अन्य जगह भी दोहराया जा सकता है सूरत का प्रयोग 

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कुछ दिनों पहले जनादेश हड़पने का ‘चंडीगढ़ प्रयोग’ देश ने देखा था। चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में चुनाव अधिकारी ने विपक्ष के वोटों को रद्द कर भाजपा के उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया था। हालांकि वह प्रयोग सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। लेकिन ‘दिल है कि मानता नहीं’ की तर्ज पर अब भाजपा ने लोकसभा चुनाव में पेश किया है ‘सूरत प्रयोग’! इस प्रयोग में उसने सभी विरोधी उम्मीदवारों के नामांकन खारिज करवा कर या उनसे नाम वापसी करवा कर अपने उम्मीदवार को निर्विरोध विजयी घोषित करा दिया। 

किसी भी चुनाव के दौरान कुछ उम्मीदवारों का नामांकन रद्द होना या कुछ उम्मीदवारों का नाम वापसी के दिन अपना नाम वापस ले लेना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन याद नहीं आ रहा है कि निकट अतीत में कभी लोकसभा चुनाव में किसी राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार का नामांकन खारिज हो जाए और बाकी निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव मैदान से हट जाए। यह भी नहीं याद आता कि किसी राज्यस्तरीय पार्टी का, जो देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी हो, उसके उम्मीदवार का नामांकन रद्द हो जाए।

हाल के दिन तक राष्ट्रीय पार्टी रही, जिसकी देश के सबसे बड़े सूबे में चार बार सरकार रही और जो पार्टी देश में साढ़े तीन फीसदी से ज्यादा वोट लेती हो, उसके उम्मीदवार का नामांकन रद्द होना भी नहीं सुना गया। लेकिन इस बार सब हुआ है। गुजरात में कांग्रेस के उम्मीदवार का नामांकन रद्द हुआ तो मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार का नामांकन रद्द हो गया।

सबसे दिलचस्प और हैरान करने वाला मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात का है, जहां सूरत लोकसभा सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार नीलेश कुंभाणी का नामांकन रद्द कर दिया गया। निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें बुला कर इसकी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि कुंभाणी के प्रस्तावकों के दस्तखत असली नहीं है और ऐसा प्रस्तावकों ने खुद निर्वाचन अधिकारी को जानकारी दी। नीलेश कुंभाणी के बैकअप यानी डमी उम्मीदवार के तौर पर सुरेश पडसाला ने नामांकन किया था। उनके प्रस्तावकों ने भी चुनाव अधिकारी को बिल्कुल ऐसी ही जानकारी दी और उनका भी नामांकन रद्द हो गया। इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार और सात निर्दलीय उम्मीदवारों से नामांकन वापस करा लिया गया।

यह सब होने के बाद चुनाव मैदान में सिर्फ भाजपा उम्मीदवार मुकेश दलाल बचे थे। जिला निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर तुरत-फुरत निर्वाचन प्रमाण पत्र दे डाला। चुनाव आयोग को तो खामोशी रहना ही था, सो वह पूरे तमाशे पर खामोश रह कर लोकतंत्र का मखौल उड़ते देखता रहा। इसके बाद सरकार और भाजपा के प्रचारतंत्र का हिस्सा बने टीवी चैनलों के रिपोर्टरों और एंकरों ने चहकते और कूल्हे मटकाते हुए कांग्रेस की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में हर्ष मिश्रित शोर मचाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस के उम्मीदवारों को प्रस्तावक नहीं मिल रहे हैं। 

यह सोचने वाली बात है कि क्या यह संभव है कि किसी व्यक्ति को जो चुनाव लड़ने जाए उसे पांच-दस प्रस्तावक नहीं मिलेंगे? गौरतलब है कि गुजरात में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी गठबंधन करके चुनाव लड़ रहे है और सूरत ऐसी सीट है, जहां आम आदमी पार्टी ने अपना मजबूत जनाधार बनाया है और जहां 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा केंद्रीय एजेंसियों के सहारे जैसे-तैसे जीतने में सफल रही थी। हालांकि इस समय भाजपा जब हर सीट पर पांच लाख से ज्यादा वोट से जीतने का दावा कर रही है तो उसे सूरत सीट पर इस तरह का प्रयोग करने की क्या जरूरत आ पड़ी? 

