उत्तराखंड: क्या संकेत देता है सड़कों पर उतरा जनसैलाब

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उत्तराखंड एक बार फिर आंदोलन की राह पर है। 1994 के अलग राज्य आंदोलन के बाद एक बार फिर 24 दिसम्बर को देहरादून की सड़कों पर जनसैलाब उतर आया। इस बार मांग राज्य की जमीनें बचाने के लिए भूकानून बनाने और मूल निवास की थी। हालांकि मूल निवास को लेकर कई सवाल भी उठाये जा रहे हैं, इसके बावजूद इस रैली को लेकर लोगों में जबरदस्त जुनून था। राज्यभर से लोग इस रैली में शामिल होने के लिए आये थे। 1994 की तरह ही इस बार भी रैली में हर वर्ग के लोग उतरे। इनमें विपक्षी पार्टियां भी शामिल थी तो जन संगठन भी। जन मुद्दों को लेकर अक्सर सड़कों पर उतरने वाले लोग भी थे तो राज्य के सुपरिचित कलाकार भी और बुद्धिजीवी वर्ग भी।

देहरादून में इस रैली की कॉल युवाओं के एक संगठन ने दिया था। बाद में उत्तराखंड के प्रसिद्ध गीतकार और लोक गायक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने इस रैली में हिस्सा लेने के अपील जारी कर दी। इसके साथ ही सुपरिचित उप्रेती गायिका बहनों ने भी अपील जारी की तो राज्य के दोनों मंडलों गढ़वाल और कुमाऊं में रैली को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई। उत्तराखंड क्रांति दल और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी ने रैली को समर्थन जारी कर दिया। कांग्रेस ने ऐसा कोई समर्थन तो जारी नहीं किया, लेकिन कांग्रेस के लोग रैली में शामिल हुए।

रैली को लेकर राज्य की तीनों वामपंथी पार्टियों की ओर से भी संयुक्त बयान जारी किया गया। बयान में कहा गया कि किसी भी क्षेत्र के संसाधनों और वहां की नौकरियों पर मूल निवासियों का पहला हक होना चाहिए। लेकिन, इस मांग को अंध क्षेत्रवाद और बाहरी-भीतरी के विवाद से दूर रखना चाहिए। वामपंथी पार्टियों ने पार्टी स्तर पर रैली में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन इस पार्टियों के विभिन्न संगठनों के लोग रैली में शामिल हुए।

इस रैली की पहली मांग थी मूल निवास के 1950 के प्रावधान लागू करना। दरअसल राज्य गठन के जाति प्रमाण पत्र बनाने में आ रही दिक्कतों को लेकर हाईकोर्ट में कुछ याचिकाएं दायर की गई थीं। इस तरह की सभी याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करने के बाद हाई कोर्ट के तत्कालीन जज सुधांशु धूलिया की एकल पीठ ने 17 सितंबर 2012 को एक फैसला सुनाया और कहा कि वह व्यक्ति उत्तराखंड का मूल निवासी माना जाएगा, जो राज्य गठन की तिथि, यानी 9 नवंबर 2000 को राज्य का स्थाई निवासी था।

राज्य की तत्कालीन सरकार ने इस फैसले को ज्यों का त्यों लागू भी कर दिया। इससे पहाड़ के लोग भड़क गये। एक तरह से उसी समय से मूल निवास का विवाद शुरू हो गया था। बाद में मामले पर हाई कोर्ट की डबल बैंच में सुनवाई हुई और 25 मई 2013 को मूल निवास की कट ऑफ डेट 9 नवंबर 2000 की जगह 1985 कर दी गई।

उम्मीद की जा रही थी कि राज्य सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी और मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 करने की मांग करेगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने ये फैसला मान लिया। राज्य आंदोलनकारी रविन्द्र जुगरान ने सितंबर 2013 में हाई कोर्ट के इस फैसले को व्यक्तिगत रूप से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 3 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी। नतीजा यह हुआ कि मूल निवास की लड़ाई आज भी सड़कों पर लड़ी जा रही है। उत्तराखंड के लोगों का तर्क है कि जब पूरे देश में मूल निवास की कट ऑफ डेट 1950 है और इस राज्य के साथ बने झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी यही व्यवस्था है तो उत्तराखंड में यह व्यवस्था क्यों बदली गई।

दूसरी मांग इस पर्वतीय राज्य के लिए हिमाचल प्रदेश जैसा भूकानून बनाने की है। दरअसल राज्य के भूकानून में 2018 में किये गये बदलाव के बाद से पहाड़ों की जमीन भारी मात्रा में धन्नासेठ खरीद रहे हैं। इससे पहाड़ के लोग नाराज हैं। दरअसल जब उत्तराखंड राज्य की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो इस राज्य को पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह अनुच्छेद 371 के तहत विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग भी थी। ऐसा नहीं किया गया। लेकिन 2003 में नारायण दत्त तिवारी और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी सरकारों ने उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड) जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में संशोधन कर यहां की जमीनें बचाने का प्रयास किया था।  

