
अनेक देशवासियों की आस्था के स्वामी अय्यप्पा मुझ समेत हर भारतीय के लिए सम्माननीय हैं। सबसे पहले मैं उनके आगे दूर से मत्था टेकता हूं।
मेरे लिए यह कोई सवाल नहीं है कि ऐसे किसी मन्दिर में स्त्री को जाना चाहिए या नहीं, जिसके देवता स्त्री से भयभीत हों। मैं ख़ुद कभी ऐसे मन्दिर में नहीं जाता। स्त्री होता तो और भी न जाता। सवाल कुछ और है।
संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत भर के सभी सार्वजनिक जगहों पर निर्बाध प्रवेश का अधिकार देता है। इसमें लिंग, धर्म, जाति, रंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। कोर्ट का दायित्व है कि वह प्रत्येक नागरिक के इस अधिकार की रक्षा करे। चाहे वो किसी ब्रह्मचारी का मन्दिर हो या किसी हाजी अली की दरगाह।
धर्म और संविधान में टकराव न हो, यह असम्भव है। धर्म केवल आस्था नहीं है, एक सामाजिक व्यवस्था भी है। आस्था और व्यवस्था दोनों धर्म में एक रूप होते हैं, जिन्हें अलगाया नहीं जा सकता।
जब कोई देश धर्म की जगह संविधान को अपनी सामाजिक व्यवस्था के रूप में चुनता है तो इसका एक ख़ास मतलब होता है। यह एक घोषणा है कि हम ईश्वर के नाम पर पुरोहितों, मुल्लों और पादरियों की बनाई व्यवस्था को नामंजूर करते हैं। अपनी सामाजिक व्यवस्था ख़ुद बनाने के अपने अधिकार का दावा करते हैं।
इसलिए सबरीमाला का टकराव आज देश के प्रत्येक नागरिक के लिए अहम मुद्दा है। इस देश में संविधान का राज चलेगा या धर्म का? यह सवाल पहली बार नहीं उठा, लेकिन यह पहली बार हो रहा है कि एक विराट जनमत संविधान के विरुद्ध आस्था के पक्ष में उठ खड़ा हुआ है।
यह इतना विराट है कि किसी भी राजनीतिक एजेंसी की हिम्मत उसके मुकाबले खड़े होने की नहीं हो रही।
हममें से हर एक को आज तय करना पड़ेगा कि हम देश में संविधान की सर्वोच्चता चाहते हैं या आस्था की! उस भविष्य या भावी इतिहास की तरफ हमीं को सेनानी बन कर प्रयाण करना है। जिस अमा के सारे नखत एक एक कर बुझ रहे हैं, वो सारा आकाश हमारा ही है।
(आशुतोष कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं और सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच से जुड़े हुए हैं। ये टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से साभार ली गयी है।)