इससे पहले मध्य प्रदेश की खजुराहो सीट पर समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार मीरा यादव का नामांकन भी खारिज हो गया। वे विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की साझा उम्मीदवार थीं। दस्तखत की गड़बड़ी की वजह से उनका नामांकन रद्द हुआ। मजबूरी में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को उस सीट पर फॉरवर्ड ब्लॉक के उम्मीदवार को समर्थन करना पड़ा। इसी तरह उत्तर प्रदेश की बरेली सीट पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार मास्टर छोटेलाल का नामांकन खारिज हो गया है। शपथपत्र में सूचनाएं नहीं भरने के आधार पर उनका नामांकन रद्द हुआ है। एक ही चुनाव में तीन अलग-अलग राज्यों में तीन बड़ी पार्टियों के उम्मीदवारों का नामांकन खारिज होना संयोग नहीं हो सकता?

इन तीनों प्रयोगों में सूरत का प्रयोग तो भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद अपशकुनकारी घटना है। वहां सत्ता पक्ष की बेलगाम और अनैतिक ताकत, कर्तव्य-निष्ठा से समझौता करने को तत्पर प्रशासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी से उतारने में सहायक बने विपक्षी उम्मीदवार एक साथ देखने को मिले। यह हैरतअंगेज है कि नामांकन का परचा दाखिल करने वाला एक भी उम्मीदवार मैदान में टिके रहने को तैयार नहीं हुआ और सबने अपने नाम वापस ले लिए।

भाजपा के नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि कांग्रेस के प्रमुख और डमी उम्मीदवारों के परचे खारिज होने के बाद बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी समेत आठ अन्य उम्मीदवार से उन्होंने संपर्क किया और उन्हें परचा वापस लेने के लिए ‘राजी’ कर लिया। हालांकि यह तथ्य उजागर होने में भी ज्यादा समय नहीं लगा कि भाजपा गुजरात के भाजपा नेताओं इस पूरे ऑपरेशन को सूरत के मेरिडियन होटल में बैठ कर अंजाम दिया। वहीं पर नाम वापसी के फॉर्म भरवाए गए और उन पर सभी सातों निर्दलीय उम्मीदवारों से दस्तखत कराए गए। बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार से चूंकि भाजपा नेताओं का संपर्क नहीं हो पा रहा था, लिहाजा पुलिस की क्राइम ब्रांच की मदद ली गई और उनका उनका नामांकन भी वापस कराया लिया गया। 

यह बड़ी हैरानी की बात है कि कांग्रेस उम्मीदवार नीलेश कुंभाणी ने अपने लिए जो तीन प्रस्तावक ढूंढे, उन तीनों ही उनके करीबी रिश्तेदार थे लेकिन तीनों ने हलफनामा देकर कह दिया कि कुंभाणी के परचे पर उनके दस्तखत फर्जी है। ऐसा ही डमी उम्मीदवार सुरेश पडसाला के साथ हुआ। नीलेश कुंभाणी का आचरण इतना संदिग्ध रहा कि कांग्रेस कार्यकर्ताओ ने उनके निवास पर प्रदर्शन किया और उनके घर पर ‘जनता का गद्दार’ लिख डाला। इस सिलसिले में सवाल कांग्रेस नेतृत्व पर भी उठता है कि उसने ऐसे व्यक्ति को कैसे लोकसभा जैसे महत्वपूर्ण चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया? यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि परचा खारिज होने के बाद से कुंभाणी और उनके तीनों प्रस्तावक लापता हैं। अगर उन्होंने अंदरखाने कोई समझौता नहीं किया है, तो उनका सामान्य व्यवहार यह होना चाहिए कि वे चुनाव अधिकारी के निर्णय को अदालत मे चुनौती देने की तैयारी करते।

तो फिलहाल कुल तस्वीर यह उभरती है कि भाजपा के लिए तो लोकतंत्र का मतलब यही रह गया है कि कैसे भी चुनाव जीतो और जीतने के लिए जो भी अनैतिक और अवैधानिक कृत्य करना पड़े करो। लेकिन जो पार्टियां ‘लोकतंत्र और संविधान बचाने’ के नाम पर आज भाजपा से लड़ते का दंभ भर रही हैं, उनकी चादर में भी कई छेद हैं। उधर प्रशासन और संवैधानिक- वैधानिक संस्थाएं सिस्टम को पटरी से उतारने की कोशिशों को रोकने के बजाय बेशर्मी के साथ खुद उसमें सहायक बनती जा रही हैं। 2024 का आम चुनाव इन रुझानों का गवाह बन रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि सूरत जैसा प्रयोग इस चुनाव में कुछ और जगह भी दोहराए जाए।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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