नये वन संरक्षण अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती

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पर्यावरण को हो रहे नुकसान का खामियाजा अब रोजमर्रा की जिंदगी पर भी पड़ने लगा है। सामान्य से अधिक बारिश, सूखा, गर्मी अब एक चर्चा का विषय बन रही है। इन सबका सीधा असर खेती पर पड़ रहा है। हम एक ओर हिमाचल और उत्तराखंड में बारिश की तबाही का नजारा देखते हैं तो वहीं मैदानी इलाकों में पानी के इंतजार में किसानों को सूखते खेतों के साथ जूझना पड़ता है। पहाड़ की बर्फ पिघलने से जल जमाव और थोड़ी सी बारिश से भी भूस्खलन और बाढ़ की विभीषिका को हम सिक्किम और अन्य पहाड़ी राज्यों में देख रहे हैं।

इन विभीषिकाओं का सीधा असर आम लोगों की आय पर तो पड़ ही रहा है, राज्य के राजस्व पर भी पड़ रहा है। इस संदर्भ में सरकार को जिस तरह की नीतियों को अपनाना चाहिए था, पिछले दशकों में उसका ठीक उलटा हुआ है। खासकर, ऐसी नीतियां जो कहने के लिए तो पर्यावरण को संरक्षित करने के नाम पर होती हैं, लेकिन वस्तुतः वे पर्यावरण पर सीधा आघात करने वाली होती हैं।

खासकर, समय-समय पर जंगल संरक्षण से जुड़े अध्यादेश और अधिनियमों के परिणाम को देखा जा सकता है। अभी हाल ही में संसद में हंगामों के बीच एक के बाद एक अध्यादेश और अधिनियम पारित हुए। पर्याप्त बहस हुए बिना भी कई प्रावधान संसद से पारित हो गये। इसमें से वन संरक्षण संशोधन बिल-2023 और जैव विविधता संशोधन बिल-2023 भी इसी श्रेणी में आते हैं। खासकर, वन संरक्षण संशोधन बिल में कई ऐसे प्रावधान थे, जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और राज्यों के अधिकारों का सीधा उल्लंघन कर रहे थे।

कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में वन संरक्षण संशोधन अधिनियम-2023 को माननीय न्यायाधीश बीआर गवई, अरविंद कुमार और प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच के सामने 20 अक्टूबर, 2023 को रखा। और, यह स्वीकृत हो गया। इस संदर्भ में माननीय बेंच ने केंद्र सरकार को जबाब देने के लिए आदेश भी जारी कर दिया।

‘बार एण्ड बेंच’ में छपी रिपोर्ट का उद्धृत अंश इस प्रकार हैः ‘‘2023 संशोधन अधिनियम देश के पर्यावरण, वातावरण और खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा है और साथ ही साथ यह स्थानीय समुदायों की जिंदगी और जीविका के लिए भी खतरा है। यह केंद्र सरकार को जंगल की जमीन का प्रयोग बेलगाम निर्णय का अधिकार दे देता है और इन जमीनों के नियमन को नजरअंदाज कर देता है। यह विविध संवैधानिक प्रावधानों में हस्तक्षेप करता है और भारतीय पर्यावरण के कानूनों से संबंधित प्रावधानों का उल्लंघन करता है। इन सबको चुनौती देने वाले 2023 संशोधन अधिनियम को इसकी संपूर्णता के साथ रद्द कर दिया जाये।’’

इस चुनौती देने वाली याचिका में कहा गया है कि यह अधिनियम उपयुक्त संसदीय प्रक्रिया और संवैधानिक प्रक्रिया का भी उल्लंघन करती है। उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसारः ‘‘बिल में जो कहा गया था उसके मद्देनजर 1309 मेमोरेंडम स्वीकार किया गया था। लेकिन, कमेटी ने बिल को पास करते समय इन आलोचनाओं को ध्यान में नहीं रखा। इसने वैज्ञानिकों, जंगल के अधिकारियों, संरक्षणवादियों, आदिवासी समितियों, सेवानिवृत्त अधिकारियों और अन्य विशेषज्ञों के ईमानदार चिंताओं को दरकिनार कर दिया। सरकार ने बिल को संसद में इन बातों और व्यापक असहमतियों के बावजूद पारित कर दिया।’’

जिस समय संसद में यह बिल पास किया जा रहा था, उस समय और बाद में भी कई सारे महत्वपूर्ण सवाल उठाये गये। उस समय ‘जनचौक’ पर भी कई लेख प्रकाशित हुए। इसके कई प्रावधान सीधे ‘जंगल’ की परिभाषा को लेकर ही था। जंगलों के विकास के नाम पर निजी कंपनियों की घुसपैठ बढ़ाने के लिए जंगल की परिभाषा को ही बदल दिया गया। खासकर, पेड़ लगाने और काटने, जंगल क्षेत्र की परिभाषा से संबंधित प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय में 1966 के आदेश में दिया में था।

नया अधिनियम निजी कार्य हेतु जंगल लगाने और कटाई का हक प्रदान कर रहा था और साथ ही सरकार जंगलों के विकास हेतु निजी कंपनियों को आमंत्रित करने का भी हक दे रहा था। ये विकास कार्यों के लिए अधिग्रहण से इतर अधिकार स्वीकृत हो रहे थे। इसमें केंद्र सरकार की भूमिका पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई थी।

इसमें एक महत्वपूर्ण बदलाव अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटे 100 किमी अंदर तक के जंगलों को पुराने संरक्षण प्रावधानों से बाहर कर दिया गया था और इसमें गैर जंगल के उद्देश्यों वाले कामों को छूट दी गई थी। इस प्रावधान में भी केंद्र सरकार के निर्णय की क्षमता बढ़ गई है। यदि हम पहाड़ और पूर्वोत्तर के राज्यों को देखें, तब वहां 100 किमी का यह दायरा कई राज्यों को अपने इन प्रावधानों में समा लेता है। यह न सिर्फ राज्य के अधिकारों और जनजातियों के जंगल पर अधिकार के नियमों का उल्लंघन है, यह सुरक्षा कारणों से भी घातक परिणाम दे सकता है। जिस समय संसद में यह बिल पास हो रहा था, उस समय इस प्रावधान पर कई सवाल उठाये गये थे।

पिछले कुछ सालों से संसद में जिस तरह से बिल, अध्यादेश, कानून, अधिनियम आदि पारित हुए हैं, वे बेहद चिंतनीय हैं। यह एक आम राय है कि उपयुक्त प्रावधानों को पारित करते समय न तो ठीक से संसदीय प्रक्रिया का पालन होता है और न ही नागरिक संगठनों, व्यक्तियों, विशेषज्ञों की कोई खास राय ली जाती है।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने भी इस तरह से बिना बहस पास किये जा रहे प्रावधानों को लेकर चिंता व्यक्त किया था और संसद में उपयुक्त बहस की प्रक्रिया को अपनाने का आग्रह किया था। अब देखना है कि जब इसी तरह का मसला सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया है, किस तरह का निर्णय सामने आयेगा। उम्मीद है, पर्यावरण, जीविका और जिंदगी के संरक्षण वाले उपायों पर सर्वोच्च न्यायालय तरजीह देगा और जल्दबाजी में पास किये गये प्रावधान पर बेहतर राय देगा।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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