कुपोषण भारत में क्यों फैल रहा है महामारी की तरह ?

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भारत में आज कुपोषण एक महामारी की तरह फैल रहा है। हमारे देश में इसका कारण आर्थिक होने के साथ-साथ सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक भी है। कुपोषण का मतलब है ग़लत तरीक़े से शरीर का पोषण यानी सही ख़ुराक शरीर को ना मिलना। यह दो प्रकार का हो सकता है- अपर्याप्त ख़ुराक के कारण और बहुत ज़्यादा ख़ुराक के कारण। एक तरफ़ अमीरों का वो हिस्सा हैजो करता कुछ नहीं है और ज़रूरत से ज़्यादा खाकर फूलता जा रहा है,लेकिन पचा नहीं पाता औरइस तरीक़े से “कुपोषित” है, वहीं दूसरी तरफ़ ख़ुराक की कमी के कारण हो रहा कुपोषण ज़्यादातर आबादी के शारीरिक-बौद्धिक विकास में बाधा बना हुआ है, उनकी ज़िंदगियां ख़त्म कर रहा है।

जब हम कुपोषण की समस्या के बारे में चिंतित होते हैं, तो हमारा सरोकार लाज़िमी ही ग़रीबी से पीड़ित, ख़ुराक की कमी की शिकार विशाल आबादी से होता है। कुपोषण के बारे में बात करते समय एक बात का विशेष ध्यान रखने की ज़रूरत है कि इसे आमतौर पर केवल शरीर विज्ञान के साथ जोड़ते हुए ख़ुराकी फेरबदल तक सीमित कर दिया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि पर्याप्त ख़ुराक की कमी व्यक्ति में कुपोषण का कारण बनती है,लेकिन इसे सिर्फ़ यहाँ तक सीमित नहीं किया जा सकता। इसकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जड़ें इतनी विशाल हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

भारत में करोड़ों लोग विशेषकर बच्चे और महिलाएं कुपोषण के शिकार हैं। भारत की ज़्यादातर आबादी को अपने स्वास्थ्य के विकास के लिए ज़रूरी बुनियादी पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए भोजन भी नहीं मिलता है। पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, 22 राज्यों में से 12 राज्यों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में वेसटिंग (मांसपेशियों की सिकुड़ने से धीरे-धीरे वज़न घटना) में वृद्धि हुई है। 13 राज्यों में बच्चों में स्टंटिंग (उम्र के अनुसार क़द कम होना) में वृद्धि हुई है।

चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-2016) की तुलना में 16 राज्यों में कम वज़न वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है। पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े 2019 में जुटाए किए गए थे, इसलिए कोरोना लॉकडाउन से स्थिति और भी खराब हुई होगी। कहने को तो भारत बच्चों के समग्र विकास के लिए ‘एकीकृत बाल विकास सेवाओं’ के तहत दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम चलाता है, जो 1975 से लागू है। लेकिन हक़ीकत यह है कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 68% मौतें माताओं और बच्चों के खराब पोषण के कारण होती हैं।

इसका मतलब यह है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौतों में आधी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। भारत की लगभग 36% महिलाओं का वज़न कम है, और 56% महिलाएँ एवं 15-19 वर्ष की उम्र की 56% लड़कियां आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया से पीड़ित हैं। गुजरात में पाँच वर्ष से कम उम्र के 9.7% से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनका वज़न उनकी उम्र के मुताबिक़ लाज़िमी तौर पर ज़रूरी वज़न से कम है। इसके अलावा बड़े राज्यों में गुजरात स्टंटिंग (उम्र की तुलना में छोटा क़द) में चौथे और वेस्टिंग (माँसपेशियों के सिकुड़ने के कारण धीरे-धीरे वज़न घटने) में दूसरे स्थान पर है।

असम, दादरा और नगर हवेली, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बच्चों में कुपोषण (स्टंटिंग) देश में कुल 35.5% की औसत दर से अधिक है। 2015-16 से 2020-21 के दौरान गंभीर कुपोषण के मामलों में शहरी आबादी वाले बड़े चार मुख्य ज़ि‍लों- अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट में क़बाइली ज़िलों की तुलना में तेज़ी से वृद्धि हुई है। पांच वर्षों में पूरे गुजरात में बच्चों में एनीमिया (ख़ून की कमी) के मामलों में 17 फ़ीसदी वृद्धि हुई है और नौजवान लड़कियों में एनीमिया के मामलों में 12 फ़ीसदी वृद्धि हुई है।

