अर्थव्यवस्था का ‘हिंदू संस्कार’ और हिंदुत्व मॉडल विकास का तीसरा चरण

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पिछले दिनों ‘मैत्री संस्कृति समष्टि समृद्धि समिति’ द्वारा 6 जुलाई, 2024 को एक दिन का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। यह कार्यक्रम अर्थव्यवस्था में संस्कृति की उद्वेलक भूमिका को लेकर आयोजित था। यहां संस्कृति का समानार्थी अर्थ हिंद ही था। इस कार्यक्रम में नीतिन गडकरी, अर्जुनराम मेघवाल, शमिका रवि, नलिनी पद्मनाभन जैसे नेता और नीति-निर्माता शामिल थे। शमिका रवि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों में से एक हैं। पद्मनाभन केनरा बैंक के निदेशक हैं। इस कार्यक्रम में मंदिर-अर्थव्यवस्था, योग, आयुर्वेद और विज्ञान, त्योहार और उत्सव, तीर्थ जैसे हिंदू संस्कारों को भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में सहायक के तौर पर देखने का नजरिया विकसित करने पर जोर दिया गया। मैत्री बोध नाम का संगठन दरअसल सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था की बात को आगे लाने पर जोर दे रहा था।

इस कार्यक्रम को हुए महज तीन दिन ही गुजरे थे, इंडियन एक्सप्रेस में अयोध्या के विकास में हिस्सेदारों पर श्यामलाल की पहली रिपोर्ट 10 जुलाई, 2024 को छपी। इस रिपोर्ट के अनुसार अयोध्या के राममंदिर के 15 किमी के दायरे में लगभग 25 गांवों की जमीन के खरीददारों में मुख्यतः राजनेता और उनके परिवार और प्रशासन से जुड़े अधिकारी व परिवार के सदस्य हैं।

अरुणाचल प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री के दो बेटों ने मंदिर से 8 किमी की दूरी पर 3.72 करोड़ रुपये में 3.99 हेक्टेयर जमीन खरीदी। भाजपा के पूर्व सांसद बृजभूषण शरण सिंह के बेटे ने लगभग एक हेक्टेयर जमीन 1.15 करोड़ रुपये में खरीदा। उत्तर-प्रदेश एसटीएफ के अतिरिक्त मुख्य डीजीपी अमिताभ यश की माताजी ने मंदिर से 8 और 13 किमी दूर महेशपुर और दुर्गागंज में लगभग 10 हेक्टेयर ‘खेतिहर जमीन’ खरीदा। इसकी लागत दो हिस्सों में 4.04 करोड़ रुपये थी।

इन खरीददारों में अडानी ग्रुप भी है इसकी सहायक कंपनी होमक्वेश्ट इंफ्रास्पेस ने माझा जामतारा गांव में 1.4 हेक्टेयर जमीन खरीदी। यह मंदिर से 6 किमी दूर था। इस पर कुल लागत 3.55 करोड़ रुपये थी। इसी गांव में व्यक्ति विकास केंद्र नाम की कनार्टक की संस्था ने 5.31 हेक्टेरयर जमीन खरीदी। इस जमीन की खरीद और बिक्री में कई स्तर दिखते हैं। लेकिन, पहली खरीदारी में महज 1.26 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था। अंतिम खरीददारी भुगतान इससे अधिक है। खरीदार संस्था श्री श्री रविशंकर की संस्था ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’ से जुड़ा हुआ है। एक बड़ी खरीद अभिनंदन मंगल प्रभात लोढ़ा का समूह होआबल की है। ये महाराष्ट्र के एक मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा के बेटे हैं। उन्होंने 25.27 हेक्टेअर ‘खेतिहर’ जमीन खरीदा जिसका कुल भुगतान 105.39 करोड़ रुपये बताया गया है। यह मंदिर से 12 किमी दूर है। इन खरीददारों में बसपा और भाजपा के कई विधायक भी हैं। सबसे बड़ी संख्या प्रशासनिक अधिकारियों की दिख रही है।

