NRI सॉफ्टवेयर व्यवसायी के ड्राफ्ट पर बनाया गया था तीनों कृषि कानून, किसान नहीं कॉर्पोरेट को मालामाल करने का था इरादा

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लगभग डेढ़ साल के सफल और शांतिपूर्ण किसान आंदोलन और 750 किसानों की शहादत के बाद, एक सुबह जब प्रधानमंत्री ने अचानक यह ऐलान किया कि, सरकार किसान कानून वापस ले रही है और इसका कारण, उन्होंने यह बताया कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि वे किसानों को इन कानूनों के बारे में समझा नहीं पाए। कुछ लोगों ने इसे, पीएम की सदाशयता कहा तो कुछ ने लोकतांत्रिक सोच पर। वहीं कुछ लोगों ने इसे उत्तर प्रदेश के तब के आसन्न विधान सभा के चुनाव को देखते हुए उठाया गया कदम बताया था। क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश किसान आंदोलन का एक मुख्य केंद्र था और यदि तत्कालीन विधानसभा के चुनाव तक यह आंदोलन जारी रहता तो भाजपा को चुनावी हानि उठानी पड़ सकती थी। पर जो भी हुआ एक बात तो अच्छी हुई कि किसानों का आंदोलन समाप्त हुआ और शांतिपूर्ण तरीके से उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।

यह कानून जिस तरह से राज्यसभा में सत्ता पक्ष के बहुमत न होने के बावजूद उपसभापति ने मत विभाजन की मांग के बावजूद, मत विभाजन यानी राज्य सभा में वोटिंग न कराते हुए रविवार के दिन सदन का माइक कुछ समय तक ऑफ करके ध्वनिमत से इन कानूनों को राज्यसभा से पास करवा कर एक हुक्म की तामील तो कर दी। पर तब भी सरकार इन कानूनों से किसानों का हित कैसे जुड़ा है, जनता किसान और विपक्ष को न तो संसद में समझा पाई और न सड़क पर अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत किसान संगठनों को। राज्यसभा का विपक्ष, बरजोरी से पास कराए गए इन कानूनों को लेकर संसद भवन परिसर में धरने पर बैठा रहा पर सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी पर जब यूपी विधानसभा 2022 के चुनाव नजदीक दिखे और हारने की आशंका हुई तो सरकार ने इन कानूनों को वापस ले लिया।

तब भी यह सवाल उठा था कि, इन कानूनों को ड्राफ्ट किसने किया था, और इन्हें लाने का मकसद क्या था। क्या इन कानूनों को, ड्राफ्ट करने के पहले किसान संगठनों से या कृषि विशेषज्ञों से कोई बात की गई थी या अचानक एक सुबह, सरकार को यह इलहाम हुआ कि, किसानों की आय दुगुनी करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए और सरकार ने कानून संसद में रखा और बिना इस बात की कल्पना किए कि, इन कानूनों पर किसानों की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसे जबरन पास भी करा लिया। जब विरोध हुआ और लगभग 750 किसान, डेढ़ साला धरने में दिवंगत हो गए तो, प्रधानमंत्री ने अपने ही एक राज्यपाल सत्यपाल मलिक जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं, और जो किसानों का पक्ष रखने पीएम से मिलने गए थे से इन दिवंगत किसानों के बारे में कहा, कि क्या वे मेरे लिए मरे थे। असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा को स्पर्श करते हुए कहा गया यह वाक्य, पीएम की मजबूरी और किसानों के प्रति उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देता है।

