तो ये है ‘मर्दाना’ विदेश नीति का हासिल!

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नरेंद्र मोदी सरकार चीन को ‘लाल आंख दिखाने’ और ‘मर्दाना’ विदेश नीति पर अमल करने का ऐलान करते हुए 2014 में सत्ता में आई थी। उस नीति की एक मिसाल 2017 में देखने को मिली, जब भारत-भूटान-चीन के ट्राई-जंक्शन (वह स्थल जहां तीनों देशों की सीमाएं मिलती हैं) पर स्थित डोकलाम में अचानक भारतीय फौज तैनात कर दी गई, जिसने वहां चीन की तरफ से किए जा रहे सड़क निर्माण को रोक दिया। उसके बाद 73 दिन तक वहां भारतीय और चीनी सेनाएं आमाने-सामने खड़ी रहीं। कहा जाता है कि तब चीन ने पहले पलक झपकाने (यानी पीछे हटने) का फैसला किया। उसके बाद वह गतिरोध खत्म हुआ था।

डोकलाम एक विवादित इलाका है। वह ऐसा क्षेत्र है, जिस पर भूटान और चीन दोनों का दावा है। चूंकि भारत की नजर में वह भूटान का संरक्षक है, इसलिए उसने वहां सेना भेजने का फैसला किया था। भारत और भूटान के बीच 1949 में मैत्री संधि हुई थी। उस संधि की धारा 2 में भारत ने वादा किया था वह भूटान के अंदरूनी मामलों में कोई दखल नहीं देगा। इसके बदले भूटान सहमत हुआ था कि अपने विदेश संबंधों के मामले में वह भारत सरकार से निर्देशित होगा। इसी संधि के कारण तब से आज तक भूटान को भारत संरक्षित देश समझा जाता है। इस संधि में 2007 में कुछ संशोधन हुए, लेकिन उससे इस धारणा पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

जब डोकलाम गतिरोध चल रहा था, तब मीडिया में इस घटनाक्रम के कारण भूटान में असंतोष पैदा होने की खबरें चर्चित हुई थीं। उनमें बताया गया था कि भारत ने बिना भूटान को भरोसे में लिए अपनी सेना ट्राई-जंक्शन पर भेजने का निर्णय लिया, जिससे भूटान सरकार सहमत नहीं थी। उस समय तक भूटान के सत्ता प्रतिष्ठान में संभवतः यह राय बन चुकी थी कि इस छोटे देश को अपने दोनों बड़े पड़ोसी देशों- भारत और चीन- के साथ संतुलन बना कर चलना चाहिए। तब कहा गया था कि भूटान भारत और चीन के टकराव के बीच पिसना नहीं चाहता था

डोकलाम गतिरोध टूटने के बाद भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया और सरकार समर्थक रक्षा विशेषज्ञों में उल्लास देखने को मिला था। तब इसे भारत की बड़ी जीत के रूप में चित्रित किया गया। कहा गया कि मोदी सरकार की मजबूत विदेश नीति ने ड्रैगन (चीन) को झुका दिया है। वैसे तो तब भी ये सारी चर्चा संदर्भ से कटी हुई थी, लेकिन अब छह साल बाद उस समय पेश की गई तस्वीर के बिल्कुल विपरीत परिणाम सामने आते दिख रहे हैं।

अब यह संभव है कि इस वर्ष की समाप्ति से पहले ही डोकलाम का क्षेत्र आधिकारिक रूप से चीन का हो जाए। कैसे, इसे जानने से पहले, इस बात का उल्लेख कर लेना उचित होगा कि डोकलाम गतिरोध खत्म होने के कुछ महीनों के अंदर ही चीन ने वह निर्माण कार्य पूरा कर लिया था, जिसे रोकने के लिए भारतीय सेना वहां गई थी। साथ ही उसने वहां तीन हैलीपैड भी बना लिए।

मतलब यह कि चीन ने भारत को फेस सेविंग (प्रतिष्ठा बचाने) का एक रास्ता देने के लिए अपनी फौज को पहले पीछे हटाने का फैसला किया था। और जब भारतीय सेना वहां से हट गई, तो उसने दोबारा निर्माण कार्य शुरू कर दिया। कुछ मीडिया टिप्पणियों में इसे चीन का धोखा बताया गया। लेकिन यह अब तक रहस्य है कि भारत सरकार ने फिर से चीनी निर्माण को रोकने की कोशिश क्यों नहीं की?

