जीवन में संघर्ष बहुत जरूरी है। आप इसे इस तरह समझ सकते हैं कि यह आप को जीने का मकसद देता है। संघर्ष रिश्तों में, लोगों से, राजनैतिक ताकतों से या आंतरिक मन से, यह दर्शाता है कि आप जीवित हैं और लड़ रहे हैं उन रुकावटों से जो आपको आगे बढ़ने से रोकती हैं। बदलाव और बेहतरी की चाह में आज के युवाओं में आईएएस और आईपीएस के अलावा राजनीति भी एक उभरता विकल्प है।
यह जानकर मन में प्रगतिशील विचार उमड़ते हैं कि देश का युवा उतर चुका है संघर्ष करने उन सब अड़चनों से जो भारत को रोके हुए है आगे बढ़ने से। लेकिन यह विचार उतनी ही गति से डगमगाता हैं जितनी गति से हमारे आज के युवा नेता बड़ी बड़ी गाड़ी की कतारों में शक्ति प्रदर्शन करने निकलते हैं। गाड़ियों में चलते हाई बेस वाले गाने मानो चीख-चीख कर कह रहे हों कि अच्छे दिन आने वाले हैं। आज के भारत में शायद संसद के वाद विवादों में भी उतनी गर्मजोशी नहीं जितनी छात्र राजनीति में है और बात जब दिल्ली की हो तो यह पारा आसमान छूता है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में जब चुनावी रंग चढ़ता है तो सबकी निगाहें यहीं टिकी होती हैं। यहां के चुनावी रंग में जेएनयू जैसा पक्का रंग तो नहीं मगर गैर (होली के समय होने वाला जश्न) यहां की भी देखने लायक है। इस बात का प्रमाण आपको विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन से चलते आ रहे छात्र से बेहतर शायद कोई नहीं दे सकता।
वो छात्र आपको बताएगा कि उस महत्व को जो उसे महसूस होता है जब मेट्रो गेट नंबर चार से बाहर आते ही हर कोई उसे अपने पाले में लेने के लिए इतना आतुर था। अगर उस क्षण उनमें से किसी एक को अपनी आने वाली सेमेस्टर परीक्षा लिखने के लिए बोल देता तो वह दो क्रेडिट वाले विषय में भी चार शीटें भर आता। मेट्रो स्टेशन से निकलता छात्र आपको बताएगा की विश्वविद्यालय चुनाव के सीजन में वो चलता है।
मगर जमीन पर नहीं, चलता है वह कागजों के ढेर पर, उस परत पर जो बढ़ती गई है प्रत्याशियों के मोटे वादों जैसी। वह छात्र आपको बताएगा की वह देखता है, लेकिन खुला आसमान नहीं, देखता है उन होर्डिंग्स को जो हर पचास मीटर पर उसे तकती हैं। वह छात्र आपको बताएगा कि वह सुनता है लेकिन गाने नहीं बल्कि उन ढोल बाजों की आवाज़ों को जो हाल में उभरे युवा नेता जी के जनसंपर्क में उनके काफिले के साथ चलती हैं।
प्राचीन काल से ही हमारे देश में किसी भी त्योहार को मनोरंजक ढंग से भी देखा जाता है, त्योहारों में लगने वाले मेले इस बात का प्रमाण हैं। मेले कई प्रकार के होते हैं जैसे पुस्तक मेला, पशु मेला, व्यापार मेला आदि। भारत में धार्मिक त्योहारों से हटकर भी एक त्योहार है; चुनावों का त्योहार, जो राष्ट्रीय और राजकीय राजनीति में हर पांच साल तो दिल्ली विश्वविद्यालय की राजनीति में हर साल आता है। अब स्वाभाविक है कि त्योहार है तो मेला तो यहां भी लगेगा। हालांकि यह लोकतंत्र का मेला पारंपरिक मेलों से कुछ अलग है। यहां के मेले में आपका पूरा खयाल रखा जाता है, लाडली बहनों के साथ-साथ प्यारे भाइयों का भी।
