लोकसभा चुनाव: राहुल गांधी की राजनीतिक साहस और सक्रियता ने अंततः अपना असर दिखाया

अब भारत में आम चुनाव 2024 अपने अंतिम चरण में पहुंच गया है। 30 मई को चुनाव प्रचार का आखिरी दिन है और 1 जून को चुनाव संपन्न होने के बाद 04 जून को चुनाव परिणाम सार्वजनिक पटल पर आ जायेगा। फिलहाल तो‎ यह कि आखिरी चरण में 57 सीटों पर चुनाव होना है। इनमें से बनारस की सीट सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

बनारस से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी मैदान में हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी ने गंगा मां के बुलाने की बात कही थी। इस बार गंगा पुत्र मां गंगा की गोद की बात कर रहे थे। मां गंगा की गोद बहुत दुखी है। कारण कोरोना काल की यादें हैं। गंगा की सफाई का मामला अपनी जगह है। विकास! लोग विकास का अर्थ खोज रहे हैं। सैलानियों का आना-जाना बढ़ा है। भक्त और सैलानी में फर्क होता ‎है। सैलानियों और बाशिंदों की खुशी के अवसर एवं ‎तौर-तरीके में भी फर्क होता है। ‎सैलानियों की खुशी के अवसर बढ़े हैं तो‎ विस्थापन ‎एवं बदलाव जैसे समझ में आने ‎लायक विभिन्न कारणों से बाशिंदों की खुशी के ‎अवसर घटे ही हैं। वोट तो बाशिंदों ‎की मुट्ठियों में है, ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि ‎भव्यता और दिव्यता का चुनाव ‎पर क्या असर पड़ता है।

कुछ दिन पहले तक बनारस में नरेंद्र मोदी की जीत को इकतरफा मानने वाले लोग अब मानने लगे हैं, चुनाव तो‎ चुनाव होता है। जीत का अंतराल कम हो सकता है। कुछ कह रहे हैं कि बनारस के मिजाज का कोई अंदाजा लगाना कठिन है। गंगा मैया ने बुलाकर देख लिया। घाट-घाट का पानी पीना हिंदी का बड़ा प्रसिद्ध मुहावरा है, बनारस में तो बहुतेरे घाट हैं। इतना तो समझ में रहा है कि मामला थोड़ा भिन्न जरूर लगता है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ गोरखपुर के रहने वाले हैं। न सिर्फ रहने वाले हैं बल्कि वे गोरखनाथ पीठ के सम्मानित महंत भी हैं। वे नाथ परंपरा की विरासत के संवाहक भी हैं। नाथ संप्रदाय और भक्ति की परंपराओं के विवेचन के लिए यहां बहुत जगह नहीं है। इतना जरूर है कि नाथ ‘अलख’ जगाते थे, कबीर भी ‘अलख निरंजन’ का उद्घोष करते थे। तुलसीदास कहते थे, ‘हम लख, हमहिं हमार लख, हम-हमार के बीच। ‘तुलसी अलखहिं का लखे’ वे राम नाम जपने की बात कहते थे। महत्वपूर्ण यह है कि तुलसीदास की बात सुनी गई! सम्मानित और नाथ परंपरा के आदरणीय महंत लगातार दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद पर हैं।

अभी प्रासंगिक यह है कि योगी आदित्यनाथ अब नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकार के सशक्त दावेदार हैं। गृह मंत्री अमित शाह भी नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकार के उतने ही सशक्त और स्वाभाविक दावेदार हैं। इस तरह से आदित्य नाथ और अमित शाह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की रेखाएं एक-दूसरे को काटती उलझाती हैं। प्रसंगवश, खिचड़ी पर्व की शुरुआत गोरखपुर से ही हुई थी। गोरखपुर की खिचड़ी बहुत चमत्कारी होती है। इस समय गोरखपुर में कैसी खिचड़ी पक रही है! कहना मुश्किल है।

