क्या उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था तमिलनाडु से आगे निकल गई है?

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कुछ महीने पहले सोशल मीडिया में (ख़ास कर लिंक्‍डइन और व्हाट्सऐप पर) एक इन्फोग्राफिक का बहुत शोर था, जिसमें उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को भारत की अर्थव्यवस्था के अनुपात में दिखाया गया था। अर्थव्यवस्थाओं की इस तुलना के लिए देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में उत्तर प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) को पेश किया गया था। इन्फोग्राफिक में इन्हीं जीएसडीपी का उपयोग करते हुए दिखाया गया था कि 9.2 प्रतिशत के साथ उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था ने तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ दिया था, जिसका जीएसडीपी 9.1 प्रतिशत था।

अलग-अलग रूपों में इस इन्फोग्राफिक में दिए आँकड़ों ने काफ़ी भावनाओं को जगाया और सियासी हलचलों को जन्म दिया (इनमें से अनेक आँकड़ों के स्रोत संदिग्ध थे, उनके उद्धरण अप्रमाणित थे, और राज्यों, केंद्र सरकार या रिज़र्व बैंक के आधिकारिक सरकारी आँकड़ों के आधार पर उन्हें आसानी से असंगत साबित करते हुए ख़ारिज किया गया)।

इस पूरे शोर-शराबे में जो एक बुनियादी तर्क या समझदारी की कमी थी, और विचित्रता का अत्यंत स्तर था, उसको देखते हुए मैं हैरान भी था और मुग्ध भी। लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा। इस मुद्दे पर राय देने के अपने दोस्तों के आग्रहों के बावजूद मैंने इन टिप्पणियों के निम्न स्तर पर उतरने से बचना ही बेहतर समझा।

लेकिन समय गुजरने के साथ और प्रचार मशीन के पस्त हो जाने के बाद (जो अब दूसरी फर्जी ख़बरों और गढ़े हुए आक्रोशों में व्यस्त हो गई है) मैंने महसूस किया कि इस विषय पर कुछेक बातें कहना अहम है। इस उम्मीद में कि इससे शायद जनता को पता लगेगा और भविष्य की बहसों की गुणवत्ता बेहतर होने में मदद मिलेगी।

सबसे पहले, क्या यह सच है कि उत्तर प्रदेश की जीएसडीपी तमिलनाडु से आगे निकल गई है?

भारत में आंकड़ों की व्यवस्था ऐसी है कि किसी वर्ष के समाप्त होने के बाद 12 से 18 महीने बीतने से पहले किसी भी साल की जीएसडीपी को सटीक रूप से बता माना मुश्किल है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों के लिए यह क़रीब छह महीना है (भारतीय मॉडल की विस्तार में एक व्याख्या नीचे दी गई है)। लेकिन आँकड़ों के उपलब्ध आधिकारिक स्रोतों से हम पाते हैं कि राजस्व वर्ष 2022-23 के लिए उत्तर प्रदेश का जीएसडीपी तमिलनाडु के जीएसडीपी से कम था।

रिज़र्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश का जीएसडीपी 22.57 लाख करोड़ रुपए था जबकि तमिलनाडु का जीएसडीपी 23.64 लाख करोड़। ऐसा अनुमान लगाया गया था कि मौजूदा राजस्व वर्ष 2023-24 में भी ऐसी ही स्थिति रहनी थी (उत्तर प्रदेश 24.39 लाख करोड़; तमिलनाडु 28.3 लाख करोड़ रुपए, स्रोत: 2023-24 के बजट में प्रस्तुत हरेक राज्य का मध्यावधि राजस्व नीति यानी एमटीएफपी)।

झूठी ख़बरों और कहानियों का मुक़ाबला करने के लिए हमने मौजूदा कीमतों का उपयोग किया है। लेकिन वृद्धि को मापने का एक सटीक पैमाना वृद्धि दरों को स्थिर कीमतों पर देखने का होता है। यानी इन क़ीमतों को मुद्रास्फीति के हिसाब से देखा जाता है तो पता यह चलता है कि स्थिर क़ीमतों पर जीएसडीपी के अनुसार भी उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन तमिलनाडु से पीछे बना हुआ है, जो शायद हैरानी की बात नहीं है (स्रोत: पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च)।

स्थिर क़ीमतों (2011-12) पर तमिनलाडु के जीएसडीपी में वृद्धि

स्थिर क़ीमतों (2011-12) पर उत्तर प्रदेश के जीएसडीपी में वृद्धि

गुणवत्ता, वैधता और सही समय: जीएसडीपी/जीडीपी के अनुमान/आँकड़े क्या सटीक होते हैं?

