मध्यप्रदेश में कांग्रेस की शर्मनाक हार का कौन ज़िम्मेदार ?

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कमज़ोर नेतृत्व, संगठनात्मक कमियां, दिग्विजय सिंह को उम्मीदवार बनाना, कमलनाथ के बारे में अनेक प्रकार की अफवाहें, धार्मिक मामलों में भाजपा के साथ नकल करना ये सब वे कारण हैं जिनसे मध्यप्रदेश में कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। केन्द्रीय नेतृत्व ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर जीतू पटवारी को बैठाया। जीतू पटवारी अभी हाल में विधानसभा के चुनाव में बुरी तरह से हारे थे। हारे हुए व्यक्ति का वैसे भी कोई दबदबा नहीं होता है। फिर पटवारी को लोकसभा चुनाव के तीन महीने पहले अध्यक्ष बनाया गया था। उन्होंने कमलनाथ का स्थान लिया था। कमलनाथ ने ऐसे अवसर पर इस्तीफा दिया जब पार्टी के प्रति उनकी वफादारी पर प्रश्नचिह्न लगा था। यदि पटवारी की जगह किसी वरिष्ठ अनुभव प्राप्त नेता को अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती तो अच्छे परिणाम आने की संभावना थी।

चुनाव के कुछ दिन पूर्व मध्यप्रदेश कांग्रेस के एक बड़े नेता सुरेश पचौरी ने दलबदल किया था। सुरेश पचौरी लगातार कई वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य होने के साथ-साथ केन्द्रीय मंत्री परिषद में भी शामिल रहे। सुरेश पचौरी अपने साथ अनेक प्रमुख नेताओं को साथ लेकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए। जो नेता उनके साथ गये उसमें से बहुसंख्यक ब्राह्मण थे। इस तरह ब्राह्मणों के समर्थन में भी कमी आई।

पिछले अनेक वर्षों से छिन्दवाड़ा लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस के हाथों में रहा। एक बार को छोड़कर सन 1977 से लेकर 2019 तक छिन्दवाड़ा में कांग्रेस को शिकस्त नहीं दी जा सकी। 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में भी छिन्दवाड़ा में कांग्रेस ने विजय प्राप्त की थी। उस समय गार्गी शंकर मिश्र छिन्दवाड़ा से चुने गए थे। उसके बाद कमलनाथ लगातार 1980 से छिन्दवाड़ा से चुने जाते रहे। इस बीच एक बार को छोड़कर लगातार कमलनाथ छिन्दवाड़ा से चुने गए। उनका दबदबा इसलिए भी कायम रहा कि यह दावा किया जाता रहा कि प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी उन्हें अपना तीसरा पुत्र मानती थीं।

भारतीय जनता पार्टी ने कमलनाथ को हराने के अनेक प्रयास किए, परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। 2014 और 2019 जब मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा गया, उस समय भी कमलनाथ को शिकस्त नहीं दी जा सकी। परंतु 2019 के बाद भाजपा ने पूरे दमखम लगाकर छिन्दवाड़ा पर कब्जा करने का प्रयास किया। एक रणनीति के अंतर्गत कमलनाथ के बारे में यह अफवाह फैलाई गई कि वह शीघ्र ही भाजपा में आने वाले हैं। कमलनाथ ने इन अफवाहों का ज़ोरदार खण्डन भी नहीं किया। छिन्दवाड़ा में कांग्रेस न सिर्फ लोकसभा में विजय हासिल करती थी बल्कि लोकसभा क्षेत्र में जितने भी विधानसभा क्षेत्र थे उनपर भी कांग्रेस का कब्जा रहता था।

