महान विचारक कार्ल मार्क्स की एक महत्वपूर्ण और क्लासिक पुस्तक ‘लुई बोनापार्ट की अट्ठारहवीं ब्रूमेर’ है, जिसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि “हेगेल ने एक जगह कहा है, कि विश्व इतिहास में वे सभी अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएं और हस्तियां; कहा जा सकता है, वे दो बार आविर्भूत हुईं। वे इतना और कहना भूल गए, पहली बार दु:खांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में।” मार्क्स लिखते हैं, “क्रांतिकारी संकट के ठीक ऐसे अवसरों पर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कंठापूर्वक बुलावा दे बैठते हैं और उनसे अतीत के नाम, अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं, ताकि विश्व इतिहास की नवीन रणभूमि को इस चिरप्रतिष्ठित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाकर पेश करें।”
मार्क्स का एक लम्बा उद्धरण मैंने यह बताने के लिए दिया है, कि आज जिस तरह का राजतंत्र बहाली आंदोलन चल रहा है, उसमें मार्क्स का यह कथन कितना सटीक बैठता है तथा किस तरह किसी देश में संकट के समय मृत हो चुकी प्रतिक्रियावादी ताकतों का प्रेत एक बार फिर जगाया जाने लगता है। हिंसक संघर्ष के बाद नेपाल में लोकतंत्र तो आया, लेकिन सत्ता के लिए तिकड़म और भ्रष्टाचार भी उसे जकड़ते गए।
अब 17 साल बाद नेपाल में एक बार फिर राजशाही की मांग गूंंजने लगी है। नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह का रविवार को राजधानी काठमांडू में जोरदार स्वागत हुआ। राजशाही का समर्थन करने वाले हजारों लोग स्वागत के लिए एयरपोर्ट के गेट पर मौजूद थे। उनके हाथ में नेपाल के झंडे और जुबान पर “महाराज लौटो, देश बचाओ” के नारे थे। पूर्व राजा बीते हफ्तों में देश का दौरा कर रहे थे। रविवार को वह पोखरा से काठमांडू लौटे।
एयरपोर्ट पर मौजूद 43 साल के शिक्षक राजेंद्र कुंवर ने कहा, “देश अस्थिरता का सामना कर रहा है, महंगाई है, लोग बेरोजगार हैं और शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है।” उन्होंने आगे कहा, “गरीब भूख से मर रहे हैं। कानून आम नागरिकों पर लागू होता है, लेकिन राजनेताओं पर नहीं, इसीलिए हम चाहते हैं, कि राजा वापस लौटें।” 77 साल के ज्ञानेंद्र शाह अब तक नेपाल की राजनीति के बारे में बोलने से बचते रहे हैं, लेकिन हाल के समय में वह अपने समर्थकों के साथ सार्वजनिक रूप से कई बार नजर आए हैं।
इसी साल फरवरी में राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की वर्षगांठ के मौके पर पूर्व राजा ने एक बयान जारी कर कहा है, “अब समय आ चुका है, अगर हम अपने देश और अपनी राष्ट्रीय एकता को बचाना चाहते हैं, तो मैं सभी देशवासियों से नेपाल की समृद्धि और प्रगति के वास्ते हमारा समर्थन करने की अपील करता हूं।”
नेपाल के राजनीतिक समीक्षक लोक राज बराल ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा कि उन्हें राजशाही की वापसी की कोई संभावना नहीं दिख रही है। वह कहते हैं, “राजनेताओं की अक्षमता और उनके भीतर बढ़ती आत्म केंद्रिता के बीच कुछ असंतुष्ट गुटों के लिए यह एक राहत जैसी बात है। यही झल्लाहट इस तरह के जमावड़े और प्रदर्शनों में बदल रही है।”
नेपाल में हिंदू राजशाही का दौर लगभग 240 साल चला। हिंसक संघर्ष के बाद 2008 में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई। नेपाल में 1996 में माओवादियों के नेतृत्व में गृहयुद्ध शुरू हुआ। इसके कुछ ही साल बाद 2001 में राजमहल में तत्कालीन राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड के बाद ज्ञानेंद्र शाह नेपाल के महाराज घोषित किए गए।
उनकी ताजपोशी के वक्त नेपाल में माओवादी हिंसा फैल चुकी थी। 2005 में शाह ने संविधान निलंबित कर संसद को भंग कर दिया, इसके बाद लोकतंत्र समर्थक भी माओवादियों के साथ मिल गए देश में राजशाही के विरुद्ध बड़े प्रदर्शन होने लगे, आखिकार नेपाल में राजशाही ढह गई। देश में 1996 से 2006 तक चले गृहयुद्ध में 16 हजार से ज्यादा लोगों की जान गई।