चुनाव परिणाम जो भी हो, कुछ बातें साफ-साफ समझनी और कहनी होगी। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने कांग्रेस में जान फूंक दी। कांग्रेस के घोषणापत्र जिसे न्यायपत्र कहा गया के इतने शानदार स्वरूप में तैयार होने में इन यात्राओं के दौरान भारत विचार और भारत स्थिति के बारे में संचित अनुभवों, सुझावों और दृष्टियों आदि का अपना महत्व है। लोकतंत्र के महत्व को समझनेवाले दलित और पिछड़े समुदाय के लोगों, किसानों, खेती-बारी के काम में लगे लोगों, सेवा निवृत्त उच्च अधिकारियों, लोकसेवकों, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों, गैर-सरकारी संगठनों, विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे छोटे-मोटे दिहाड़ी काम-काजियों, महिलाओं, नौजवानों, लघु-बहुस्तरीय लोगों आदि के साथ राहुल गांधी ने जितना और जैसा संवाद विकसित किया वह अपने-आप में अद्भुत है।

भारत में ही नहीं, दुनिया भर में लोकतंत्र के महत्व को समझनेवाले लोग हैं। स्वाभाविक है कि संवाद के मामले में राहुल गांधी ने लोगों के देशी-विदेशी होने की स्थिति पर नहीं उनकी सूझ-बूझ पर यकीन किया। कांग्रेस के न्यायपत्र में यह सारा संचित अनुभव सरल, सहज, संक्षिप्त और सभी के समझ में आने लायक विभिन्न भाषाओं में सिमटकर प्रस्तुत हो गया। कांग्रेस का न्यायपत्र ऐसे समय पर सरल-सहज ढंग से चुनाव प्रचार में आया कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इसमें कही गई बातों की कोई वास्तविक काट सूझी ही नहीं।

भारतीय जनता पार्टी की पूरी कमान ‎‘स्टार प्रचारक’‎ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हाथ है। स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी ने खुद ही कमान संभाली। उन्हें तो वह सूझ गया जो उसमें था ही नहीं, अर्थात ‘मुसलिम लीग’ की छाप! पता नहीं उन्हें और क्या-क्या सूझने लगा। उन्होंने ऐसी-ऐसी बातें कहनी शुरू कर दी कि न्यायपत्र को समझनेवाले लोग चकित रह गये, न समझनेवाले लोग समझने के लिए उत्सुक और उतारू हो गये! कहते हैं कि एक करोड़ से अधिक बार यह न्यायपत्र नेट से डाउनलोड किया गया।

नरेंद्र मोदी के बयानों, आरोपों में छिपी बातों में अ-सत्य और अ-न्याय ने नरेंद्र मोदी के झूठ को भोंदा और अ-ग्राह्य बना दिया। कुल मिलाकर यह कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की राजनीतिक साहस और सक्रियता ने अंततः अपना असर दिखला दिया। महत्वाकांक्षा के मारे ‎‘बेकल सत्याग्रही’‎ और धुरंधर कांग्रेसी इधर-उधर होने के रास्ता के बीच समझ नहीं पाये कि राहुल गांधी को विरासत में सत्ता की ही नहीं, विचारधारा और शहादत की भी परंपरा मिली है।

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राहुल गांधी ने अपनी उत्तरजीविता में विचारधारा और शहादत की परंपरा को चुना, जिसे नरेंद्र मोदी ‘शाही’ कहते हैं उसे नहीं चुना। इस तरह से राहुल गांधी सीधे आम लोगों की जिंदगी में आने लगे, बिना उनके परिवार के ‎‘ऐतिहासिक पराक्रम और पुरुषार्थ’‎ को बीच में लाये या किसी कांग्रेसी या गैर-कांग्रेसी की सुनाई गई बातों का सहारा लिये! इस अर्थ में राहुल गांधी नेता बन जाने की संभावनाओं से भरते चले गये।