अयोध्या को विश्वस्तरीय शहर और धर्म का एक राष्ट्रीय केंद्र बनाने के अभियान से हम सभी परिचित हैं। इस अभियान में ‘सांस्कृतिक विकास’ का मॉडल भी समाहित था। जिस समय यह काम चल रहा था, उस समय इसके अनुरूप जमीनों के मूल्य का निर्धारण हवा में लटकते हुए छोड़ दिया गया। हवाई अड्डा बनाने से लेकर आवास विकास जैसी योजनाओं के लिए जब सरकार ने आसपास के गांवों की जमीन का अधिग्रहण करना शुरू किया तब मुआवजों को लेकर गांव वालों ने अपना प्रतिरोध दर्ज किया।

राम मंदिर निर्माण पर जोर और केंद्र से प्रधानमंत्री मोदी और राज्य के मुख्यमंत्री योगी की अयोध्या विकास में सीधी हिस्सेदारी ऐसे प्रदर्शनों को बहुत तवज्जों नहीं मिल सका। उनकी जमीनें सिर्फ सरकार ही नहीं, उपरोक्त खरीददारों ने औने-पौने दाम पर खरीदना शुरू कर दिया। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसमें बिचौलिये और जमीन पंजीकरण विभाग के कर्मचारियों की भूमिका भी बढ़चढ़कर रही होगी। एक अनुमान के अनुसार अकेले सरकार की ओर से ‘अयोध्या निर्माण’ के लिए 30 हजार करोड़ रुपये खर्च होने थे। जमीन की इस खरीद के साथ-साथ कई और योजनाएं अयोध्या में उतारने की कोशिशें आज भी जारी हैं। इसमें टाटा समूह द्वारा 750 करोड़ का संग्रहालय निर्माण भी है।

अयोध्या कॉरिडोर में कम से कम 1000 छोटे व्यापारी और दुकानदारों पर सड़क चौड़ीकरण के दौरान ही संकट आन पड़ा। हालांकि विकास अधिकरण ने 300 उजड़े दुकानदारों को 30 प्रतिशत की छूट पर उसके द्वारा विकसित की गई दुकानों की खरीद का ऑफर दिया। पंचकोसी यात्रा पथ को चौड़ा करने में सिर्फ दुकान ही नहीं, वहां रहे रहे लोगों को भी उजाड़ का दंश सहना पड़ा। इस लोकसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार का एक बड़ा कारण इस तरह की नीतियों को ही बताया जा रहा है। भीषण गर्मी में हुए चुनाव के नतीजों ने भारतीय राजनीति में जितनी गर्माहट पैदा की उससे सबसे अधिक उमस तब दिखी जब देर से आये मानसून की पहली बारिश में ही अयोध्या मंदिर में पानी का रिसाव दिखा। इसके बाद ही अयोध्या का अधिसंरचनात्मक विकास का पूरा ढांचा बारिश के बहाव में उखड़ने लगा। ऐसा परिदृश्य उत्तर-प्रदेश के ‘काशी कॉरिडोर’ में भी दिखा।

‘मैत्री संस्कृति समष्टि समृद्धि समिति’ भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और मंदी से बचे रहने के लिए जिन उपायों को सुझा रहा था, उसके विकास का मॉडल हमारे सामने है। यह वह हिंदू मॉडल ही है जो ‘मुसलमान शासकों’ के रहने के बावजूद गुप्तकाल के स्वर्णिम दौर से होते हुए हमारे समय तक आ रहा है। मंदिर और उसके आसपास आर्थिक विकास का यह मॉडल मठों और मंदिरों के जमीन और गांवों का अधिग्रहण, जमींदार व्यापारी, राजनेता, प्रशासक और राजा का सर्वोच्च शिखर पर बने रहना और नीचे आमजन का दोयम जिंदगी में ठेले जाने की नीति को हम कौटिल्य से लेकर मनु, याज्ञवलक्य और बाद के समय में पाल, प्रतिहार, गुर्जर, चोला से होते हुए हम सल्नतकाल में भी इसका दर्शन बेहद आसानी के साथ कर सकते हैं। इससे मिलता जुलता मॉडल हम फ्रांस के क्रूर मध्ययुगीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से भी कर सकते हैं जिसको नेस्नाबूद करते हुए महान बुर्जुआ क्रांति आगे बढ़ती है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस कार्यक्रम में अयोध्या को वेटिकन सिटी और मक्का के बरक्स रखकर बातें की गईं।

