिया था। तब 12 मार्च को उत्तराखंड में 26 मजारों को बुल्डोजर से ध्वस्त करने का मामला सामने आया था।
थपली बाबा की मजार के मौलवी असरफ अली अपने सारे कागजात दिखाते हैं, जिससे हमें बता सकें कि उनके द्वारा संचालित मजार पर हर 24 मई को उर्स (मेला) लगता था और स्थानीय पुलिस प्रशासन उसमें सहयोग करता था। असरफ अली के बेटे नवाब अली उस सूची को दिखाते हैं, जो 28 अप्रैल को पुलिस अधीक्षक की ओर से जारी हुई थी।
नवाब अली उस सूची में थपली बाबा की मजार की स्थापना वाला साक्ष्य दिखाते हैं, जिसमें प्रशासन खुद मान रहा है कि यह 1980 से पहले स्थापित है और उसको बने 60 साल हो चुके हैं। इन प्रमाणों को लेकर नवाब अली स्थानीय भाजपा विधायक मोहन सिंह बिष्ट के पास मदद मांगने जाते हैं, लेकिन विधायक दोटूक जवाब दे देते हैं कि इनमें से कोई प्रमाण यह साबित नहीं करता कि मजार 1980 से पहले की है।
नवाब अली के पिता और मजार के मौलवी असरफ अली इसे मूलत: एक तरह का धार्मिक हमला मानते हैं। वह कहते हैं, “अतिक्रमण के नाम पर पूरे उत्तराखंड में सिर्फ मुस्लिम धार्मिक स्थलों को तोड़ा गया है। बसावटें भी उन्हीं की तोड़ी गयी हैं। मंदिर केवल वहीं टूटे जहां मजारों या मस्जिदों की दीवारों से जुड़े थे या उनकी जद में थे। अगर ऐसा नहीं है तो यहीं कोसी के पेट में बसा गर्जिया देवी का मंदिर है, उसे क्यों नहीं तोड़ा, जबकि उसका भी नाम है। यहीं जिम कार्बेट के जंगल में रामनगर के कानिया में नैना देवी मंदिर, सांवल देव मंदिर है जिन्हें नोटिस के बावजूद नहीं तोड़ा गया।”
राज्य के वन विभाग द्वारा किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि वनों में अनाधिकृत मंदिरों की संख्या मस्जिदों-मजारों से कई गुना ज्यादा है। सर्वेक्षण में जंगल क्षेत्र में 300 अनधिकृत मंदिर और आश्रम व करीब 35 अवैध मजार और मस्जिदों की गिनती की गयी।
हल्द्वानी के सामाजिक कार्यकर्ता अखलाक अहमद कहते हैं, “इन आंकड़ों के आने के बाद से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सांप्रदायिक सोच और उजागर हो गयी, जिसमें उन्होंने सप्ताह दिन पहले ही कुमाऊं मंडल में एक कार्यक्रम में कहा था, ‘एक हजार से अधिक स्थानों पर अवैध मजारें हैं या ऐसी अन्य संरचनाएं हैं।”
नैनीताल हाईकोर्ट के वकील चंद्रशेखर करगेती मानते हैं, “धामी सरकार अगर धार्मिक आधार पर पूर्वाग्रहित एक्शन नहीं ले रही होती तो अब तक टनकपुर का प्रसिद्ध पूर्णागिरी मंदिर हो या गर्जिया, दोनों जमींदोज हो चुके होते।”
रामगढ़ के फॉरेस्ट राइट एक्टिविस्ट गोपाल लोधियाल वन क्षेत्रों से लगे मुस्लिम धार्मिक स्थलों को तोड़ने का एक नया सिरा पकड़कर सामने लाते हैं। वह बताते हैं, “सरकार मुस्लिम धार्मिक स्थल जंगलों में इसलिए तेजी से नष्ट कर रही है कि फॉरेस्ट राइट्स एक्ट में मजार, मस्जिद यह साबित कर सकते हैं कि इतने लंबे समय से यह लोग इन इलाकों में रह रहे हैं और वहां रहना उनका अधिकार है।”
वो कहते हैं कि “अचल पहचान चिन्हों के अलावा आखिर वनों में रह रहे मुस्लिम वन गुर्जरों के पास क्या प्रमाण हो सकता है? आधार, पहचान पत्र, बिजली बिल आदि 10-20 साल से पुराने किसी के पास नहीं मिलेंगे। ऐसे में सरकार के नए भूमि अतिक्रमण प्रावधानों के अनुसार उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर अपराधी घोषित कर दिया जायेगा।”