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, यह कुख्यात है कि हमारे देश में आँकड़ों की व्यवस्था और मॉडलों को देखते हुए जीएसडीपी और जीडीपी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किए गए उनमें से हरेक संख्या को कम से कम पाँच विभिन्न अनुमान लगाए जाते हैं। यह आरंभिक अनुमान (अग्रिम और अस्थायी अनुमान) से शुरू करती है, जिनको आगे चल कर संशोधित करते हुए पहले, दूसरे, तीसरे संशोधित अनुमानों के रूप में जारी किया जाता है।

जीडीपी आँकड़ों में संशोधन: शोर से ख़बर तक

अनुमानों की शृंखला की अवधि छह महीने पहले से शुरू होकर 18 महीने बात तक चलती है। ये आँकड़े बदलते रहते हैं, उनमें हमेशा इन पाँच अनुमानों के बीच में भारी उतार-चढ़ाव आते हैं। अस्थिरता में यह वृद्धि, प्रकाशन में भारी देरी, और विश्वसनीयता के नुकसान को इस सरकार द्वारा जितना संभव हो आँकड़े जमा किए जाने को दबाने या उससे बचने की प्रवृत्ति से जोड़ा जा सकता है। इससे प्रचार मशीनरी को तथ्यों या सच्चाई के आड़े आने के डर के बिना बेधड़क खुल कर खेलने में सक्षम हो जाती है। इस तरह यह अपनी पसंद की कहानी को सचमुच की बहसों को ख़त्म करने की छूट दे देती है।

हाल में छपे कुछ लेखों में यह संकेत तक दिए गए हैं कि इन आँकड़ों के साथ जान बूझ कर हेराफेरी की गई है ताकि ऐसी मनमानी के मुताबिक़ आँकड़े निकाले जा सकें, जो प्रचार में दिखता है। अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने हाल में आंकड़ों की कमजोरी की बात की है और जीडीपी निकालने की पद्धति के अवैध होने का दावा किया है। उन्होंने तर्क दिया है कि जीडीपी की गणना करने में सटीकता की कमी “पद्धति और आँकड़ों संबंधी कमज़ोरियों के चलते कमजोर पड़ गई” जो भाजपा की “अर्थव्यवस्था के भलीभाँति काम करने के राजनीतिक कहानी” के अनुकूल है।

एक और बुनियादी ख़ामी है: राज्यवार जीएसडीपी आम तौर पर जोड़े जाते हैं तो राष्ट्रीय जीडीपी का 105-108 प्रतिशत बनता है। मैंने केंद्रीय वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को कई बार इस ख़ामी की ओर ध्यान दिलाया है। इसी के साथ मैंने इस तरह के अंतर्निहित रूप से असंगत आँकड़ों के आधार पर उधार लेने की कठोर सीमाएँ तय करने के ख़िलाफ़ तर्क दिए हैं, विशेष कर इन मॉडलों की रोशनी में जिनकी ग़लतियों की वजह हमेशा ही राज्यों का वित्तीय लचीलापन कम हो जाता है (इसका मतलब यह है कि हर राज्य की उधार लेने की सीमा कटौती किए हुए जीएसडीपी के आधार पर तय होता है, न कि सीएसओ के अपने जीएसडीपी अनुमानों के आधार पर)।