इस मेले में खाना है, पीना है, नाचना है, गाना है। इस मेले में मज़े लेने वाले छात्रों को भी लगता होगा कि प्रिय नेताजी की दयालु प्रवृत्ति तो बड़ी-बड़ी महात्माओं को पीछे छोड़ देगी। छात्र नेताओं के इन मेलों में घुसने के लिए आपको टिकट नहीं चाहिए, नेताजी का संघ और उनका बैलट नंबर याद रखने से काम चल जाएगा।
चुनाव के रण में घुस ही गए हैं तो हमारे उम्मीदवारों से आपका परिचय कराना जरूरी है। भगवान बुद्ध अगर आज जिंदा होते तो वो भी चकरा जाते जब वो देखते कि अधिकतर अध्यक्ष पद के उम्मीदवार जो बुद्धिस्ट स्टडीज में मास्टर कर रहे हैं; निर्वाण की तलाश छोड़ निकल पड़े हैं समाज में बदलाव लाने अपने मायावी राजनैतिक उपदेशों से।
हालांकि बुद्ध भी इस बात से इंकार नहीं करते कि छात्र राजनीति में टिकना बहुत मुश्किल है, बहुत धैर्य और अडिग मन चाहिए उन्हीं वादों को विद्यार्थियों के बीच रखने में जो वादे पिछले कई सालों से मार्केट में हैं, बहुत साहस और निडरता चाहिए उन कॉलेज के दरवाजों को तोड़ने में जो उनके राजनैतिक उपदेशों से बचने के फिराक में थे।
दिल्ली विश्वविद्यालय की ‘वॉल्स ऑफ डेमोक्रेसी’ भी इस चुनावी सीजन में खुद को ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगती होंगी। शुक्र तो इस बात का है कि यह सिर्फ एक मुहावरा है कि “दीवारों के भी कान होते हैं”, क्योंकि अगर यह बात सत्य होती तो बेचारी डेमोक्रेसी की दीवारों का क्या होता जब वो कान लगा के सुनती विश्वविद्यालय में हो रहा डेमोक्रेसी का प्रवचन। शायद जेके वॉल पुट्टी के विज्ञापन की तरह “दीवारें बोल उठती “, वे भी शायद आज का ट्रेंड देखते हुए अपने नाम बदलने का प्रस्ताव लातीं, केंद्र में नहीं बल्कि यूपी सरकार में, सिर्फ इसी चाह में कि प्रस्ताव जल्दी पास हो जाए।
फिर आता है वो दिन जब मेट्रो स्टेशन से आ रहे नॉर्थ कैंपस के छात्र छात्राओं को छात्र मार्ग से नहीं बल्कि थोड़ा आगे चल खालसा कॉलेज से मुड़ने वाले रास्ते से कॉलेज जाना पड़ता है; यानी नतीजों का दिन। इस दिन पूरे छात्र मार्ग पर विद्यार्थी नहीं बल्कि पुलिस बल होता है। होना भी चाहिए, वरना अगर गलती से नेता जी की टोली लोकतंत्र के नशे में ज्यादा उत्साहित हो गई तो उन्हें संभालेगा कौन? चुनाव पूर्ण हो गए हैं, नतीजे आने को हैं।
अब मार्ग पर चलने वाले छात्रों के नीचे की जमीन बदलेगी जो पिछले कुछ दिनों से कागजों से भरी थी। अब जमीन पर बिखरेंगे फूल जो जीतने के बाद नेता जी कि फूल माला से गिरेंगे और दिखेंगे कतरे उन पटाखों के जो नेता जी की जीत के जश्न में जलाए जाएंगे। लोकतंत्र के इस त्योहार का समापन होगा एक राज्य से आई हुई फॉर्च्यूनर की गाड़ियों के काफिले से, जहां गाड़ी की रूफटॉप से निकलकर हमारे सबके नेता जी जो अध्यक्ष चुने जा चुके हैं, सभी का अभिवादन स्वीकार करेंगे। लात घूसे भी चलेंगे, कुछ हारे हुए नेता जी के लोगों के बीच में, और कुछ ‘ वॉल्स ऑफ डेमोक्रेसी’ और डेमोक्रेसी के बीच में।
(मानवेंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए के छात्र हैं।)
Great thought with realistic approach..Inspiring.