16 अगस्त 2023 को, रिपोर्टर्स कलेक्टिव वेबसाइट पर गिरीश जलिहाल का एक लेख प्रकाशित हुआ है जो किसान कानूनों के वास्तुकार के बारे में जानकारी देता है। दरअसल, नीति आयोग जिसे सरकार ने योजना आयोग को भंग करके एक नए थिंक टैंक के रूप में बनाया है की टास्क फोर्स ने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की, जहां किसान कॉर्पोरेट्स को कृषि भूमि पट्टे पर देंगे और उक्त भूमि पर एक समूह के रूप में काम करेंगे। यह कल्पना कैसे कर ली गई कि किसान क्यों अपनी भूमि किसी कॉर्पोरेट को दे देंगे और इससे उन्हें क्या लाभ होगा? इन सब पर विचार किया गया था या नहीं, यह तो नीति आयोग वाले जानें, पर खेती कॉर्पोरेट को दे देने का इरादा सरकार का स्पष्ट था। बनाए गए तीनों किसान कानून सरकार के इरादे के अनुरूप ही ड्राफ्ट किए गए थे।

गिरीश जलिहाल अपने लेख में लिखते हैं कि, “दस्तावेजों से पता चलता है कि, नीति आयोग को एक भाजपा-अनुकूल एनआरआई व्यवसायी के प्रस्ताव ने, एक टास्क फोर्स के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया, जिसने किसानों की आय को दोगुना करने के तरीके के रूप में कृषि के कॉर्पोरेटीकरण पर जोर देते हुए एक रिपोर्ट लिखी। अपने प्रस्ताव से नीति आयोग को समझाने में सफल रहने वाले, शरद मराठे नामक व्यक्ति, कृषि, किसानी या इससे जुड़े किसी भी विषय के विशेषज्ञ नहीं हैं, बल्कि, वे एक सॉफ्टवेयर कंपनी चलाने वाले कारोबारी हैं।”

सरकार का कॉर्पोरेट प्रेम जगजाहिर है और किसानों की आय दोगुनी करने का फार्मूला बरास्ते कॉर्पोरेट को अनुग्रहित करते और उनसे अनुग्रहित होते हुए, नीति आयोग ने यह रास्ता चुना और शरद मराठे की थीसिस पर काम करना शुरू कर दिया। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा प्राप्त दस्तावेज़ों से पता चलता है कि नीति आयोग ने शरद मराठे की दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए तेजी और उत्सुकता से कदम उठाये। नीति आयोग ने यही सूत्र पकड़ लिया कि “एक ऐसा भविष्य, जहां किसान कॉर्पोरेट शैली की कृषि व्यवसाय कंपनियों को कृषि भूमि पट्टे पर देते हैं और प्रभावी रूप से उनके सहयोगी के रूप में काम करते हैं।”

यानी जैसा कि रद्द हो चुके किसान कानून में ही यह प्राविधान था कि, किसान अपनी भूमि कॉर्पोरेट को पट्टे पर देंगे और उस भूमि में वे खेती करेंगे। भूमि किसानों की, श्रम किसानों का, और पट्टा कॉर्पोरेट का, मुनाफा कॉर्पोरेट का और नुकसान किसानों का। कमाल की सोच थी सरकार के थिंक टैंक की। लेख के अनुसार, “नीति आयोग ने बाद में एनआरआई व्यवसायी (शरद मराठे) को टास्क फोर्स में नियुक्त किया। जिसने अडानी समूह, पतंजलि, बिगबास्केट, महिंद्रा समूह और आईटीसी जैसे कृषि वस्तुओं के व्यापार में शामिल ज्यादातर बड़े कॉर्पोरेट से परामर्श किया।” लेकिन, कहीं भी यह उल्लेख नहीं मिलता है कि किसानों या किसान संगठनों या कृषि विशेषज्ञों से इन कानूनों को ड्राफ्ट करते समय कोई परामर्श या चर्चा की गई हो। यह एक अजीब स्थिति थी।