हक़ीक़त में, हर साल राज्य के लिए उधार लेने की अधिकतम सीमा केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा तय की जाती है जो एफआरबीएम का 90 से 95 के बीच होती है और वित्त आयोग की उधार लेने की अधिकतम सीमा के बीच होती है जिसकी गणना हरेक राज्य के लिए केंद्र सरकार के अपने जीएसडीपी अनुमानों का उपयोग करते हुए की जाती है।

इन संख्याओं की अविश्वसनीयता इस तथ्य से और भी बढ़ जाती है कि 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है। इसलिए प्रति व्यक्ति अनुमानों की सटीकता अपने आप में ही दोषपूर्ण है। आंकड़ों के सकल संकलन में निहित दोषों के साथ जोड़ दें तो प्रति व्यक्ति संख्याओं में अब बड़े पैमाने के दोष हैं।

जीएसडीपी: उत्तर प्रदेश बनाम तमिलनाडु; और क्या यह तरक़्क़ी का एक अच्छा पैमाना है?

नीचे दिए गए ग्राफ़ में वास्तविक वृद्धि दर (सीएजीआर) वर्तमान क़ीमतों वाले डीएसडीपी पर आधारित है। इसमें पिछले 30 साल के आँकड़े पेश किए गए हैं जो दिखाते हैं कि उत्तर प्रदेश ने तमिलनाडु से बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है। बल्कि अधिकतर मामलों में यह राष्ट्रीय औसत के समान प्रदर्शन भी नहीं कर सका है।

दो दशक (2004-2005) पहले उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था तमिलनाडु से 19 प्रतिशत बड़ी थी और 2013-2014 तक यही स्थिति रही थी। “अच्छे दिन” निकलने के बाद से यह तमिलनाडु से पीछे रह गई है, और हाल में ही यह तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था का 95.48 प्रतिशत रह गई थी (2022-2023)।

उत्तर प्रदेश की जीएसडीपी तमिलनाडु के प्रतिशत के रूप में

स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक की हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन इंडियन स्टेट्स (2023 संस्करण)

तमिलनाडु की जीएसडीपी उत्तर प्रदेश के प्रतिशत के रूप में

स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक की हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन इंडियन स्टेट्स (2023 संस्करण)

प्रति व्यक्ति एनएसडीपी और आर्थिक तरक़्क़ी के दूसरे संकेतक

जीडीपी (राष्ट्रीय) या जीएसडीपी (राज्य) हालाँकि वृद्धि और विकास के तर्कसंगत मापक हैं, ये किसी क्षेत्र की आर्थिक प्रगति के भरोसेमंद संकेतक नहीं है। क्योंकि इनके हिसाब में आबादी का पैमाना शामिल नहीं होता है। इसलिए वे उत्पादकता या तरक़्क़ी के औसत स्तरों के बारे में कुछ भी नहीं बताते हैं। इस अर्थ में प्रति व्यक्ति उत्पादकता एक बेहतर आकलन है और यह एक अधिक सटीक माप है क्योंकि इसमें आबादी के आकार और संपदा के वितरण का हिसाब रखा जाता है। इस श्रेणी में उत्तर प्रदेश का औसत तमिलनाडु के औसत से दयनीय रूप से एक तिहाई भर है। 2004-2005 के 43।08 प्रतिशत से अब तक इसमें क़रीब क़रीब लगातार और स्थिर रफ़्तार से गिरावट आई है।

यह असमानता लगातार क़ायम रही है, जबकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं (तमिलनाडु) की तुलना में निम्न स्तर (उत्तर प्रदेश) की आर्थिक तरक़्क़ी में ऊँची वृद्धि की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। तमिलनाडु जैसे संपन्न राज्यों से उत्तर प्रदेश जैसे कम विकसित राज्यों को होने वाले कर राजस्व का लगातार कुल हस्तांतरण (इसके बारे में भावी विश्लेषणों में बहुत कहने की ज़रूरत है) के नतीजे में उत्तर प्रदेश में वृद्धि की रफ़्तार तेज होनी चाहिए थी, जो तमिलनाडु से भी ऊँचे स्तर की होती। लेकिन ऐसा नहीं है।

