दुनिया की बेहतरी में यक़ीन है तो मार्क्सवाद ज़रूरी है

(अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड डी वुल्फ का अपनी किताब `अंडरस्टैंडिंग मार्क्स` के संदर्भ में यूट्युब पर दो घंटे का वीडियो है जिसमें मार्क्सवाद को बेहद आसान तरीक़े से समझाने की कोशिश की गई है। उसी वीडियो से मैंने ये हिस्सा यहाँ हिंदी मे लिखा है-अमोल सरोज)   

मार्क्सवाद का सम्बंध कार्ल मार्क्स से है। कार्ल मार्क्स जो 1818 में पैदा हुआ और 1883 में मर गया, 19 वीं सदी का एक आदमी। मेरे पिता और कार्ल मार्क्स का जन्म स्थान एक ही है फ्रांस-जर्मन ब़ॉर्डर के एक क़स्बे में। उस क़स्बे के दो नाम हैं – एक जर्मन, एक फ्रेंच। वहाँ जर्मन और फ्रेंच दोनों बोली जाती हैं। कार्ल मार्क्स मिडिल क्लास फैमिली में पैदा हुआ था। उसे अच्छी कॉलेज शिक्षा मिली थी जो उस वक्त टॉप के दो-तीन प्रतिशत लोगों को ही मिल पाती थी।

उसने फिलॉसफी में पढ़ाई कर प्रोफेसर की जॉब पकड़ ली। पर मेरी तरह उसने भी ग़रीब लोगों के संघर्ष को महसूस किया। उसे इस बात में दिलचस्पी होने लगी कि मजदूर तबका सरकार के साथ किस तरह संघर्ष कर रहा था। पर यह एक प्रोफेसर का काम नहीं था बल्कि प्रोफेसर के लिए तो ये सब देखना भी कुफ़्र था। वो मज़दूरों से बात करना चाहता था। उसने मज़दूरों की स्थिति पर लेख लिखने शुरू कर दिये। ये सब काम उसकी जॉब प्रोफाइल से मैच नहीं करते थे। 

यूनिवर्सिटी ने वही किया जो वो नॉर्मली करती है (आज तक भी)। मार्क्स को नौकरी से निकाल दिया गया। अपनी बौद्धिकता के कारण मार्क्स को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। नौकरी जाने से मार्क्स को रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ा। उसे वैसे भी यूनिवर्सिटी का वातावरण पसंद नहीं था। तो, मार्क्स मज़दूरों के बीच में रहकर काम करने लगा और एक एक्टिविस्ट बन गया। ऐसा करने से वो तुरंत लोकल पुलिस और सरकार की निगाह में आ गया। जर्मन सरकार ने भी वही किया जो राजनीतिक विचारों और असहमतियों को दबाने के लिये सरकारें उस वक़्त करती थीं। वो आपको मारती नहीं थीं, जेल में नहीं रखती थीं, तड़ीपार करने या देश निकाला देने में ज़्यादा विश्वास रखती थीं।

वो आपको ट्रेन में बैठाती थीं और एक घंटे बाद आप देश से बाहर। जर्मन सरकार ने मार्क्स को ट्रेन में बैठाया और दो घंटे के बाद वो पेरिस में था। जर्मन सरकार ने साथ ही फ्रेंच पुलिस को भी आगाह कर दिया था कि एक ख़तरनाक आदमी आ रहा है, सम्भाल लेना । फ्रेंच पुलिस ने मार्क्स को स्टेशन पर ही लपक लिया और कहा कि आगे चलो, यहाँ नहीं । उन्होंने उसे ट्रेन में बैठाया और बेल्जियम को रवाना कर दिया। वहाँ पर भी वही हुआ। बेल्जियम पुलिस ने मार्क्स को लंदन की ट्रेन में बैठा दिया । वो लंदन में गया और उसने अपनी बाक़ी ज़िंदगी वहीं गुज़ारी।

मार्क्स ने अपने आप को पूंजीवाद के अध्ययन और उसकी आलोचना में डुबो दिया। वो समाजवाद या साम्यवाद की कल्पना करने या भविष्यवाणी करने में विश्वास नहीं रखता था। उसने ऐसा कभी नहीं किया। इसके लिये उसने कभी किताब भी नहीं लिखी बल्कि वो ऐसा करने वालों का मख़ौल उड़ाता था । वो कहता था मैं कोई नज़ूमी नहीं हूँ जो तुम्हें बता दे कि भविष्य में क्या होगा। कोई नहीं बता सकता। यह मेरा काम नहीं है । मेरा काम यह बताना है कि पूंजीवाद काम कैसे करता है। मेरा काम यह बताना है कि पूंजीवादी प्रणाली इससे पहले वाली प्रणालियों की तरह ही काम करती है।

