कांग्रेस में सर्जरी की ज़रूरत है!

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विपक्ष के महागठबंधन ‘इंडिया’ की चौथी बैठक अंततः अगले सप्ताह 19 दिसंबर को दिल्ली में होने जा रही है। उत्तर भारत के तीन हिंदी प्रदेशों (राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अप्रत्याशित करारी हार और दक्षिण भारत के तेलंगाना में ज़बरदस्त जीत की पृष्ठभूमि के साथ 28 दलों के गठबंधन की अग्रज कांग्रेस पार्टी इस बैठक में शरीक होगी। ज़ाहिर है, उसकी ‘बारगैनिंग पावर’ या लेन-देन की शक्ति अब पूर्ण सेनापति के समान नहीं रहेगी। वह एक घायल सेनापति के नाते विपक्ष की पंगत में बैठेगी, जिसमें ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव जैसे नेता भी रहेंगे और अपनी खरीद-फ़रोख़्त ताक़त का प्रदर्शन करने से चूकेंगे भी नहीं। राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही कोई हमेशा दुश्मन रहता है। इसलिए, अगले वर्ष लोकसभा के चुनावों के मद्देनज़र सभी अपने पासे फेंकेंगे।

अब सवाल है कि कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे का रोल क्या रहेगा? ज़ाहिर है वह अकेले नहीं होंगे। उनके साथ राहुल गांधी, सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी भी रहेंगे। बैठक शुरू होने से पहले क्या कांग्रेस का नेतृत्व ईमानदारी के साथ अभी तक आत्ममंथन कर सका है या करेगा? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि तीनों प्रदेश के क्षत्रपों-कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलौत, सचिन पायलट और भूपेश बघेल ने’ पराजय की आत्मस्वीकृति’ के कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं।

प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री बघेल और पूर्व मुख्यमंत्री गहलौत को हार की घोषणा के साथ ही नैतिकता के आधार पर हार की ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए थी और पदों से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था। आलाकमान को भी चाहिए था कि वे निर्णयात्मक कदम उठाता। हालांकि उसने कमलनाथ को संकेत ज़रूर दे दिए थे। लेकिन, इस लेख को लिखते समय तक उन्होंने पालन नहीं किया। यह हैरान करने वाली बात है। वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री चिदम्बरम ने अपने लेख में लिख दिया था कि कांग्रेस नेतृत्व को चाहिए कि वह इस हार को गंभीरता से ले। यदि वह नहीं लेती है तो यह गंभीर चिंता का विषय होगा।

वास्तव में कांग्रेस को चाहिए कि वह अपनी सर्जरी करे। चीरा फ़ाड़ी के ज़रिये अपने ऐसे अंगों को निकाल बाहर करे जो सड़ चुके है। कांग्रेस को इस सदी में सेहतमंद रखने के लिए अपना कायाकल्प करना पड़ेगा। इस दृष्टि से इंदिरा गांधी की कांग्रेस-सर्जरी से मौज़ूदा नेतृत्व काफी कुछ सीख सकता हैं। छठे दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के दौर की चुनौती का सामना करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की चीरा-फाड़ी कर डाली थी। दुस्साहसिकतापूर्ण कदम उठाते हुए अपनी पार्टी का विभाजन कर डाला और 1969 में मुंबई में विशाल कांग्रेस अधिवेशन हुआ था। इस लेखक ने उसे कवर किया था।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का कायाकल्प भी हुआ और 1971 के चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा गुंजित करके अपनी नई कांग्रेस को करीब 350 सीटें भी दिलाई थी। उत्तर नेहरू कांग्रेस की यह सबसे बड़ी ऐतिहासिक जीत थी। 1980 में इंदिरा गांधी की पुनर्वापसी के समय भी कांग्रेस को 350 से अधिक सीटें मिली थीं। हिंदुत्व का अस्त्र-शस्त्र चलाने के बावजूद मोदी-शाह जोड़ी अपनी पार्टी को 302 से अधिक सीटें नहीं दिला सकी है।

इंदिरा-शैली के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस संगठन में ‘आंतरिक सर्जिकल स्ट्राइक’ करना अब बेहद लाज़मी हो गया है। कांग्रेस को चाहिए कि वह हिंदी भारत के ईथोस को समझे। नई समझदारी के आधार पर नये नैरेटिव गढ़े। क्योंकि चुनाव रणभूमि में उसका सामना किसी सामान्य दुश्मन से नहीं है। विरोधी सेना का सेनापति ऐसा है जो युद्ध के परंपरागत नियमों-मर्यादाओं से ऊपर या मुक्त स्वयं को मानता है। यह सेनापति येन-केन-प्रकारेण अपने नेतृत्व व पार्टी की ‘विजयश्री’ चाहता है। इसके लिए उसे कितना भी नीचे या ऊपर जाना पड़े, इससे वह बेपरवाह है।