यहाँ तक कि प्रति व्यक्ति आमदनी भी समान आय स्तर वाले राज्यों के नागरिकों द्वारा वास्तविक जीवन अनुभव में ढेर सारे अंतरों को छुपाती है। गुजरात और तमिलनाडु में क़रीब-करीब समान प्रति व्यक्ति एनएसडीपी है (रिज़र्व बैंक के मुताबिक़ गुजरात 2,50,100 रुपए और तमिलनाडु 2,41,131 रुपए)। लेकिन मैंने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले लोगों के बीच में जीवन की वास्तविक गुणवत्ता में भारी अंतरों को उजागर करने वाले तीन फ़ौरी मानकों का अक्सर ही हवाला दिया है। वे हैं: स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच, शिक्षा तक पहुँच, और बहुआयामी निर्धनता सूचकांक (एमपीआई)।

भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले लोगों के बीच में जीवन की वास्तविक गुणवत्ता में अंतर

इसमें हैरानी की बात नहीं है कि अपनी तुलनात्मक निर्धनता की वजह से उत्तर प्रदेश के सभी सूचकांक बहुत ख़राब हैं। लेकिन कई लोगों को यह जान कर हैरानी हो सकती है कि गुजरात में रहने वाले लोगों की तुलना में तमिलनाडु में रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और आम तरक़्क़ी के मामलों में भारी बढ़त हासिल है। मिसाल के लिए बहुआयामी निर्धनता सूचकांक के आँकड़ों को लेते हैं। कई विशेषज्ञों ने नीति आयोग के इस दावे की आलोचना की है कि 24.8 करोड़ लोगों को ग़रीबी से निकाल लिया गया है।

इसे उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए गढ़ी गई कहानी बताया है। यहाँ तक कि इन संख्याओं में भी, तमिलनाडु के सिर्फ़ 2 प्रतिशत लोग ग़रीबी में रहते हैं, जबकि गुजरात में क़रीब 12 प्रतिशत लोग और उत्तर प्रदेश में क़रीब 23 प्रतिशत लोग ग़रीबी में जीते हैं। प्रति व्यक्ति आमदनी में क़रीब क़रीब बराबर होने के बावजूद तमिलनाडु के द्रविड़ मॉडल में जीने वाले लोग गुजरात के मॉडल के कथित चमत्कारों में रहने वालों से कहीं बेहतर जीवन जी रहे हैं।

शायद इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि अवैध प्रवासन के धंधों में गुजरात अक्सर ही सबसे आगे होता है। हाल में संयुक्त राज्य अमेरिका में ग़ैरक़ानूनी रूप से डंकी-रास्ते की योजना के साथ घुसने की कोशिश करने वाले 303 भारतीयों में 95 अकेले उत्तर गुजरात से थे। द हिंदू में महेश लांगा की विस्तृत रिपोर्ट ने इस बात पर रोशनी डाली है कि कैसे अवसरों की कमी और सरकारी नियुक्तियों में भ्रष्टाचार ने नौजवानों को इस दुःस्वप्न भरी यात्रा के लिए मजबूर किया। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि अवैध तरीक़े से दाखिल होने की कोशिश करने वालों में एक भी व्यक्ति तमिलनाडु से नहीं था।

अपेक्षित वृद्धि दरें

आधार जितना कम होता है, वृद्धि की संभावनाएँ उतनी अधिक होती हैं। इसका मतलब यह होता है कि कोई राज्य जितना गरीब होता है, उसमें उतनी तेज़ वृद्धि दर्ज की जा सकती है। केंद्र सरकार के कोष तक उसकी पहुँच भी अधिक होती है। इसी तर्क के आधार पर भारत के वित्त आयोगों ने लगातार संपन्न राज्यों से गरीब राज्यों को धन का हस्तांतरण स्थापित किया है। ऐसे खर्चे का वांछित नतीजा यह सुनिश्चित करना होता है कि बड़ी आबादी और कम आय वाले राज्य, कम आबादियों वाले धनी राज्यों की तुलना में अधिक वृद्धि करेंगे। और ज़ाहिर तौर पर मानवीय नागरिकों के रूप में, एक निःस्वार्थ नज़रिए से हम यही चाहते हैं। इसकी जड़ें सामाजिक न्याय की द्रविड़ विचारधारा में हैं कि हमें गैरबराबरी को कम करना ही होगा और न्यायोचित समानता की दिशा में बढ़ना होगा।

