यह तो हैरान करने वाला रवैया है सुप्रीम कोर्ट का

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पिछले कई दिनों से न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवाल यूं ही नहीं उठ रहे हैं। न्यायपालिका का एक बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा खुद ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील मसलों पर अपने चलताऊ रवैये से अपनी भूमिका पर लोगों को सवाल उठाने का मौका दे रहा है। इस सिलसिले में ताजा मिसाल है लखनऊ की सड़कों पर कथित उपद्रवियों के लगे पोस्टरों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का टालमटोल वाला रवैया। 

इलाहाबाद हाई कोर्ट के बाद अब आज सुप्रीम कोर्ट ने भी यह तो मान लिया है कि अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत हिंसा और उपद्रव के कथित आरोपियों की तस्वीरें उनके नाम-पते सहित सड़कों और चौराहों पर लगाई जाए। लेकिन उसके ऐसा मानने के बावजूद उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सड़कों पर इस तरह के पोस्टर-होर्डिंग्स फिलहाल कुछ दिन तक तो लगे ही रहेंगे। इसकी वजह यह है कि आज सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय अवकाश कालीन पीठ ने सुनवाई के बाद इस मामले को बड़ी पीठ को सौंपने की सिफारिश करते हुए प्रधान न्यायाधीश के हवाले कर दिया। अब प्रधान न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई के लिए तीन जजों की पीठ मुकर्रर करेंगे जो अगले सप्ताह सुनवाई करेगी। 

यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने इस सिलसिले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर रोक नहीं लगाई है। लेकिन सवाल है कि जब सुनवाई कर रही पीठ के दोनों जजों ने एकमत से राज्य सरकार की कार्रवाई को पूरी तरह गैर कानूनी मान लिया है तो फिर उसे बड़ी पीठ को सौंपे जाने का क्या औचित्य है? सवाल यह भी है कि जब इस मामले की सुनवाई तीन जजों वाली बड़ी पीठ से ही करानी थी तो फिर इसे दो जजों की पीठ को क्यों सौंपा गया? जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट का यह रुख मामले को किसी न किसी तरह लंबा खींचने वाला है, यह जानते हुए भी कि राज्य सरकार की यह कार्रवाई उपद्रवियों के एक वर्ग को उकसाने वाली है और इससे उन लोगों की जान को खतरा हो सकता है, जिनकी तस्वीरों के पोस्टर लखनऊ की सड़कों पर लगाए गए हैं। 

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ आंदोलन में शामिल जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हिंसा भड़काने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में जुर्माना लगाया था और जुर्माने की वसूली के लिए उनके पोस्टर-होर्डिंग्स नाम-पते सहित लखनऊ की सड़कों पर पर लगाए गए हैं। राज्य सरकार के आदेश पर लगाए गए इन आपत्तिजनक पोस्टर-होर्डिंग्स का इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया था। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य सरकार से जवाब तलब किया था। 

इस सिलसिले में राज्य सरकार की ओर से दी गई तमाम दलीलों को खारिज करते हुए हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को इन होर्डिंग्स को हटाने का आदेश दिया था। राज्य सरकार ने हाई कोर्ट के इस आदेश को मानने से इनकार करते हुए उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट में भी राज्य सरकार की ओर से वही दलीलें दी गईं जिन्हें हाई कोर्ट खारिज कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने भी उन दलीलों को नहीं माना। राज्य सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ऐसे किसी कानून का हवाला भी नहीं दे पाए जिसके तहत राज्य सरकार ने ये होर्डिंग्स लगाए हैं। जिन जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं की तस्वीरों के होर्डिंग्स लगाए गए हैं, उनके वकील अभिषेक मनु सिंघवी की दलीलों से भी सुप्रीम कोर्ट ने सहमति जताई।

जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट ने मामला बिल्कुल साफ होने और होर्डिंग्स लगाने की कार्रवाई को गैर कानूनी मानने के बावजूद कोई फैसला न देते हुए मामले को तीन सदस्यों वाली पीठ को सौंपने की सिफारिश कर मामले को टाल दिया। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री शाह का कुछ महीने पहले दिया गया वह बयान याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अदालतें फैसले ऐसे दें जिन पर कि सरकारें खुद भी अमल कर सकें और लोगों से भी अमल करा सकें। लगता है कि अदालतें अब गृह मंत्री की नसीहत को ध्यान में रखकर ही कर काम कर रही हैं और देश का लोकतंत्र अदालतों की दहलीज पर सिसक रहा है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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