इस तरह से परिवादी, अनिच्छुक, अनाड़ी (जिसको नाड़ी या नब्ज पकड़ना न आता हो) जैसे आरोपों से मुक्त होते गये और वह भी अपने ‎‘जीवंत पराक्रम और पुरुषार्थ’‎ के माध्यम से। राहुल गांधी का विकास ऐसा है, जैसे कोई पौधा गमला तोड़कर अपनी वास्तविक जमीन पकड़कर बहुत तेजी से झमटदार वृक्ष बन गया हो! यह जरूर है कि इस वृक्ष में अभी फल लगना बाकी है, लेकिन इसकी अंखुआहट जरूर भरोसेमंद है और बेहतर फल की उम्मीद जगानेवाली है। बाकी भविष्य पर।

साधनहीन और साधन वंचित विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) की भी सराहना करनी होगी। तरह-तरह के दबावों के बीच,‎ इस गठबंधन के घटक दलों के विभिन्न नेता शरद पवार, एम के स्टालिन, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी, अखिलेश यादव ‎हेमंत ‎सोरेन, तेजस्वी यादव‎ की टीम ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के प्रति सहमति और स्वीकृति के साथ जिस दृढ़ता से चुनाव मैदान में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का इंच-दर-इंच मुकाबला किया उसकी कल्पना भी सत्ताधारी दल ने नहीं की थी। बैंक खाता अवरुद्ध किये जाने से लेकर नेताओं को चुनाव के समय जेल भेजने तथा दबाव से लेकर दबिश तक किसी भी तरकीब को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने बाद के लिए नहीं छोड़ा। लेकिन सब बेकार गया।

वन नेशन, वन इलेक्शन ‎का मनोरथ तो‎ धरा-का-धरा ही रह गया। यहां तो‎ चुनाव को सात चरणों में और वह भी बिखेरकर कराने की तरफ केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) बढ़ गया। दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति ठीक चुनाव शुरू होने के पहले की गई। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के अधिकार अपने हाथ लेने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत ‘समझदारी’ से काम लिया। राष्ट्रपति के पास चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए भेजी जानेवाली सूची बनाने का दायित्व जिस कमिटी पर आया उस कमिटी में प्रधानमंत्री के अलावा प्रधानमंत्री के द्वारा नामित मंत्री के साथ विपक्ष के नेता के लिए जगह का कानूनी प्रावधान कर लिया गया। यही वह स्थिति है जिसके बारे में कहा जाता है कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे! विपक्ष के नेता को शामिल करने का ‘पुण्य’ भी मिल गया और मनमाफिक नियुक्ति का अधिकार भी प्रधानमंत्री को मिल गया।

ऐसे में किसी भी तरह से चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ या सत्ताधारी दल के ‎‘स्टार प्रचारक’‎ के द्वारा आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)‎ के पालन की परवाह करने की उम्मीद का कोई मतलब नहीं रह गया है। सरकार ने सीधे-सीधे न भी कहा हो, लेकिन यह तो‎ स्पष्ट ही है कि सत्ताधारी दल की सुविधा का ध्यान रखते हुए ही चुनाव को इतना फैलाया गया। मुराद यह कि विपक्ष गठित हुआ भी तो चुनाव के एक दो चरण के होते, न होते पस्त हो जायेगा। यह दांव उलटा ही पड़ गया।

विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) समय के साथ-साथ अधिक मजबूत और कारगर होता चला गया। सत्ताधारी दल और उसके ‎‘स्टार प्रचारक’‎ अपनी बौखलाहट में अनाप-शनाप में उलझते चले गये। अब जैसी स्थिति बनी दिखती है उसमें विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के बहुमत का आंकड़ा मिल जाने की भारी उम्मीद पुख्ता हो गई है। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) सत्ता परिवर्तन में कामयाब न हो पाये तो भी उस पर ‘उत्पन्न परिस्थिति’ में संविधान और लोकतंत्र बचाने के चुनावी संघर्ष में किसी तरह की राजनीतिक कोताही का आरोप लगाना बेमानी होगा।