और राष्ट्र की एकता के हित में हम पूरे दिल से इसमें यक़ीन करते हैं कि किसी को भी पीछे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी वजह से हम इस पर कोई शिकायत नहीं करते हैं या हमें कोई ईर्ष्या नहीं होती है जब तमिलनाडु केंद्र को जितना योगदान देता है, उसमें हर रुपए पर सिर्फ़ 29 पैसे ही उसे मिलते हैं, और उत्तर प्रदेश अपने योगदान के हरेक रुपए पर 2.73 रुपए प्राप्त करता है। हमें सिर्फ़ इस बात पर अफ़सोस होता है कि ऐसी दानशीलता का परिणाम तेज़ वृद्धि या न्यायोचित प्रगति में नहीं होता है।

नीचे दी गई तालिका में जैसा कि हम देख सकते हैं पिछले चार वित्त आयोगों (20 वर्षों) के दौरान तमिलनाडु ने केंद्रीय कोष के अपने आवंटन का 21 प्रतिशत खोया है, जबकि उत्तर प्रदेश ने सिर्फ़ 7 प्रतिशत खोया है।

वित्त आयोग (एफसी) में राज्यों के बीच का हिस्सा

जब उत्तर प्रदेश का जीएसडीपी तमिलनाडु से अधिक हो जाए या तमिलनाडु से दो गुना हो जाए, तभी हम निश्चिंत होकर यह कह सकते हैं कि कम एक क़िस्म की न्यायोचित समानता तक पहुँचने की शुरुआत हुई है। सच्चाई यह है कि इसका उल्टा हो रहा है, जिसमें पिछले दो दशकों में तमिलनाडु की तुलना में उत्तर प्रदेश की वृद्धि धीमी है, इसके बावजूद कि तमिलनाडु से उत्तर प्रदेश को भारी कोष का हस्तांतरण हुआ है (ऐसा एक के बाद एक वित्त आयोगों की बढ़ती हुई मात्रा में विकृत आवंटनों, और साथ ही प्वाइंट-ऑफ-प्रोडक्शन वैध और एक्साइज़ की तुलना में जीएसटी प्वाइंट-ऑफ-सेल जीएसटी को अपनाने के ज़रिए किया गया है)। यह कई नज़रियों से एक चिंताजनक रुझान है। अगर इस समस्या का हल करने का उपाय नहीं खोजा गया तो यह देश के भविष्य के लिए अशुभ संकेत हैं।

मेरी राय में जो अकेला सुधार बेहतर नतीजे ला सकता है, वो यह है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक से अधिक समावेश और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित बनाया जाए। जैसा कि तमिलनाडु जैसे राज्यों के मामले में हुआ है – शिक्षा से लेकर रोज़गार में भागीदारी और उद्यमिता तक। इनके लाभों के पूरी तरह सामने आने में पीढ़ियाँ लगेंगीं। लेकिन इनसे एक दूरगामी सुधार जन्म लेगा। जब तक यह कदम नहीं उठाया जाता है, दूसरे सभी कदम नाकाम होने के लिए अभिशप्त हैं।

ऊपर दिए गए सभी आँकड़े उन लोगों के खोखलेपन को उजागर करते हैं, जो उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के बीच में आर्थिक रैंकिंग में कथित बदलाव का राजनीतिकरण कर रहे हैं। वे यह दिखाते हैं कि इस मुद्दे पर होने वाले सार्वजनिक बहस में बुनियादी तथ्य पूरी तरह नदारद थे।