2008 में नेपाल की संसद ने देश में 240 साल से हुकूमत कर रही हिंदू राजशाही को भंग कर दिया। नेपाल लोकतंत्र की राह पर तो चल पड़ा, लेकिन राजनीतिक स्थिरता हिचकोलों से भरी रही। 2008 से अब तक नेपाल 14 सरकारें देख चुका है। इनमें भी तीन मौकों पर पुष्प कमल दहल प्रधानमंत्री बने और चार अवसरों पर केपी शर्मा ओली बीते 17 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा लगता है जैसे सत्ता मुख्य रूप से एक-दो लोगों के बीच झूल रही हो।
फरवरी 2025 में आए करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में नेपाल 180 देशों की लिस्ट में 107 वें नंबर पर था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने इस इंडेक्स में नेपाल को 100 में से 34 अंक दिए। नेपाल, 2008 से अब तक 14 सरकारें देख चुका है। जानकारों का मानना है,कि लोग महंगाई और अस्थिरता से परेशान हैं, लेकिन वे राजशाही चाहते हैं, यह कहना सही नहीं है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक 50 से कम अंक पाने वाले देश को भ्रष्ट माना जाता है, इस लिहाज़ से देखें, तो 2015 से अब तक नेपाल 35 अंकों के पार नहीं जा सका है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और ग्लोबल इनसाइट के डाटा के मुताबिक सरकार और बिजनेस से जुड़ी गतिविधियों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। रिपोर्ट में कहा गया कि नेपाल में आयात-निर्यात, जन सेवाओं, टैक्स भुगतान और ठेकों में भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है।
कारोबार और ठेकों में रिश्वतखोरी काफी बढ़ी है, वहीं दूसरी तरफ सरकार की जवाबदेही और संसाधनों के प्रबंधन के मामले में भ्रष्टाचार कम हुआ है। वर्ल्ड बैंक और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सर्वे में यह संकेत भी सामने आया, कि शायद राजनीतिक लेन-देन और चुनावी खर्च के कारण भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।
एयरपोर्ट पर राजा के स्वागत के दौरान कथित रूप से एक ऐसा व्यक्ति भी दिखा था, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का पोस्टर उठाए हुए था, इसको लेकर भारतीय और नेपाली मीडिया में बहुत चर्चा है। इस सच्चाई से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में संघ परिवार और भाजपा शुरू से नेपाली राजतंत्र तथा हिंदूराष्ट्र की समर्थक रही है।
भारत में भाजपा के लगातार सत्ता में रहने पर नेपाल में भी ये ताक़तें अपना प्रभाव बढ़ा रही हैं। अभी हाल में नेपाल की तराई में नेपाल के इतिहास में पहली बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तथा कर्फ्यू तक लगाना पड़ा था। इस संबंध में नेपाली राजनीति तथा वहां की धर्म और संस्कृति के जानकार समकालीन ‘तीसरी दुनिया’ के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं, कि “जब नेपाल में संविधान का निर्माण हो रहा था तभी संघ परिवार से जुड़ी हिंदूवादी ताक़तें पूरी कोशिश कर रही थीं कि नेपाल में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान न लागू हो तथा वह हिंदूराष्ट्र बना रहे।”
उसी समय उत्तराखंड राज्य की सरकार के ‘मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी’ ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान यहां तक कह दिया था,कि “नेपाल में भारी पैमाने पर भारतीय हिंदू तीर्थयात्रा के लिए जाते हैं। अगर नेपाल हिंदूराष्ट्र नहीं रहा तो इस पर बुरा असर पड़ेगा।” आनंद स्वरूप वर्मा आगे कहते हैं कि “आज नेपाल में फैली राजनीतिक अस्थिरता का फ़ायदा राजतंत्र समर्थक पार्टियां उठाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन उन्हें इसमें सफलता मिलने की संभावना बिलकुल भी नहीं है”।
“नेपाली समाज एक बहुधर्मीय समाज है, जिसमें बहुमत जनजाति पिछड़े और दलित समाज का है। एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नेपाल ही सभी को न्याय दे सकता है। नेपाली जनयुद्ध में सभी वर्गों ने मिलकर राजशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था, इसलिए अब वे पुरानी सामाजिक व्यवस्था की ओर लौटने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।”
(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार व एक्टिविस्ट हैं।)
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