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के मुताबिक, “सरकारी और निजी भूमि पर कब्जा करने वालों को 10 साल की सजा देखने में सख्त और सही फैसला लगता है, लेकिन आने वाले दिनों में इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। इस फैसले से राज्य के लाखों दलितों, जनजातियों, किसान वर्ग के लोगों पर अवैध कब्जे की तलवार लटक गयी है। राज्य के हजारों नजूल भूमिधरों, खाम भूमि पर बसे लोगों के लिए आने वाले दिनों में दिक्कत होगी।” पूर्व मुख्यमंत्री के इन चिंताओं को वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी भी आधारहीन नहीं मानते।
अध्यादेश को पुष्कर सिंह धामी सरकार कानून न बना सके, इसकी गुजारिश करते हुए तरुण जोशी ने जो पत्र राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह को लिखा था, उसका हवाला देते हुए वो कहते हैं, “इस निर्णय को लेते वक्त राज्य के लाखों निवासियों जिनमें गोठ-खत्ते, वन गांव, गुर्जर बस्तियां, हरीनगर के नाम से दलित परिवारों को दी गई भूमि और जल तथा अन्य परियोजनाओं के कारण विस्थापित लोगों की स्थिति को ध्यान में नहीं रखा गया है।”
उन्होंने कहा कि “बंदोबस्ती और चकबंदी न होने से पर्वतीय क्षेत्र में लोगों ने अपनी सुविधानुसार भूमि की अदला-बदली भी व्यापक तौर पर की हुई है। इस अध्यादेश के कारण वनों में स्थित सभी संरचनायें मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों से लेकर खरक और जलस्रोत, रास्ते भी अतिक्रमण की श्रेणी में आ जाएंगे तथा इन सबके हितों पर इस अध्यादेश का व्यापक, विपरीत प्रभाव पड़ेगा और लाखों लोग अतिक्रमणकारी की श्रेणी में आ जाएंगे।”
भूमि पर अतिक्रमण (निषेध) अध्यादेश, 2023 में प्रावधान है कि उत्तराखंड में सरकारी, सार्वजनिक और निजी परिसंपत्तियों पर अनधिकृत कब्जा अथवा अतिक्रमण गैर जमानती और संज्ञेय अपराध माना जाएगा। अतिक्रमणकारी अथवा अवैध कब्जाधारक को दंड के रूप में अधिकतम 10 वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकेगी। कब्जा की गई भूमि का बाजार मूल्य वसूल किया जाएगा। अतिक्रमण के मामलों की सुनवाई के लिए स्पेशल कोर्ट का गठन होगा।
इसके अतिरिक्त अगर कोई भी अतिक्रमण के लिए किसी को “उकसायेगा”, उसको भी ऐसी ही सजा मिल सकती है। साथ ही यह भी कहा गया है कि यह अध्यादेश नए-पुराने सभी तरह के अतिक्रमण पर लागू होगा।
ऐसे में सवाल है कि अगर यह कानून सभी तरह के अतिक्रमण पर लागू होगा तो फिर केवल मुस्लिम का सवाल क्यों उठ रहा है? वन संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी जवाब में बताते हैं, “नैनीताल जिला हो या उधमसिंह नगर या फिर हरिद्वार, हर जगह नोटिस और बिना नोटिस जंगली क्षेत्रों से बेदखली सिर्फ मुस्लिम गुर्जरों की हो रही है। मैं इसके एक नहीं अनेक प्रमाण दे सकता हूं। इतना ही नहीं अधिकारी वन गुर्जरों को बुलाकर मीडिया के सामने ट्रायल कर रहे हैं और मनगढ़ंत खबरें बनवा रहे हैं।”