गुजरात, जिसे संघ परिवार अपना आर्थिक मॉडल बताता नहीं थकता, वहां पांचवें राष्ट्रीय सर्वेक्षण में जारी किए गए ये आंकड़े मोदी सरकार के पोषण अभियान, मातृत्व सहयोग योजना, एकीकृत बाल विकास सेवाएं, मिड-डे मील योजना, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, राष्ट्रीय पोषण मिशन, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन और राष्ट्रीय पोषण नीति जैसी योजनाओं का मज़ाक उड़ाते नज़र आते हैं।

अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक 2020 के मुताबिक़, भारत का 107 देशों में 94वें स्थान पर आना इस देश में भुखमरी और कुपोषण की भयावहता को दर्शाता है। यूनिसेफ़ (बच्चों के लिए कोष का अंतरराष्ट्रीय संस्थान) के अनुसार, भारत में कुपोषण के कारण 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 37% बच्चों का क़द उम्र के अनुसार ज़रूरत से कम है, और 20% बच्चों का वज़न ज़रूरत से कम है। ये कोई छोटे आंकड़े नहीं हैं। बच्चों की यह हालत भारत की इस पूंजीवादी व्यवस्था की हक़ीक़त बताने के लिए काफ़ी है। केवल मोदी और उसकी भक्तमंडली ही भारत में हो रहे ऐसे “विकास” का जश्न मना सकते हैं। हर संवेदनशील और विचारशील व्यक्ति का सरोकार इन स्थितियों को बदलने का होना चाहिए, और साथ ही इसके असल कारणों को भी समझने का होना चाहिए।

लगातार बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी इसके मुख्य कारणों में एक है। बेरोज़गारी पूंजीवादी व्यवस्था के वजूद से जुड़ा लक्षण है। बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी समाज के एक बड़े हिस्से को ऐसे नारकीय जीवन में धकेल देती है, जहाँ पौष्टिक भोजन की तो दूर की बात एक या दो वक़्त का भोजन नसीब होना भी बड़ी बात है। दो वक़्त की रोटी के लिए दिन-रात कारख़ानों-खेतों में खटने वाली इस बड़ी आबादी को अब पौष्टिक फल-सब्जि़यां खाने की सलाह कौन देगा! हां, कुपोषण पर बहस जितनी चाहे करवा लो, टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया, पॉडकास्ट आदि पर कतारें लग जाएंगी इस मुद्दे को भुनाने और अपनी “रीच” बढ़ाने के लिए।

हमारे लोग तो दोहरी मार झेल रहे हैं। सांस्कृतिक पिछड़ापन के वे अलग से शिकार हैं। अब राजस्थान का ही उदाहरण लें। राजस्थान में कुछ महिलाएं गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक भोजन जैसे केले, मूंगफली और दही से परहेज करती हैं। लोगों में यह भी धारणा है कि गर्भावस्था के दौरान वज़न बढ़ने से डिलीवरी मुश्किल हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप भोजन कम लिया जाता है। उचित जानकारी के बिना लोग पौष्टिक भोजन को महत्व नहीं दे सकते, जिसके कारण वे उचित स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की मांग भी नहीं कर पाते।

मां की पोषण स्थिति, शिक्षा, स्तनपान, गर्भावस्था के बीच का अंतराल, शादी की उम्र और साफ़-सफ़ाई जैसे कई आपस में जुड़े हुए कारक हैं। ये सभी सांस्कृतिक पहलू हैं, जिनका ज़्यादातर आबादी को एहसास तक नहीं है। जिन्हें दिन में मुश्किल से एक वक़्त ही भोजन मिले उन लोगों को इसका एहसास हो भी कैसे सकता है? कारण भले ही कुछ भी हो लेकिन कुपोषण के परिणाम केवल शारीरिक स्वास्थ्य की कमज़ोरी के रूप में ही प्रकट नहीं होते,बल्कि यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी प्रभावित करते हैं और ऐसे प्रभाव कुल सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधा बनते हैं।