इस चरम उपभोक्तावादी, महत्वाकांक्षी, आत्मनिष्ठ और मूल्यहीन वातावरण में निर्मित मतदाता-समाज के साथ कैसे गहराई के साथ ‘कनेक्ट’ किया जा सकता है, कांग्रेस को इसे सीखने की ज़रुरत है। इस मामले में कांग्रेस नेतृत्व अपने मुख्य विरोधी से बहुत कुछ सीख सकता है। उसे अपनी मंथर रफ़्तार को त्यागना होगा। उसे बुलेटगति से फैसले लेने की ज़रुरत है। आज भी कांग्रेस एक मदमस्त हाथी के समान व्यवहार करती है। यह अब चलने वाला नहीं है। बगैर हार-जीत की चिंता के, उसे हारे-थके-दृष्टिहीन नेताओं को ‘अलविदा’ करना होगा। गांधी परिवार के त्रिसदस्यों को भी आत्ममंथन की बेहद ज़रुरत है। उन्हें आत्मविश्लेषण से पलायन नहीं करना चाहिए।

राहुल गांधी के इस विचार से लेखक की सहमति है कि मौजूदा लड़ाई ‘विचारधारा की लड़ाई’ है। पर क्या इस लड़ाई के लिए आपके पास नई सेना है? क्या ऐसे सैनिक हैं जो अपने को परवान चढ़ा दें। भाजपा के नेता आंतरिक विरोध को जताने के बाद वे नेतृत्व के सामने शरणागत हो जाते हैं; इसके उदाहरण हैं शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे, रमन सिंह, देवेंद्र फडणवीस जैसे पूर्व मुख्यमंत्री। क्या कांग्रेसी नेता ऐसा कर सकते हैं। वे सत्ता की मृगतृष्णा से अंतिम सांस तक चिपके रहना चाहते हैं। यह शैली अब काम नहीं करेगी। इससे मुक्ति की ज़रूरत है।

19 नवंबर की बैठक में कांग्रेस को ‘व्यावहारिक उदारता’ दिखानी होगी। चुनावों के दौरान अखिलेश के प्रति दिखाई गई कमलनाथ की हेंकड़ी से काम नहीं चलेगा। लोकसभा के चुनावों में मतों का नितांत विभाजन न रहे, इसकी रणनीति को विकसित करने की आवश्यकता है। क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाओं को एडजस्ट करना होगा। इस दृष्टि से, 2004 की यूपीए रणनीति से कुछ सीखने की ज़रुरत है। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक दशक तक शासन (2004-2014) रहा था। कैसे तबका गठबंधन चला, इसे भी जानना चाहिए। गठबंधन के गैर-कांग्रेसी घटक भी व्यवहारिक समझदारी का परिचय दें। कांग्रेस को लतियाने-गरियाने- निचोड़ने से भी काम चलनेवाला नहीं है। उसका अखिल भारतीय अस्तित्व है जबकि समाजवादी पार्टी, आप, तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों की अपनी सीमायें हैं। इन सीमाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

केरल में सीपीएम और कांग्रेस से साझी संवेदनशील रणनीति अपेक्षित हैं। पश्चिम बंगाल में भी प्रमुख दल-तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और वामदलों से भी ईमानदाराना चुनावी तालमेल होने के बाद ही भाजपा को हराया जा सकता है। आज भी देश में इंडिया का साझा वोट भाजपा से अधिक है। दक्षिण राज्यों में उसकी मौजूदगी प्रभावशाली नहीं है। मोदी-शाह जोड़ी का ज़ादू वहां नहीं चलेगा। इसलिए 26 -28 घटक साझा उम्मीदवार को चिन्हित करें और उन्हें सम्बंधित निर्वाचन क्षेत्रों में भेज दें।

याद रखें, प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावों की दुंदुभि बजा दी है और अपने नेताओं को निर्देश दे दिया हैं कि वे चुनाव क्षेत्रों का दौरा शुरू कर दें। बेशक भाजपा के पास अकूत संसाधन हैं। संघ और सरकार के यंत्र-तंत्र अलग से हैं। इन सबको ध्यान में रख कर आगामी बैठक में फैसले लिए जाने चाहिए। भाजपा समर्थकों की दलील रहती है कि प्रधानमन्त्री मोदी का विकल्प विपक्ष के पास नहीं है। इसका माकूल ज़वाब दिया जाना चाहिए।

सामूहिक नेतृत्व के साथ-साथ एक-दो चेहरे सामने रखे जाने चाहिए जिनकी अखिल भारतीय पहचान रहे और उत्तर-दक्षिण में उनकी छवि स्वीकृत रहे। निश्चित ही, यह गैर-सवर्ण राजनीति का युग है। अतः इस फैक्टर को भी ध्यान में रखना होगा। इस समय ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के मामले में भाजपा ने ज़बरदस्त चुनावी रसायन तैयार कर लिया है। इसकी तोड़ क्या हो सकती है, इस पर भी विचार ज़रूरी है। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है ‘बूथ प्रबधन’। प्रबंधन के बेजोड़ खिलाड़ी हैं भाजपा के गृहमंत्री अमित शाह। क्या इंडिया के घटकों के पास इसका कोई ज़वाब है? बैठक में इस मुद्दे पर भी विचार करना होगा।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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