जैसा कि मैंने कहा, बरसों तक और शायद दशकों तक उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था तमिलनाडु से सचमुच में बड़ी थी (मौजूदा आर।बी।आई आँकड़ों की शृंखला 2004-05 में ही शुरू हुई थी)। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि उत्तर प्रदेश की आबादी तमिलनाडु की तुलना में अब लगभग तीन गुनी है, न सिर्फ़ इसकी अपेक्षा की जा सकती है बल्कि सबकी इच्छा भी यही होनी चाहिए। इसलिए, प्रति व्यक्ति (आबादी के हिसाब से संयोजित) आधार में तुलनात्मक असमानता और भी हैरान करती है।

“अमृत काल” के कथित दौर में ही ऐसा हुआ, जब कथित रूप से भारत का पुनर्जन्म हुआ है मानो अतीत की सारी यादें मिट गई हैं, कि उत्तर प्रदेश की जीएसडीपी फिर से “संभावित रूप से” तमिलनाडु से बड़े होने को चमत्कारिक माना जा रहा है। इसे उत्तर प्रदेश के महान शासन का संकेत या तमिलनाडु के शासन की नाकामी के रूप में देखा जा रहा है। या शायद दोनों एक साथ।

कम संपन्न (राज्य) अगर पीछे छूटने लगें तो यह किसी भी सभ्य समाज के हित में नहीं होता है, जैसा कि मैंने केंद्रीय वित्त आयोगों के इतिहास पर चर्चा में कई बार ध्यान दिलाया है। मेरा मानना है कि ये आयोग संपन्न राज्यों से कम संपन्न राज्यों को बढ़ती हुई मात्रा में धन का हस्तांतरण करने के बावजूद न्यायपूर्ण समानता लाने में नाकाम रहे हैं। 

वित्त वर्ष 2024-24 के लिए अंतरिम केंद्रीय बजट में भी हम देखते हैं कि केंद्रीय करों में पूरे दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए कुल प्राप्ति सिर्फ़ क़रीब 1,92,722 करोड़ है, जबकि अकेले उत्तर प्रदेश के लिए यह 2,18,816 करोड़ रुपए है। इसका मतलब है कि अकेले उत्तर प्रदेश को जितना आवंटन किया गया है, उसका सिर्फ़ 88 प्रतिशत दक्षिण भारत के कुल पाँच राज्यों को मिला कर किया गया है। मैं इस पक्षपातपूर्ण आवंटन की निष्पक्षता का मूल्यांकन करने का काम पाठकों के ऊपर छोड़ता हूँ।

क्या हाल में उत्तर प्रदेश का प्रशासन उल्लेखनीय रूप से बेहतर रहा है?

थोड़े में, विनम्र जवाब होगा: नहीं। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि कैग रिपोर्ट ने इसे रेखांकित किया है कि हाल के वर्षों में वित्त और बजट को लेकर सरकार का प्रबंधन औसत से कम रहा है। महालेखाकार ने ध्यान दिलाया है कि 2016-17 और 2020-21 के बीच खर्चे कर पाने की नाकामी का एक पैटर्न रहा है, जिसमें 2019-20 में कुल बजट प्रावधान का 20 प्रतिशत खर्च नहीं किया जा सका था। न सिर्फ़ आवंटित रक़म खर्च नहीं की गई, उत्तर प्रदेश सरकार ने कल्याणकारी परियोजनाओं और एससी/एसी के लिए जिस राशि को खर्च करने का दावा किया था, उसके लिए उपयोगिता प्रमाणपत्रों को देने की ज़हमत भी नहीं उठाई जो क़रीब 6,000 करोड़ रुपए थी।

हालाँकि यह हमारी थीसिस का मुख्य बिंदु नहीं है, और न ही हम दूसरे राज्यों के प्रदर्शन पर टिप्पणी करने के धंधे में हैं, हम सिर्फ़ यह कहना चाहते हैं कि प्रचार मशीनरी जिस तरह हमें यक़ीन दिलाना चाहती है कि उत्तर प्रदेश का जितना अच्छा संचालन हो रहा है, उतना अच्छा नहीं हो रहा है। क्योंकि कैग के आँकड़े सीधे-सीधे प्रशासन की इस श्रेष्ठता का खंडन करते हैं।

जीवन की वास्तविक गुणवत्ता में तमिलनाडु को पीछे छोड़ने की उत्तर प्रदेश कब छोड़ सकता है?