यहीं, यह सवाल उठता है कि जिन्हें खेती करनी है, जिनकी भूमि है, जिनका पसीना बहता है, जो मौसम की मार झेलते हैं, उनसे न तो कोई परामर्श सॉफ्टवेयर व्यवसायी ने किया और न ही नीति आयोग ने। शरद मराठे किसानों से परामर्श करते भी नहीं क्योंकि वे तो यह थीसिस ही कॉर्पोरेट हित में बना रहे थे। पर नीति आयोग की क्या मजबूरी थी कि उन्होंने कोई भी परामर्श किसानों से नहीं किया? 2018 में सरकार को रिपोर्ट सौंपने से पहले किसी भी किसान, कृषि अर्थशास्त्री या किसान संगठनों से सलाह नहीं ली गई। इस थीसिस का उद्देश्य ही था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पना के अनुसार कृषि पर निर्भर लगभग 60% भारतीयों की आय को दोगुना करने के नाम पर कॉर्पोरेट को देश के कृषि सेक्टर में किसी भी तरह से घुसाना था। वह रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक भी नहीं की गई है। जब गिरीश जलिहाल का यह लेख सामने आया तो इस कानून के नेपथ्य की परत दर परत खुल रही है।

रिपोर्ट्स कलेक्टिव पर प्रकाशित लेख दो भागों में है। दो भागों की सीरीज के पहले भाग से ज्ञात होता है कि सरकार किसानों की आय दोगुनी करने की अपनी योजना किस प्रकार से तैयार कर रही थी जो, प्रधानमंत्री द्वारा किया गया एक महत्वाकांक्षी वादा था। लेख के अनुसार, “दस्तावेजों से पता चलता है कि, कैसे कृषि में कोई अनुभव नहीं रखने वाले, किसी व्यक्ति का प्रस्ताव, प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) तक पहुंच गया, जो देश का सबसे महत्वपूर्ण कार्यालय है। यह एक प्रकार से सरकार की लापरवाही को ही उजागर करता है।” लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह सब शुरू हुआ एक पत्र से, जिसका विस्तृत उल्लेख गिरीश जलिहाल ने अपने लेख में किया है।

लेख के अनुसार, “अक्टूबर 2017 में, शरद मराठे ने नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष राजीव कुमार को एक पत्र लिखा, जिसमें कृषि में सुधार के लिए एक नायाब दृष्टिकोण और अवधारणा नोट की रूपरेखा तैयार की गई।” इस पर नीति आयोग ने एक ज्ञापन में “शरद मराठे द्वारा, उनके साथ साझा किए गए प्रस्ताव पर विशेष रूप से चर्चा करने के लिए एक उच्च स्तरीय बैठक की घोषणा की। आगे जलिहाल लिखते हैं, “शरद मराठे और राजीव कुमार एक दूसरे से पहले से ही परिचित थे” और इसी परिचय के कारण यह लगता है कि “इस पत्र को हर साल नीति आयोग जैसे सरकारी संगठनों में आने वाले विचारों और पत्रों वाले हजारों दुर्भाग्यपूर्ण ठंडे मेलों में से क्यों चुना गया था।  लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है, सत्तारूढ़ दल बीजेपी से उनकी निकटता, क्योंकि शरद मराठे ने बीजेपी के विदेशी मित्र इकाई नामक एक एनआरआई संगठन के प्रमुख के साथ अपनी दोस्ती का दावा किया था।”

अब एक नजर शरद मराठे पर। अमेरिका से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर डिग्रीधारी शरद मराठे एक मैकेनिकल इंजीनियर हैं और अमेरिका में यूनिवर्सल टेक्निकल सिस्टम्स इंक नामक एक सॉफ्टवेयर कंपनी चलाते हैं। साथ ही उनकी भारत में यूनिवर्सल टेक्निकल सिस्टम्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड नामक एक अन्य कंपनी भी है। बीजेपी सरकार के साथ शरद मराठे के गहरे संबंध रहे हैं। उन्हें सितंबर 2019 में भारत के शीर्ष ग्रामीण बैंक नियामक, नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) में स्पेन की राजकुमारी से मिलने वाले सरकारी प्रतिनिधिमंडल में भी शामिल किया गया था। इससे यह पता चलता है कि एक मैकेनिकल इंजीनियर और सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ की रुचि कृषि में भी है और वे उस पर काम भी कर रहे थे।