इस उदाहरण को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 10 अगस्त 2016 में तत्कालीन कांग्रेस की हरीश रावत सरकार ‘मलिन बस्ती एक्ट’ लेकर आई। एक्ट में राज्यभर की 582 बस्तियों को चिन्हित किया गया और सरकार ने तीन साल में इन बस्तियों के नियमितीकरण और पुनर्वास का प्रावधान किया। इसमें कुमाऊं मंडल के हल्द्वानी शहर का वनभूलपुरा इलाका भी शामिल था। वनभूलपुरा का जिक्र इसलिए कि इसे उजाड़ने का आदेश हाईकोर्ट एक्ट बनने से पहले दे चुका था, लेकिन एक्ट के बाद आदेश महत्वहीन हो गया और वनभूलपुरा नहीं उजड़ा।
मलिन बस्ती एक्ट में वनभूलपुरा के 4365 घरों में से करीब 3500 घर आते थे। 2017 में राज्य में कांग्रेस की हार के बाद भाजपा सत्ता में आती है और सुनवाइयों के सिलसिले की एक तारीख 20 दिसंबर 2022 को नैनीताल हाईकोर्ट का फैसला आता है कि वनभूलपुरा रेलवे की जमीन पर बना है, इसलिए एक सप्ताह के भीतर इसे अतिक्रमणमुक्त कराया जाए।
फैसले का स्वागत करते हुए भाजपा सरकार वनभूलपुरा को उजाड़ने की जानकारी देती है और बाशिंदों को नोटिस भेजा जाता है। हालांकि स्थानीय लोग सुप्रीम कोर्ट जाते हैं और अभी मामले पर स्थगन है। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या राज्य सरकार अतिक्रमण को लेकर एक जैसा रवैया रखती है या उसके आदेशों की मूल भावना में सांप्रदायिकता महत्वपूर्ण हो गयी है।
हल्द्वानी के पत्रकार सरताज आलम बताते हैं, “वर्ष 2021 में देहरादून की रिस्पना और बिंदाल नदी पर मलिन बस्ती द्वारा अतिक्रमण को लेकर एक जनहित याचिका दाखिल हुई। अदालत ने उजाड़ने का आदेश दे दिया, लेकिन अगले साल 2022 में चूंकि विधानसभा चुनाव था और वोटर हिंदू थे इसलिए राज्य सरकार ने मलिन बस्ती एक्ट जिसकी समयसीमा 2021 तक थी, उसको आगे बढ़ाने के लिए कैबिनेट बैठक कर तत्काल संशोधन किया और उसे 2024 तक एक्सटेंशन दे दिया।”
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ी बात यह है कि 2016 से अब तक उत्तराखंड में 582 में से एक भी बस्ती का पुनर्वास या नियमितीकरण नहीं हुआ है।
नैनीताल में पेशे से दुकानदार मोहम्मद नाजिम बताते हैं, “मुस्लिमों को लेकर राज्य सरकार का रवैया कानूनी और संवैधानिक नहीं बल्कि धार्मिक और सांप्रदायिक है। सरकार के नुमाईंदे खासकर अधिकारी और न्यायालयों में बैठे साहेबान हमारी जिरह पर उसी तरह जवाब देते हैं, जैसे कोई धार्मिक पूर्वाग्रही। तीन पीढ़ियों से नैनीताल के मेट्रोपोल में रह रहे सैकड़ों परिवारों के घर इसलिए बुल्डोजर से जमींदोज कर दिये जाते हैं कि उनमें से 90 फीसदी मुस्लिम आबादी थी। वहीं सूखा तालाब में, उसी तरह के अतिक्रमण पर कोई कार्यवाही नहीं होती, क्योंकि वहां की आबादी बहुतायत हिंदू है। उन्हें सरकार अपना किराएदार बना लेती है और हमें उजाड़ देती है।”
मेट्रोपाल में तीन पीढ़ियों से रह रहीं नफीसा बताती हैं, “हम अपनी पैदाईश से ही अमीर-गरीब में फर्क देखते आ रहे थे, उसी के मुताबिक जिंदगी को एडजस्ट कर लेते हैं, लेकिन धर्म के कारण भी एक दिन आप बेचारा, बेसहारा, जलालत और कमतर शहरी होने के शिकार बना दिए जाएंगे, यह अहसास हमें मुख्यमंत्री धामी साहब की सरकार ने करा दिया है।”
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के राज्य सचिव इंद्रेश मैखुरी सवाल उठाते हैं, “जो भाजपा, चुनावी लाभ के लिए एक पूरे समुदाय को, उसकी धार्मिक पहचान के कारण अतिक्रमणकारी सिद्ध करने पर उतारू है, स्वयं उसकी जमीन के मामले में क्या स्थिति है? क्या उनके अपने ज़मीनों के सौदे, नियम सम्मत और कानून के दायरे में हैं?