सरकार जिसकी भी बने विपक्ष जरूर मजबूत होगा। कुछ बड़े लोग इस आशंका से भी पीड़ित हैं कि वर्तमान सत्ताधारी दल जनादेश के विपरीत जाकर कम-से-कम कुछ दिनों के लिए सत्ता पर बने रहने की कोशिश कर सकता है। कैसी कोशिश करेंगे यह कहना मुश्किल है। ऐसे लोगों की आशंकाएं बिल्कुल निराधार नहीं भी हों, तो‎ भी आशंकाओं के आधार बहुत क्षीण हैं।

मनुष्य का सामान्य स्वभाव बहुत रहस्यमय होता है। इसकी प्रवृत्तियां लाखों सालों के सृष्टि विकास के साथ-साथ चलती आई है। इनमें से कुछ जैविक प्रवृत्तियां हैं तो कुछ सामाजिक और कुछ सांस्कृतिक प्रवृत्तियां भी हैं। इन प्रवृत्तियों में कुछ प्रवृत्तियां मौलिक बन जाती है। इन प्रवृत्तियों के बनावट और बुनावट के क्रमिक विकास को जानने की कोशिश मनुष्य करता रहता है। यह जो जानने की प्रवृत्ति है, मौलिक प्रवृत्तियों में से एक है। जानना यानी अज्ञान से ज्ञान तक पहुंचने का आनंद भी कम नहीं होता है। इस आनंद का एक कारण रहस्य-भेदन है तो एक अन्य कारण रहस्य-भेदन की प्रवृत्ति का संतुष्ट जो होना है। क्योंकि, कई बार उसे लगता है कि दूसरे लोगों को इस का पता नहीं है। यह प्रवृत्ति उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी उम्र हो गई है। कोलकाता के एक प्रसिद्ध समाचार चैनल को साक्षात्कार कहें या बात-चीत कह लें, के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी के बारे में एक ऐसी ही बात कह दी। उन्होंने जो कहा उसका आशय यह था कि महात्मा गांधी को वैश्विक प्रसिद्धि दिलवाने के लिए कांग्रेस और खासकर नेहरू ने कुछ नहीं किया! नरेंद्र मोदी के अनुसार गांधी को दुनिया ने तब जाना जब गांधी पर फिल्म बनी!

भारत के प्रधानमंत्री का यह कहना बहुत ही चकित करने वाली बात ही नहीं, अपमानजनक बात भी है। महात्मा गांधी की वैश्विक प्रसिद्धि स्व-स्पष्ट और स्व-प्रमाणित है। उस पर यहां कुछ कहने की बहुत प्रासंगिकता नहीं है। प्रासंगिक है मनो-वृत्ति की ओर इशारा करना। यह देखने में आता है कि नरेंद्र मोदी जो भी कहते हैं, कहते हुए ऐसी मुद्रा अख्तियार कर लेते हैं, जैसे कोई गहरा रहस्य खोल रहे हों। इससे अधिक उन के बारे में कुछ कहना या उनकी कही बातों का गहराई से विश्लेषण करना यहां आवश्यक नहीं लगता है। इतना कहना जरूरी है कि महात्मा गांधी के बारे में ऐसा कहना सुननेवालों को न सिर्फ ‎अचंभित कर गया, बल्कि अंतरात्मा को भी छील गया। मतदान पर इसका क्या और कितना असर होगा यह अलग बात है।