उधर इन सारी घटनाओं के कुछ समय बाद ही यह खबर भी आने लगी कि भूटान ने चीन के साथ अपना सीमा विवाद हल करने के लिए बातचीत शुरू कर दी है। इस मकसद से दोनों देशों के बीच कई दौर की वार्ताएं हुईं। अब भूटान के प्रधानमंत्री लोताय त्सेरिंग ने भारत के एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में यह कहा है कि सीमा वार्ता अपने आखिरी दौर में है– यहां तक कि अगले महीने यानी नवंबर तक इसके तहत सीमांकन (सीमा को आधिकारिक रूप से तय करने) का समझौता हो सकता है। त्सेरिंग ने बतायाः

  • चीन के साथ सीमा समझौते के तहत दोनों देशों के बीच कुछ इलाकों की अदला-बदली भी हो सकती है।
  • एक सवाल पर उन्होंने संकेत दिया कि भूटान डोकलाम क्षेत्र को चीन को देने पर सहमत हो सकता है।
  • त्सेरिंग से जब चीन से चल रही वार्ता के बारे में भारत को भरोसे में लेने संबंधी सवाल पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि उनका देश किसी समस्या का हल इस तरह नहीं निकालना चाहता, जिससे एक दूसरा मसला खड़ा हो जाए। लेकिन इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि दोनों बड़े पड़ोसी देशों के साथ भूटान के ऐसे रिश्ते हैं, जो समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं।

इस टिप्पणी के साथ त्सेरिंग ने भारत और चीन दोनों के साथ भूटान रिश्ते को समान धरातल पर बता दिया। साफ है, 1949 की संधि के अनुरूप अब भूटान के विदेश संबंध भारत से निर्देशित नहीं हो रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि भूटान अब खुद को भारत के प्रभाव क्षेत्र में नहीं मानता है।

  • त्सेरिंग की अगली टिप्पणी भूटान के वर्तमान दृष्टिकोण और भी ज्यादा स्पष्ट करने वाली है। उनसे पूछा गया कि क्या भूटान अपनी विदेश नीति में परिवर्तन ला रहा है, तो उन्होंने कहा कि हर देश को गतिशील विदेश नीति अपनानी चाहिए, जिसे वह अपने हितों के मुताबिक एडजस्ट करता रहे। जाहिर है, अब भूटान चीन के साथ अपने संबंध को अपने हितों के मुताबिक उस समय समायोजित कर रहा है, जब भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक होड़ तेज होती जा रही है।

कुछ मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि सीमा समझौता होने के बाद भूटान चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में शामिल हो सकता है। अगर ऐसा हुआ, तो दक्षिण एशिया में भारत अकेला देश बचेगा, जो इस परियोजना का हिस्सा नहीं होगा। पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव आदि पहले से बीआरआई को अपना चुके हैं। अफगानिस्तान भी जल्द ही इसका औपचारिक हिस्सा बनने वाला है।

भारत को बीआरआई से एक आपत्ति यह है कि इसकी एक प्रमुख परियोजना चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर से गुजरती है। इस रूप में इसके जरिए भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन किया गया है। भारत में इस परियोजना को लेकर दूसरा एतराज यह है कि इसके जरिए चीन दुनिया में अपना ‘वर्चस्व और प्रभाव बढ़ा’ रहा है।

इस पृष्ठभूमि के कारण यह निर्विवाद है कि भूटान का स्वतंत्र रूप से फैसला लेते हुए चीन से सीधा रिश्ता बनाना- और उसी के साथ चीन से सीमा विवाद हल कर लेना- भारतीय विदेश नीति और कूटनीति के लिए एक झटका माना जाएगा। जाहिरा तौर पर यह सवाल उठेगा कि आखिर नरेंद्र मोदी सरकार की ‘मर्दाना’ विदेश नीति से भारत को क्या हासिल हो रहा है?

हकीकत यह है कि अगर विदेश नीति संबंधी या कूटनीतिक सफलता की कसौटी पर परखें, तो आज भारत अभूतपूर्व रूप से नुकसान की स्थिति में नजर आता है। इस नीति के कुछ परिणामों पर गौर करें-