मैखुरी 13 जून 2023 को देहरादून के अपर जिलाधिकारी और ग्रामीण सीलिंग के नियत प्राधिकारी डॉ. शिव कुमार बरनवाल द्वारा भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान विधायक बिशन सिंह चुफाल को भेजे गये एक नोटिस को दिखाते हैं और सवाल करते हैं-
“देहरादून के रायपुर में जहां भाजपा के राज्य कार्यालय के लिए जमीन खरीदी गयी है, वह जमीन राज्य सरकार की संपत्ति नहीं है? अगर नहीं है तो बिशन सिंह चुफाल इस बात से इनकार करने के बजाय नोटिस के जवाब में 24 जून 2023 को पल्ला झाड़ते हुए क्यों नजर आते हैं और क्यों अपर जिलाधिकारी को सलाह देते हैं कि वर्तमान भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट से सवाल-जवाब किये जायें। चुफाल के जवाबी पत्र में चार बिंदुओं में सफाई दी गयी है, लेकिन कहीं नहीं कहा गया है कि प्रदेश भाजपा कार्यालय जिस जमीन पर बन रहा है वह सरकारी नहीं है। वहीं अपर जिलाधिकारी द्वारा भेजे गये नोटिस में स्पष्ट कहा गया है कि यह सरकारी भूमि है।”
वामपंथी नेता इंद्रेश मैखुरी अपना सवाल फिर एक बार दोहराते हैं, “जिस सत्ताधारी भाजपा पर कथित तौर पर सरकारी भूमि की अवैध रूप से खरीद का आरोप लग रहा है, वह दूसरे पर किस मुंह से कीचड़ उछालते हैं?”
भूमि पर अतिक्रमण (निषेध) अध्यादेश, 2023 के खिलाफ लगातार नैनीताल जिले के रामनगर में आंदोलनरत समाजवादी लोकमंच के मुनीष कुमार याद करते हुए बताते हैं, “अध्यादेश की खबर छपते ही पूरे राज्य में एक तरह की खलबली मच गयी। सबसे पहले टार्गेट मुस्लिमों को किया गया। इससे फायदा सरकार का हुआ और लोग संगठित होकर इसका विरोध नहीं कर सके। अब धीरे-धीरे पूरे प्रदेश में अतिक्रमण के नाम पर सभी को टार्गेट किया जा रहा है और सभी मुंह ताक रहे हैं, कहीं विरोध में कोई जोरदार स्वर नहीं उठ रहा है।”
उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी की राय में, “सरकारी और निजी भूमि पर कब्जा मुक्ति अभियान नेशनल और स्टेट हाइवे को बड़े लोगों के लिए खाली कराना है। अगर चिंता कब्जे की होती तो कोई बताए कि कौन से माफिया से कितने नाली जमीन धामी सरकार ने मुक्त कराई है। झुग्गियों में, वनों में रहने वालों को उजाड़कर प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा पुष्कर सिंह धामी का बड़ा ढकोसला है।”
गढ़वाल क्षेत्र के चर्चित पर्यावरण कार्यकर्ता और लेखक सुरेश भाई की मानें तो “सरकारें पहले सांप्रदायिक होने की आलोचनाओं से डरती थीं, अपने बचाव में तर्क रखती थीं लेकिन उत्तराखंड सरकार अपने सांप्रदायिक ‘दाग’ को इन्जॉय कर रही है। कई बार ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें चंबल के डाकू बन गयी हैं, जो खुद चाहती हैं कि उनकी हिंसात्मक गतिविधियों को प्रचार हो।”
सुरेश भाई कहते हैं कि “अगर पुष्कर सिंह धामी को चिंता होती तो वह सबसे पहले उत्तरकाशी से लेकर हरिद्वार तक गंगा के पेट में बसे मठों, धर्मशालाओं और आश्रमों पर कार्रवाई करते, जिससे गंगा और उसकी सहायक नदियां तिल-तिल कर मर रही हैं। लेकिन सच यह है कि आज तक कोई सरकार एक सर्वे भी नहीं कर पाई कि आखिर गंगा के पेट में कितने अवैध निर्माण हुए हैं, उनको हटाना तो बहुत दूर की कौड़ी है।”
(नैनीताल से स्वतंत्र पत्रकार अजय प्रकाश की रिपोर्ट।)
[इस लेख को लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच, जो भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन संचालन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है, की मदद से किया गया है।]