गिरीश जलिहाल उनके बारे में लिखते हैं, “मराठे ने हमें बताया कि मैं 60 के दशक से अमेरिका में रह रहा हूं। मेरी रुचि उन विषयों में है जिनका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।  मैं अपने समय का एक हिस्सा अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी चलाने में बिताता हूं..और दूसरा हिस्सा, मैं यह ढूंढने में बिताता हूं कि मैंने जीवन में क्या सीखा है जिसे मैं सामने ला सकता हूं, जिसका समाज पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा।” सार्वजनिक दस्तावेज़ों से यह तथ्य पता चलता है कि “वह पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के दौरान भारत में सॉफ्टवेयर पार्क स्थापित करने के विचार का सुझाव देने वाले विशेषज्ञों में भी शामिल थे।”

जब 2016 में उत्तर प्रदेश में एक किसान रैली को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के अपने सपने के बारे में बात की थी और इसे हासिल करने के लिए कतिपय उपायों पर विचार किया जा रहा था तब, शरद मराठे की थीसिस का ब्लूप्रिंट जिसका शीर्षक था, “बाजार संचालित, कृषि-लिंक्ड मेड इन इंडिया के माध्यम से किसानों की आय दोगुनी करना” प्रकाश में आई और को नीति आयोग ने इस थीसिस में उत्सुकता से दिखाई।

अपनी थीसिस में शरद मराठे ने दावा किया था कि, उनके पास एक मौलिक नया व्यावहारिक समाधान है जिसका सरकार को परीक्षण करना चाहिए और उनके सुझाव पर तेजी से बढ़ना चाहिए। वे समाधान थे,

1. किसानों से पट्टे पर ली गई भूमि को एक साथ जोड़ना, जिससे भूमि का क्षेत्रफल बढ़ जाय।

2. सरकारी मदद से एक बड़ी विपणन कंपनी बनाना।

3. प्रसंस्करण और खेती के लिए छोटी-छोटी कंपनियां बनाना। 

संक्षेप में उनकी थीसिस का सूत्र था, “ये कंपनियां कृषि उत्पाद बनाने और बेचने के लिए मिलकर काम करेंगी। जो किसान अपनी जमीन पट्टे पर देते हैं, वे भी इसका हिस्सा बन सकते हैं और लाभ का हिस्सा प्राप्त कर सकते हैं। इससे उन्हें अधिक पैसा कमाने में मदद मिलेगी और खेती बेहतर होगी।”

शरद मराठे ने केवल किसान की आय दुगुनी करने का एक आइडिया ही नहीं दिया बल्कि इस आइडिया को लागू करने के लिए एक टास्क फोर्स का भी गठन कर दिया। उक्त लेख के अनुसार, “उन्होंने (शरद मराठे) इसकी निगरानी के लिए एक विशेष ‘टास्क फोर्स’ गठित करने की सिफारिश की। और एक कदम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने उन 11 लोगों की सूची बनाई जिन्हें टास्क फोर्स का हिस्सा होना था। उन्होंने खुद और तत्कालीन कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को उस सूची में शामिल किया।”

यही एकमात्र टास्क फोर्स नहीं था, जिसके सदस्य शरद मराठे रहे बल्कि, 2018 में वे आयुष (पारंपरिक चिकित्सा) क्षेत्र को बढ़ाने के लिए आयुष मंत्रालय की टास्क फोर्स के भी अध्यक्ष नियुक्त हुए थे। यह भी एक अजीब तथ्य है कि वे एक सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ हैं और किसान कानून तथा परंपरागत चिकित्सा क्षेत्र में बने टास्कफोर्स के भी सदस्य हैं। इस टास्क फोर्स में शरद मराठे ने अपने एक मित्र, संजय मारीवाल जो खाद्य और न्यूट्रास्युटिकल व्यवसाय में शामिल अठारह कंपनियों को चलाने वाले एक सुस्थापित व्यवसायी थे, को किसानों की आय पर बने इस टास्क फोर्स के सदस्यों में भी शामिल किया था।