एनडी तिवारी सरकार ने इस कानून में संशोधन कर व्यवस्था की थी कि जो व्यक्ति राज्य में जमीन का खातेदार न हो, वह 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के जमीन खरीद सकता है। इस सीमा से अधिक जमीन खरीदने पर राज्य सरकार से अनुमति लेनी होगी। 2007 में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी सरकार ने 500 वर्ग मीटर की सीमा घटा कर 250 वर्गमीटर कर दी थी। साफ था कि जो लोग इस पर्वतीय राज्य के मूल निवासी नहीं हैं, वे भारतीय संविधान की व्यवस्था के अनुसार आवास के लिए जमीन खरीद सकते हैं। मूल निवासियों को 12 एकड़ तक कृषि भूमि खरीदने की छूट थी। इस कानून को पहले नैनीताल हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन दोनों अदालतों से इसे संवैधानिक घोषित कर दिया।

वर्ष 2018 में उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 7 और 8 अक्टूबर को देहरादून में इंवेस्टर्स मीट आयोजित की। इस मीट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए और बड़ी संख्या में उद्योगपति भी। राज्य सरकार उद्योगपतियों को राज्य में निवेश करने के लिए आमंत्रित कर रही थी, लेकिन जमीन के लिए भूकानून आड़े आ रहा था। इससे पहले नगर निकायों की सीमा में विस्तार करके हजारों एकड़ भूमि को भूकानून के दायरे से मुक्त कर दिया गया था। दरअसल यह कानून नगर निकाय क्षेत्रों में लागू नहीं होता था।

इसके बाद भी बात नहीं बनी तो उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर इस कानून में धारा 154 (2) जोड़ दी और पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा ही खत्म कर दी। यानी कि पूरे उत्तराखंड में असीमित जमीन खरीदने का रास्ता साफ कर दिया गया गया। इसी के साथ धारा 143 (क) जोड़कर खेती के जमीन का भूउपयोग बदलने की बाध्यता भी खत्म कर दी।  यानी कि अब कोई भी उद्योगपति उत्तराखंड में असीमित खेती की जमीन खरीद सकता है और उसका मनमाना उपयोग कर सकता है। पहले इसमें प्रावधान किया गया था कि जिस उपयोग के लिए जमीन खरीदी गई है, यदि 5 साल के भीतर उसका उपयोग उसी काम के लिए नहीं किया जाता तो सरकार जमीन जब्त कर लेगी। लेकिन, अब वह प्रावधान भी हटा दिया गया है। अब जरूरी नहीं कि जिस उपयोग के लिए जमीन खरीदी गई है, खरीदने वाला उसका वही उपयोग करे।

भूकानून में हुए बदलाव के बाद पहाड़ के लोग लगातार महसूस करते रहे हैं कि राज्य में जमीनों की बिक्री बढ़ी है और दूर-दराज गांवों तक में रिजॉर्ट बन गये हैं। स्थानीय लोगों में रिजॉर्ट संस्कृति को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। खासकर एक रिजॉर्ट में हुए अंकिता हत्याकांड के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में इन रिजॉर्ट को बंद करने की मांग गाहे-बगाहे उठती रही है और लोग इस बात को महसूस करने लगे हैं कि यदि राज्य में 2018 से पहले जैसा भूकानून होता तो हर नदी के किनारे और हर पहाड़ पर इतनी बड़ी तादाद में रिजॉर्ट नहीं खुलते। देहरादून की रैली में जुटी हजारों की भीड़ इसी का नतीजा थी।

राज्य के सत्तारूढ़ भाजपा ने इस रैली के असर को कम करने के लिए भरसक प्रयास किये। रैली स्थल के ठीक सामने एक युवा पदयात्रा कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसे नाम दिया गया मोदी है ना। रैली में जा रहे लोगों को गुमराह करने के लिए बड़े-बड़े साउंड सिस्टम लगाये गये। लोगों को जबरन अपनी रैली में ले जाने का प्रयास किया गया। इसके बावजूद कुछ सौ लोग ही भाजपा के कार्यक्रम में जुट पाये। उनमें ज्यादातर मजदूर है। माना जा रहा है कि उन्हें मजदूरी देकर कार्यक्रम में लाया गया था।

इस हालत को देखकर बीजेपी के विधायक और देहरादून के पूर्व मेयर विनोद चमोली को अपने कार्यक्रम में मंच से कहना पड़ा कि वे शरीर से तो इस कार्यक्रम में हैं, लेकिन उनकी आत्मा भूकानून रैली में है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट का भी एक बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा है कि भूकानून और मूल निवास जैसे मसले पर भाजपा आम जनता के साथ है। साफ है कि रैली को फ्लॉप करने की कोशिशें सफल नहीं हो पाई तो समर्थन जाहिर कर दिया गया है। 

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट की रिपोर्ट।)

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