उत्तर प्रदेश की आबादी लगभग 24 करोड़ जो तमिलनाडु से तीन गुना से अधिक है। ऐसे में अगर अर्थव्यवस्था दोगुनी भी हो जाए तब भी यह तमिलनाडु से प्रतिव्यक्ति आधार पर गरीब ही रहेगा। मौजूदा समय में तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति एनएसडीपी उत्तर प्रदेश का 320 प्रतिशत है। एक वैचारिक प्रयोग के तौर पर, मैंने उत्तर प्रदेश का एनएसडीपी (पिछले पाँच वर्षों में इसका सीएजीआर 7।6 है), पिछले पाँच वर्षों में तमिलनाडु के 9.47 सीएजीआर से 2 प्रतिशत तेज़ी से वृद्धि कर रही है।

यह अत्यंत असंभावित है क्योंकि उत्तर प्रदेश की आबादी अभी भी बढ़ रही है जबकि तमिलनाडु की घट रही है, प्रति व्यक्ति 2 प्रतिशत अधिक वृद्धि की संभावना व्यावहारिक रूप से असंभव है। इसका सीधा मतलब होगा किस 3-4 प्रतिशत अधिक सकल वृद्धि। लेकिन तर्क के लिए, आइए मान लेते हैं कि यह कल्पनात्मक दृश्य हक़ीक़त बन जाता है। फिर क्या होगा?

तब…20 वर्षों में, तमिलनाडु का प्रति व्यक्ति एनएसडीपी उत्तर प्रदेश से दोगुना ही रहेगा। एक तेज़ी से बढ़ने वाली वृद्धि दर के साथ, जो हर साल तमिलनाडु से 2 प्रतिशत अधिक हो, उत्तर प्रदेश के लिए तमिलवनाडु की प्रति व्यक्ति एनएसडीपी के बराबर आने में 64 साल लगेंगे।

लेकिन एक अच्छी कहानी के रास्ते में ऐसी हक़ीक़त को बाधा क्यों बनने दें? झूठ बुनने का कारख़ाना बड़ी मेहनत से लगा हुआ है कि उत्तर प्रदेश को एक कामयाबी की कहानी के रूप में दिखाए, जो “गुजरात मॉडल” के बड़े-बड़े लेकिन खोखले दावों की तरह।

शायद हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि प्रचार मशीनरी तथ्यों, दलील, तर्क, या मानवता तक से मुक्त है। यह मशीन भारत के विशाल आकार को देखते हुए शायद मानवता के इतिहास में सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक और हैरान कर देने वाली मशीन है। यह तथ्यों और समझ पर आधारित बहसों और चिंतन पर आधारित इंसानी विमर्शों की जगहें ख़त्म कर देती है, जो एक जीवंत लोकतंत्र के लिए इतनी बुनियादी चीज़ है। और जो तेज़ और अधिक न्यायोचित रूप से भागीदारी परक वृद्धि ले आने के लिए एक समझ पर आधारित नीति का आधार है। यह एक अभिशाप ही है कि प्रचार मशीन ने सार्वजनिक विमर्श में से हरेक बौद्धिक तत्व को निकाल बाहर किया है और पूरे माहौल को एक सनक से भरी, खोखली, मूर्खतापूर्ण शोर के जाप से भर कर इसे धुंधला कर दिया है।

(पलनिवेल तियागा राजन तमिलनाडु के सूचना प्रौद्योगिकी और डिजिटल सेवा मंत्री हैं। उनका ये लेख फ्रंटलाइन में प्रकाशित हुआ था जहां से साभार लेकर उसका अनुवाद किया गया है।)

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Akmal Khan
Akmal Khan
Guest
13 days ago

Good analysis 👍👍

Hari Kishan Sharma
Hari Kishan Sharma
Guest
13 days ago

चिंता मत करो ऐसे ही फर्जी डाटा गेम खेलते खेलते केरल की औकात बाहर आ गई,