  • पाकिस्तान के साथ सारे संवाद टूट गए हैं, लेकिन उससे पाकिस्तान भारत के किसी दबाव में आया हो, इसके कोई संकेत नहीं हैं।
  • पाकिस्तान को सख्त पैगाम देने के लिए “घर में घुस कर मारने” की जो नीति अपनाई गई, उसके उसके परिणामस्वरूप यह संदेश गया कि भारत अब अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को ना लांघने के कायदे को नहीं मानता। इसके कुछ अप्रत्याशित नतीजे हुए।
  • धारा 370 खत्म करने के साथ भारत सरकार ने देश का नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया। उसके बाद चीन और पाकिस्तान के आपसी सैनिक गठजोड़ में नई गति आई।
  • ऐसे विशेषज्ञों की राय है कि जहां तक भारत का सवाल है, अब चीन और पाकिस्तान ने एक साझा मोर्चा बना लिया है। इसलिए युद्ध की स्थिति में भारत को इन दोनों देशों का एक साथ मुकाबला करना पड़ सकता है।
  • उधर नए नक्शे की प्रतिक्रिया में नेपाल ने भी अपना नक्शा जारी किया, जिसमें कई भारतीय क्षेत्रों पर उसने अपना दावा जता दिया। नेपाल से संबंधों में आए तनाव का नतीजा वहां चीन का प्रभाव बढ़ने के रूप में सामने आया है।
  • मालदीव में हाल में हुए चुनाव में भारत विरोधी उम्मीदवार मोहम्मद मोइज्जू की जीत हुई है। उन्होंने वहां मौजूद भारतीय वायु सेना कर्मियों की मौजूदगी को मालदीव की संप्रभुता का उल्लंघन बताते हुए इसे चुनावी मुद्दा बनाया था। जीतने के बाद भी उन्होंने कहा है कि वे वहां से भारतीय सैनिकों की वापसी सुनिश्चित कराएंगे।

यह तो पास-पड़ोस का हाल है। इन सारे घटनाक्रमों के बीच भारत ने अमेरिकी धुरी के साथ निकटता बढ़ाने को प्राथमिकता दी। इसमें उसे काफी सफलता भी मिली। इस समय अमेरिका की सर्वोच्च प्राथमिकता चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना है। इसलिए भारत के साथ रणनीतिक संबंध मजबूत करना भी उसकी प्राथमिकता रहा है। मगर खालिस्तानी कार्यकर्ता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में कनाडा से संबंध बिगड़ने के साथ ही अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ भी भारत के रिश्ते तनावपूर्ण होते नजर आ रहे हैं। इस तरह नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति संबंधी एकमात्र सफलता के लिए भी चुनौती खड़ी हो गई है। अगर ध्यान से देखा जाए, तो यह परिणाम भी ‘मर्दाना’ विदेश नीति का ही है।

जाहिर है, ‘मर्दाना’ और ‘लेन-देन पर आधारित अपने फायदे’ की मोदी सरकार की कथित विदेश नीति के तार अब हर ओर से बिखर रहे हैं। इसका स्पष्ट कारण यह है कि ऐसी नीति का यही परिणाम हो सकता है। दरअसल, इन दो शब्दों के आवरण में मोदी सरकार की असल विदेश नीति के दो असली पहलू छिपे रहे हैं।

इनमें एक हैः घरेलू समर्थक वर्ग में महाशक्ति (विश्व गुरु) बन जाने की झूठी धारणा बनाना। इससे जुड़ा एक तत्व सरकार समर्थक वर्ग में मौजूद मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह भी है, जिन्हें पुष्ट करते हुए सरकार आगे बढ़ी है।

इस नीति का दूसरा पहलू कुछ गिने-चुने कॉरपोरेट घरानों को विदेशों में ठेके दिलवा कर उन्हें अधिकतम लाभ पहुंचाना रहा है।

कहा जा सकता है कि इन दोनों बिंदुओं पर मोदी सरकार की नीति काफी हद तक सफल रही है। बीते साढ़े नौ साल में मोदी सरकार विदेश में देश की इज्जत बढ़ने की अयथार्थ धारणा अपने समर्थक में बनाए रखने में कामयाब रही है। उधर अपने निकटस्थ कॉरपोरेट घरानों को कारोबार दिलवाने में भी उसे काफी सफलता मिली है। लेकिन इसकी कीमत देश के दूरगामी हितों को चुकानी पड़ रही है।

इस बात की ताजा मिसाल इजराइल पर हमास के हमलों के बाद सरकार का सामने आया रुख है। प्रधानमंत्री ने खुद इन्हें आतंकवादी हमला बताया और ऐलान किया कि भारत इस मौके पर पूरी तरह इजराइल के साथ खड़ा है। इस तरह एक झटके में फिलस्तीन-इजराइल विवाद संबंधी भारत की परंपरागत नीति को सिर के बल खड़ा कर दिया गया। इस रुख में उपरोक्त दोनों तत्वों (‘मर्दाना’ और ‘लेन-देन पर आधारित अपने फायदे’) की भूमिका साफ देखी जा सकती है। जबकि यह ठोस अनुमान लगाया जा सकता है कि इस रुख के भी भारत को दीर्घकालिक क्षति होगी।

आज देश में माहौल ऐसा है कि मोदी सरकार की इन नीतियों को किसी पक्ष से चुनौती नहीं मिल रही है। लेकिन देर-सबेर लोग इस बात को समझेंगे कि जिस दौर में भूटान भी भारत के प्रभाव क्षेत्र से निकल गया, उस दौर में देश को कुल हासिल क्या हुआ।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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