जैसा कि हमने ऊपर बात की कि बच्चों में कुपोषण व्यापक पैमाने पर मौजूद है। जीवन की नींव रखने वाले बचपन के इन सालों में ही ख़ुराक की यह कमी उनके शारीरिक विकास के साथ-साथ उनके बौद्धिक विकास को भी सीमित करती है। दिमाग़ हमारे शरीर का एक ऐसा अंग है जिसमें हमारे विचार, कल्पनाएं आदि जन्म लेते हैं और बचपन के शुरुआती साल उसकी संरचना और विकास के साल होते हैं, लेकिन भारत के ज़्यादातर बच्चों को पर्याप्त ख़ुराक ना मिलने के कारण बौद्धिक क्षमता का बचपन में ही गला घोंट दिया जाता है।

कुपोषण से बीमारियों की चपेट में आने की संभावना भी बढ़ जाती है, जिसके कारण कुपोषण के शिकार व्यक्ति बार-बार और अधिक बीमार पड़ते हैं और इस प्रकार कुपोषण मृत्यु दर में वृद्धि का एक कारण बनता है। जैसा कि हमने ऊपर दिए गए आंकड़ों से भी देखा है, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में आधी मौतें कुपोषण की होती हैं।

इसलिए हमें सरकार से यह माँग करनी चाहिए कि सस्ते और पौष्टिक भोजन तक हर व्यक्ति की पहुंच य़कीनी बनाए जाए। यह सरकार की ज़ि‍म्मेदारी है कि ना सिर्फ़ आटा दाल योजना को चलाकर काम चलाया जाए। जीने का अधिकार हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है और जीने का मतलब केवल उम्र बिताना नहीं होता, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही अच्छा जीवन जी सकता है। इसलिए उसकी इन बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना सरकार की ज़ि‍म्मेदारी है। इसलिए जनपक्षधर नीतियों, सामाजिक सुरक्षा की गारंटी करने, जन स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत बनाने, खाद्य सुरक्षा में उच्च गुणवत्ता वाले भोजन की गारंटी करने, स्वास्थ्य संबंधी नीतियों में इसके अनुसार ज़रूरी संशोधन करवाने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करने पड़ेंगे।

दूसरी ओर स्मृति ईरानी जैसों के कुपोषण के मुद्दे को हल करने के लिए बनाए गए प्रोटोकॉल काफ़ी हास्यास्पद और झूठे लगते हैं। इसके हल के लिए स्मृति ईरानी द्वारा जारी प्रोटोकॉल में लोगों के लिए भोजन की विविधता के बारे में बात की गई है और इसमें अंडे को भी शामिल किया गया है। लेकिन यह सब काग़ज़ों पर ही है। एक तरफ़ यह दिखाया जाता है और दूसरी तरफ़ अंडा-मीट विरोधी, यहां तक कि लहसुन-प्याज़ विरोधी, अवैज्ञानिक प्रचार करने वाली ‘अक्षयपात्र’ जैसी संस्थाओं को भारत के एक दर्जन से ज़्यादा राज्यों में मिड-डे-मील का ठेका दिया जाता है।

मुसलमानों को गाय के मांस के झूठे आरोप लगाकर सरेआम सड़कों पर मार दिया जाता है। संघ परिवार द्वारा मीट की दुकानें बंद करवाई जाती हैं। फिर स्मृति ईरानी के ऐसे प्रोटोकॉलों के प्रदर्शन का क्या क़ायदा है? हक़ीकत तो यह है कि कुपोषण ज़्यादातर बच्चों में ऐसी अपूरणीय क्षति पहुंचा रहा है, जिसकी भरपाई सारी उम्र नहीं हो पाती और ख़ासकर पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में तो बिल्कुल भी नहीं।

28 अगस्त को अपने ‘मन की बात’ रेडियो कार्यक्रम के 92वें एपिसोड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेरा बच्चा’ अभियान के बारे में बात करते हुए यह भी कहा कि भजन करने और भक्ति गीत गाने से कुपोषण का बोझ कम हो सकता है। जिस देश में प्रधानमंत्री कोरोना को भगाने के लिए लोगों को ताली बजाने और थाली पीटने की सलाह देते हैं, भजनों और भक्ति गीतों में कुपोषण का समाधान बताते हैं, उस देश में ऐसी भयावह स्थिति स्वाभाविक है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा टिप्पणीकार हैं)

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