शरद मराठे के अपनी अवधारणा नोट में किसानों की आय दोगुनी करने पर अनिवासी भारतीयों और उद्यमियों से सुझाव लेने के लिए एक आउटरीच अभियान का भी प्रस्ताव रखा था। उन्होंने विशेष रूप से एक ऐसे व्यक्ति को शामिल करने का उल्लेख किया जिसे वह जानते थे। वे थे “विजय चौथाईवाले, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए जाने जाते हैं और भारतीय जनता पार्टी के विदेश नीति विभाग और प्रवासी मित्र इकाई में महत्वपूर्ण पदों पर हैं।” हालांकि, चौथाईवाले बाद में इस टास्क फोर्स से अलग हट गए।

टास्क फोर्स के गठन के बाद नीति आयोग ने फैसला किया कि मराठे के कॉन्सेप्ट नोट पर एक उच्च स्तरीय बैठक में चर्चा की जाएगी। हालांकि, गिरीश के लेख के अनुसार, “मराठे के कॉन्सेप्ट नोट पर पहले से ही पर्दे के पीछे बातचीत हो चुकी थी, उस समय के कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को सरकार और सरकार के थिंक टैंक के अन्य शीर्ष नौकरशाहों के साथ बैठक में शामिल होने के लिए कहा गया था।” इसके बाद नीति आयोग ने एक उच्च स्तरीय बैठक की, जिसमें मराठे की सिफारिश के अनुसार चुने गए सोलह प्रतिभागियों में से सात शामिल थे। उन्होंने एक अन्य टास्क फोर्स का गठन करने का निर्णय लिया जो “व्यावसायिक योजना के विवरण” के साथ “ढांचा विकसित करने का भी काम करेगी।”

अब लेख का एक दिलचस्प उद्धरण पढ़े, “8 दिसंबर, 2017 को नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने एक फाइल नोटिंग में लिखा, “टास्कफोर्स की स्थापना के प्रस्ताव पर पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) के साथ चर्चा की गई है और हम आगे बढ़ने से पहले उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार करेंगे।”

नीति आयोग ने पीएमओ की प्रतिक्रिया का उल्लेख नहीं किया है। लेकिन क्यों नहीं किया है इसका अनुमान लगाया जा सकता है।  जनवरी 2018 तक तीन महीने के भीतर मराठे ने पहली बार अपनी योजना का ड्राफ्ट भेजा और नीति आयोग ने आधिकारिक तौर पर एक टास्क फोर्स का गठन किया।”

हालांकि, नीति आयोग के रिकॉर्ड से यह नहीं पता चलता है कि “मराठे के कहने पर विशेष टास्क फोर्स का गठन गुप्त तरीके से क्यों किया गया। जबकि सरकार ने पहले ही किसानों की आय दोगुनी करने के तरीकों पर एक विशाल आधिकारिक अंतर-मंत्रालयी समिति का गठन कर दिया था। आयोग की वार्षिक रिपोर्ट में टास्क फोर्स का संक्षेप में उल्लेख किया गया है, जिसमें सदस्यों या जिनसे इसने परामर्श किया, उनका विवरण नहीं दिया गया है।”

यह भी एक तथ्य है कि किसानों की आय दोगुनी करने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दो महीने के भीतर अंतर-मंत्रालयी समिति का गठन किया गया था। एक साल और चार महीने बाद ही समिति ने 14 खंडों में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना शुरू कर दिया था। इस रिपोर्ट में खेती, कृषि उत्पादों और ग्रामीण आजीविका को बढ़ाने से संबंधित सभी पहलुओं पर चर्चा की गई थी।

