बेरोजगारी ही आसपास, बीए पास

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वो झण्डा।

पैरों में हवाई चप्पल, कमर से नीचे पहनी जीन्स और काली टीशर्ट पहना शुभम भी आज उस भीड़ में किसी राजनीतिक दल का झण्डा लहराता उछलता-कूदता दिख रहा है, जो शहर के बीच बने एक टिन शेड के उद्घाटन के लिए निकल रही है।

बताया जा रहा है कि टिन शेड को शहर के सभी भिखारियों के लिए बनाया जा रहा है लेकिन शुभम का उसके उद्घाटन के लिए जा रही भीड़ में शामिल होना मुझे समझ नहीं आया।

स्कूल टाइम में बड़े ही सलीके से बालों की साइड वाली मांग निकाल कर आने वाला शुभम, परफेक्ट डील डौल वाले शरीर पर प्रेस किए कपड़े पहन बड़ा ही अच्छा लगता था।

शुभम उन लड़कों में था, जिनकी तरह मैं बाल बनाना और बाजू फोल्ड कर दिखना चाहता था।

सालों बाद शराब पिए और मुंह में चोट खाए शुभम को खुद से पैसे मांगते देख मैं चौंक गया था।

आसपास पूछने पर पता चला कि शुभम और उसका बड़ा भाई टैक्सी में सवारी भरते हैं, जिसकी जगह टैक्सी वाले उन्हें शराब पीने के पैसे दे देते हैं। शुभम और उसका भाई एक अच्छे मध्यमवर्गीय परिवार से थे, ये परिवार उन परिवारों में से एक था जो साल 2000 के आसपास दो तीन हजार रुपए में भी अपना पेट पाल लेते थे।

कुछ सालों बाद शुभम के माता-पिता को कोई गम्भीर बीमारी हो गई थी, जिसका खर्चा पन्द्रह बीस लाख रुपए था और इनकी व्यवस्था न कर पाने की वजह से दोनों इस दुनिया से चल बसे।

स्कूल खत्म होने के बाद शुभम और उसके भाई ने पास के ही डिग्री कॉलेज से बीए पास किया था पर लाख पैर पटकने के बावजूद दोनों को अपनी बीए की डिग्री से कहीं भी नौकरी नहीं मिली थी।

शाम खत्म हो रही थी और अंधेरा बढ़ने लगा था, शुभम टैक्सी स्टैंड के पास जल-बुझ रही स्ट्रीट लाइट के नीचे अर्धनग्न हो नाली पर बेसुध लेटा हुआ था। जिस राजनीतिक झंडे को उसने उद्घाटन के वक्त पकड़ा था, वो वहीं उसके पेट के नीचे दबा पड़ा था।

रवि

गले में गमछा डाले रवि मेरी तरफ बढ़ा तो पहली बार में तो पहचान ही नहीं आया। लंगड़ाता, मुंह में गुटखा भर रवि सालों पहले के उस रवि से बिल्कुल विपरीत था जिसका चेहरा नीले रंग की स्कूल शर्ट में नीले रंग की तरह ही चमकदार था।

रवि के पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और बचपन से ही रवि के लिए उन्होंने किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी। स्कूल में स्प्लेंडर मोटरसाइकिल लाने वाले लड़कों में रवि पहला ही रहा होगा।

स्कूल खत्म होने के बाद अन्य दोस्तों से पता चला था कि रवि ने शहर के ही कॉलेज में बीए के लिए दाखिला लिया है।

समय समय पर रवि के पोस्टर शहर की दीवारों पर दिख जाते थे, ‘डिग्री कॉलेज अध्यक्ष पद के लिए अपने रवि को विजयी बनाएं’।

छात्र राजनीति का चमकता सितारा क्षेत्र के बड़े से बड़े नेता के साथ उठता बैठता था।

झारखंड के सुदूर गांव में रोजगार का कोई अवसर न मिलने पर रवि दिल्ली चला गया। भारत की सर्वाधिक प्राप्त किए जाने वाली डिग्री ‘बीए’ से भला उसे दिल्ली में नौकरी भी क्या मिलती। कुछ दिनों उसने वहां किसी शोरूम में सेल्समैन की नौकरी की और उसके बाद रवि वापस झारखंड अपने गांव आ गया।

पुराने राजनीतिक सम्बन्धों के चलते रवि क्षेत्रीय विधायक जी का सामान उठाने वाला बन गया था। बाइक के लिए तेल के साथ महीने में कपड़े खरीदने का खर्चा भी रवि को मिलने लगा था। राजनीतिक पकड़ के चलते अब रवि ने जंगल की लकड़ी बेचना शुरू कर दिया है और इसी काम में कभी पैर तो कभी कंधों में चोट खाता मेरा बचपन का यार ऐसा उलझा कि खुद को भूल गया है।

(हिमांशु जोशी लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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