अब तो वे ‎‘सात पीढ़ियों के पाप’‎ की क्रुद्ध घोषणा करने लगे हैं! किसकी ‎‘सात पीढ़ियों के पाप’‎ की बात कर रहे हैं? जाहिर है विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के ‎‘सात पीढ़ियों के पाप’‎ की बात कर रहे हैं, असल में राहुल गांधी की ‎‘सात पीढ़ियों के पाप’‎ की बात कर रहे हैं। राहुल गांधी की ‎‘सात पीढ़ियों के पुण्य और पाप’‎ का हिसाब भारत के इतिहास के पास है, कई लोगों को तो अपनी ‎‘सात पीढ़ियों के नाम’ भी नहीं मालूम होते हैं। इस तरह के राजनीतिक तौर-तरीकों ‎से सामान्य नागरिक का मन टूट जाता है, खैर फैसला तो जनता को करना है। फैसले की घड़ी सामने है।

आखिरी चरण के चुनाव प्रचार के पूरा होते ही प्रधानमंत्री कन्याकुमारी पहुंच गये हैं। हिदायत होगी कि वहां कोई उनकी आभा के आस-पास न फटके; ‘कैमरादि’ की अबाध पहुंच जारी रहनी चाहिए। वे तो अवतार हैं! सोचा जाना चाहिए कि इस नये अवतार को किस नाम से पुकारा जाये! कैमरावतार कैसा रहेगा? यह प्रस्ताव नहीं, प्रश्न है।

लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार मिथोन्माद (Mythomania)‎ यानी अपने कहे झूठ को सच मान लेने की प्रवृत्ति‎ में फंस जाते हैं। अर्थात, वे बाध्यकारी झूठ (compulsive lie)‎ का इस्तेमाल करते हैं, यानी ऐसा झूठ जिसे सुननेवाला ही नहीं, खुद ‎बोलनेवाला भी सच मानने के लिए बाध्य हो ‎जाये।‎ फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साधना में तल्लीन हैं। साधना के लिए भी साधन चाहिए। उनके पास पर्याप्त साधन है तो‎ भरपूर साधना का हक भी है। साधन विहीन होती गई जनता की सबसे बड़ी साधना तो पचकेजिया मोटरी-गठरी संभालने में खप जाती है।

विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कन्याकुमारी में ‘साधना’ पर नहीं, लेकिन उनकी इस ‘साधना’ को चुनाव प्रचार की समाप्ति के बाद भी चुनाव प्रचार को जारी रखने का ‎‘नायाब तरीका’‎ मानकर विरोध कर रहे हैं। विरोध उनकी साधना करने का नहीं है। तरंगी मीडिया पर उस साधना के अहर्निश प्रसारण के माध्यम से प्रचार पर एतराज है। गठबंधन इसे प्रचार का तरीका और मीडिया के द्वारा चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ में बाधा पहुंचाना मान रहे हैं। अचरज है कि गठबंधन के नेता आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)‎ के तहत केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) से उपयुक्त दिशा-निर्देश जारी करने की उम्मीद करते हैं। केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) के प्रति विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के भरोसे और निष्ठा की जितनी तारीफ की जाये कम ही है!

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)‎, चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎, न्याय, अ-न्याय, विषमता, महिलाओं के सम्मान, राशन, नेशन, करप्शन जैसे मुद्दों की चर्चा थम जायेगी। राजनीति में रणनीति का रासायनिक परिपाक पूरा हो जायेगा। राजनीति की चुनावी प्रयोगशाला के दरवाजों पर दो-चार दिन के लिए छोटा ताला लग सकता है। हां, खिड़कियां खुली रहेंगी, ‎‘ताक-झांक’‎ की गुंजाइश बनी रहेगी।

चार जून को नया गणित और नये गणितज्ञ प्रकट होंगे। नया चक्र घूमना शुरू हो जायेगा। देखना दिलचस्प हो सकता है। राहत! राहतें तो‎ अपनी-अपनी हैं, मंजिलें भी अपनी-अपनी! इस समय राष्ट्र, संविधान, लोकतंत्र और ‎‘हम भारत के लोग’‎ सभी उम्मीद से हैं।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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