टास्क फोर्स में अपने काम के लिए मराठे ने कई तरह की सुविधाएं मांगीं। काम करने की जगह और डेस्कटॉप से ​​लेकर यात्रा भत्ता तक। आयोग ने तुरंत उन्हें इसकी अनुमति भी दे दी।

अंतर-मंत्रालयी समिति के विपरीत, जिसने हितधारकों की एक विस्तृत श्रृंखला से परामर्श किया, जिसमें कृषि कार्यकर्ता भी शामिल थे, मराठे-कल्पित टास्क फोर्स ने मुख्य रूप से बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए एक मंच के रूप में कार्य किया। अपनी पहली बैठक में टास्क फोर्स ने अपना एजेंडा तैयार किया और कहा कि “कृषि से कृषि व्यवसाय की ओर बढ़ने का यह सही समय है।” रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने नीति आयोग, कृषि और किसान कल्याण विभाग और टास्क फोर्स से परामर्श करने वाली कंपनियों को विस्तृत प्रश्न भी भेजे थे। लेकिन अनुस्मारक के बावजूद उनमें से किसी ने भी जवाब नहीं दिया।

एक तरफ यह कहा जा सकता है कि अब जब तीनों किसान कानून अब रद्द हो चुके हैं तो गड़े मुर्दे उखाड़ने की जरूरत क्या है। गड़े मुर्दे उखाड़ने की जरूरत इसलिए है कि लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि, सरकार का उद्देश्य कानून का जनहित में बनाए जाना नहीं है यह कॉर्पोरेट हित में बनाया गया था। किसानों की आय दुगुनी हो, सरकार का यह एक पावन संकल्प था, पर उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बनाई गई अंतर-मंत्रालय समिति और किसानों से इस मुद्दे पर विमर्श को दरकिनार कर के शरद मराठे के आइडिया को, जो कॉर्पोरेट के हित के लिए कॉर्पोरेट से मिलकर जनता के टैक्स के पैसों से, बनाए टास्क फोर्स द्वारा, मूर्त रूप दिया जा रहा था, वह एक जनविरोधी कवायद थी। और सरकार ने तीनों किसान कानून इसलिए नहीं वापस लिये थे कि सरकार की कोई सदाशयता थी, या प्रधानमंत्री के मन में कोई किसान प्रेम जाग गया था, बल्कि डेढ़ साल से चल रहे, एक अभूतपूर्व धरना प्रदर्शन का, उनपर मानसिक दबाव था। यूपी विधानसभा चुनाव का दबाव था।

शायद यह एक ऐसा कानून था, जिसपर उसे पास करते हुए भी न तो कोई चर्चा हुई और न ही कानून को वापस लेते हुए सरकार की हिम्मत हुई कि, वह इस पर चर्चा कराती। बस एक पंक्ति का प्रस्ताव लाया गया कि सरकार इन तीन किसान कानूनों को वापस लेती है और सदन ने उसे सर्वसम्मति से रद्द घोषित कर दिया गया।

शरद मराठे को भी किसी भी कानून के बारे में सरकार को राय मशविरा देने का पूरा अधिकार है, पर सरकार का यह दायित्व और संवैधानिक कर्तव्य है कि वह कोई भी कानून पारित करने के पहले उस पर सदन और सदन के बाहर भी व्यापक विचार-विमर्श करे और इस बात का भी आकलन करे कि उक्त कानून से जनता का हित कितना जुड़ा है। पर सरकार ने तीनों किसान कानून पारित करते समय जनहित के सबसे जरूरी मुद्दे को न केवल नजरंदाज़ किया बल्कि जनहित या किसानों के हित के विपरीत जाकर इन कानूनों को पास किया। क्योंकि उसके ऊपर कॉर्पोरेट का दबाव था, और यह दबाव क्यों था, यह किसी से छुपा नहीं है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस हैं और कानपुर में रहते हैं।)

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