कमलनाथ जी के संबंध में अफवाहों के साथ-साथ छिन्दवाड़ा से अनेक कमलनाथ समर्थक कांग्रेसी एक के बाद एक दलबदल कर भाजपा में शामिल होते गए। इस तरह के नेताओं में पूर्व एमएलए चौधरी गंभीर सिंह, वर्तमान विधायक कमलेश शाह जिन्होंने 2019 में नकुलनाथ को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, वे भी कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। इन सबके साथ अनेक कांग्रेसी दल-बदल करते रहे। कमलनाथ को एक गंभीर झटका उस समय लगा जब छिन्दवाड़ा के मेयर विक्रम अहाते कमलनाथ को छोड़कर भाजपा में चले गए। वे कमलनाथ के प्रति जबरदस्त वफादार समझे जाते थे। यद्यपि बाद में वे फिर से कांग्रेस में आ गए। परंतु जब तक वे कांग्रेस को काफी कमज़ोर कर चुके थे। अंत में कमलनाथ जी को भारी धक्का उस समय लगा जब पूर्व मंत्री दीपक सक्सेना ने भी उनका साथ छोड़ दिया।

राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने छिन्दवाड़ा के प्रति विशेष ध्यान दिया। कैलाश विजयवर्गीय को छिन्दवाड़ा में विजय दिलाने की जिम्मेदारी दी गई। केन्द्रीय गृहमंत्री और भाजपा के चाणक्य समझे जाने वाले अमित शाह ने वहां अनेक रोड-शो किए और वहां रात्रि विश्राम भी किया। इन सभी कारणों से छिन्दवाड़ा का किला कांग्रेस के हाथ से निकल गया और मध्यप्रदेश की लोकसभा की पूरी 29 सीटों पर भाजपा का कब्जा हो गया।

छिन्दवाड़ा के अतिरिक्त एक अतिमहत्वपूर्ण हार का सामना उस समय करना पड़ा जब दिग्विजय सिंह अपने महत्वपूर्ण शक्तिशाली क्षेत्र राजगढ़ से चुनाव हार गए। उन्हें विश्वास था कि राजगढ़ उनके प्रति वफादारी दिखायेगा। वे पहले भी राजगढ़ से लोकसभा के लिए चुने गये थे। इस समय राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र में से एक विधानसभा क्षेत्र का उनके पुत्र प्रतिनिधित्व करते हैं। यह क्षेत्र जिसे दिग्विजय सिंह का किला माना जाता है इसके बावजूद उनकी हार हो गई। वैसे अच्छा तो यह होता कि दिग्विजय सिंह को पूरे मध्यप्रदेश की जिम्मेदारी दी जाती न कि उन्हें स्वयं चुनाव लड़ाया जाता। उनका दर्जा एक अखिल भारतीय नेताओं में है। उनको एक क्षेत्र में ज़ोर आजमाने का उत्तरदायित्व देना कहीं से उचित नहीं था।

कांग्रेस के एक और दिग्गज आदिवासी नेता कांति लाल भूरिया भी चुनाव हार गये। वे कई बार विधानसभा और लोकसभा के लिए चुने गए। वे राज्य और केन्द्र में मंत्री भी रहे चुके हैं। पूरी उम्मीद थी कि वे इस बार चुनाव जीतेंगे परन्तु वे भी चुनाव हार गए। उनके अतिरिक्त दो और तीन लोकसभा क्षेत्रों में कांग्रेस की विजय संभव दिख रही थी परंतु ऐसा भी नहीं हुआ।

कुल मिलाकर कांग्रेस की हार के लिए उसमें संगठन की कमज़ोरियां तो थीं ही परन्तु वैचारिक कमज़ोरियां भी थीं। प्रदेश में कांग्रेस की तुलना भाजपा की छोटी टीम से की जाती थी। कांग्रेस वह सब करने लगी थी जो भाजपा करती थी। दफ्तरों में बजरंग बली की पूजा, गणेश जी की पूजा, दुर्गामाता की पूजा, इस तरह लगभग भाजपा और कांग्रेस के बीच में अंतर समाप्त हो गया था। मतदाताओं ने सोचा कि यदि चुनना है तो बड़ी टीम को चुनें और इस तरह पूरी 29 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार चुन लिये गए। न सिर्फ भाजपा के उम्मीदवार चुनाव जीते परन्तु उसके एक उम्मीदवार शिवराज सिंह चौहान ने जबरदस्त विजय हासिल की। वे अपने पुराने क्षेत्र विदिशा से लगभग 8 लाख के अंतर से जीते जो पूरे देश में दूसरे नंबर की बड़ी विजय है।

(एलएस हरदेनिया वरिष्ठ पत्रकार हैं और भोपाल में रहते हैं)

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