यहां भारत की अर्थव्यवस्था के संदर्भ में ‘हिंदू विकास दर’ का उल्लेख कर लेना जरूरी है। इस दर के लिए निश्चित ही भाजपा दोषी नहीं है। जिस समय यह दर चल रही थी, उस समय भाजपा का अस्तित्व ही नहीं था। यह विकास दर भारत के ढांचागत और संचरनागत विकास के अभावों का परिणाम था। यह 1950-70 के दशक तक चला और आने वाले दशक में इसने थोड़ी गति दिखाई लेकिन 1990 के दशक में धराशाई होने के कगार पर चली गई। उस समय भाजपा का उभार साफ दिखने लगा था। यह अवधि थी जिसमें खेती में रोजगार के अवसर न होने के बावजूद लोग जमीन से जुड़े रहने के लिए अभिशप्त थे। शहर औद्योगीकरण में अब भी बहुत दूर थे। उस समय तक जमीन पर मालिकाना जातिगत संरचना के क्रम में ही विभाजित था। यहां तक कि कोऑपरेटिव का विकास भी जाति संरचना पर आधारित मालिकाने के अनुसार ही हो रहा था।

1990 के बाद भी इस हिंदू संरचना में ‘नवपूंजीपतियों के उभार’ के बावजूद कोई खास बदलाव नहीं आया। 1990-2020 तक भारत के विकास में जिस तेजी से मंदिरों और धार्मिक स्थलों को विकास हुआ, वह अभूतपूर्व था। इसने शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे संस्थानों के विकास को बहुत पीछे छोड़ दिया। भारत में विवाह, धर्म, मंदिर, तीर्थ आदि अर्थव्यवस्था को रिकार्ड स्तर पर आगे बढ़ाया। यहां तक कि आवासीय योजनाओं में इसका असर सांप्रदायिक रूप लेने लगा। इसने भोजन के चुनाव तक को प्रभावित किया है।

पिछला तीस दशक जिस अर्थव्यवस्था को बनाया है, वह मूलतः हिंदू अर्थव्यवस्था है और उसकी विकास दर आज भी इसकी अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित गति और ठहराव के साथ उलझी हुई है। यह अनायास नहीं है कि संसद में असल हिंदू और नकल हिंदू के बीच बहस भारतीय समाज में गर्मी पैदा करने की क्षमता में अब भी है। यह मूलतः आज की अर्थव्यवस्था की राजनीति है। यही कारण है आज भारतीय राजनीति से तेजी से अमीर और गरीब के बीच के फर्क की बहस तेजी से गायब हुई है। इस राजनीति में दलित चेतना का पतन भी उसी गति से दिख रहा है।

आज आदिवासी समुदाय की बात करना एक पिछड़ी हुई बात करने जैसा हो गया। वर्ग जैसी शब्दावली अकादमिक शोधों से लगातार निकलती गई है। विज्ञान का अर्थ अब एक ऐसे मोटे फ्रेम वाले चश्मे का हो गया है जिसे बेहद जरूरी होने पर ही पहना जा रहा है। दरअसल, हमारा देश जिस अर्थव्यवस्था की राह पर बढ़ता जा रहा है उधर चलने के लिए धर्म बैसाखियां ही रह गई है। इस अर्थव्यवस्था के मुंह से अब हम सिर्फ धर्म की खोखली बकवास सुनने के लिए अभिशप्त हैं और मौत के सत्संग में जाने के लिए अभिशप्त हैं। इस तरह की अर्थव्यवस्था बनाने वालों की नीतियों की जोरदार आलोचना एक जरूरी कदम है। हमें इस तरह की नीतियों की आलोचना में जरूर ही आगे आना होगा।

(अंजनी कुमार लेखक एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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