उसने तर्क दिया कि हर आर्थिक प्रणाली पैदा होती है, वक़्त के साथ फलती-फूलती है और फिर उसका अंत हो जाता है और उसकी जगह दूसरी प्रणाली ले लेती है। पहली प्रणाली दास प्रथा थी, पैदा हुई, उसका प्रसार हुआ और वह मर गयी। फिर जागीरदारी सामंतवाद आया, फला-फूला और फिर ख़त्म हो गया। यही पूंजीवाद के साथ है। पूंजीवाद का जन्म सत्रहवीं या अठारहवीं शताब्दी में इंग्लैंड में हुआ। वक़्त के साथ इसका प्रसार हुआ और पूरी दुनिया में फैल गया। अब आगे क्या? अब कौन सा स्टेप आयेगा या यह मर जाएगा?

पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों के कारण ख़त्म हो जाएगा। आदमी पैदा होता है और अंत में मर जाता है। एक वक्त के बाद शरीर के अंग काम करना बंद कर देते हैं। अगर कोई आप को चाकू नहीं मारता है, फांसी नहीं देता है तो भी एक दिन आपका मरना तय है।

मार्क्स पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को पहचानना चाहता था। वो जानना चाहता था कि पूंजीवाद अपनी उम्र के किस मुक़ाम पर है। उसके कौन-कौन से अंग ठीक काम नहीं कर रहे हैं। वो मानता था कि मानव जाति पूंजीवाद से बेहतर सिस्टम डिजर्व करती है। हम आज जहाँ हैं, इसी वजह से हैं कि हर वक़्त कुछ लोग हुए जो यह सोच रखते थे कि और बेहतर सम्भव है। इसी सोच, इसी मानसिकता ने दास प्रथा और सामंतवाद, जागीरदारी जैसी व्यवस्थाओं से हमारा पीछा छुड़ाया। आज किसी इंसान को ग़ुलाम बनाकर रखने को कोई सही नहीं मानता । जागीरदार जैसे शब्दों को अपमान की नज़र से देखा जाता है। और ऐसा ना मानने के पीछे कोई कारण नज़र नहीं आता कि और बेहतर, और अच्छा करने, पाने की सोच ही हमारा पीछा पूंजीवाद से भी छुड़वाएगी बशर्ते कि आप इस बात में ही विश्वास न करने लग जाओ कि जिस वक़्त आप जी रहे हो, उस वक़्त इतिहास रुक गया है, अब इतिहास, विज्ञान काम नहीं करते हैं।

जोर से मत हंसो क्योंकि हम उस देश में रहते हैं जो सच में इस बात को मानता है। अमेरिका मानता है कि पूंजीवाद इस दुनिया में आज तक खोजी गयी सबसे प्यारी और कभी न ख़त्म होने वाली व्यवस्था है जिस पर इतिहस और विज्ञान के नियम लागू नहीं होते । अभी पीछे राष्ट्रपति ट्रम्प ने कहा, “यहाँ समाजवाद कभी नहीं आ पाएगा” समाजवाद आने से पहले हर देश के हर नेता ने यही स्टेटमेंट दी है। ट्रम्प का ये आश्वासन देना कि “यहाँ समाजवाद कभी नहीं आएगा“  ही आपको बहुत कुछ बताता है । ट्रम्प की कही हुई अधिकतर बातें सच नहीं होती हैं।

मार्क्स एक आलोचक था। एक आलोचक की सफलता को आप कैसे जज करोगे? चलिये देखते हैं। कार्ल मार्क्स लिखता था, उसने लिखना बंद किया और 1883 में वो मर गया। 150 साल पहले । मानवजाति के इतिहास में 150 साल कोई ज़्य़ादा लंबा समय नहीं कहा जा सकता। इन 150 सालों में उसके विचार दुनिया के हर देश में फैल चुके हैं। हर देश मे मार्क्सिस्ट स्टडी ग़्रुप हैं। मार्क्सिस्ट विचारधारा के राजनीतिक दल हैं, यूनियनें हैं, सरकारें हैं। छोटी-छोटी सरकारें जैसे चीन में। चीन की सरकार अपने आप को मार्क्सिस्ट कहती है। एक बार, इस बात को परे रख दो कि वो असल मे क्या है पर इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि मार्क्सवाद का विचार कितनी तेजी और सफलतापूर्वक पूरी दुनिया मे फैला है। अगर आप बाकी वैश्विक आंदोलनों से मार्क्सवाद की तुलना करोगे तो यह बाकियों से बहुत आगे है। सब लोगों को मार्क्सवाद में कुछ न कुछ लुभाता है। लोग मार्क्सवाद को पढ़ना चाहते हैं, पढ़ाना चाहते हैं, इसे पब्लिश करवाना चाहते हैं। आपको हर भाषा में मार्क्सवादी साहित्य मिल जाएगा। 

मार्क्सवाद का 150 साल का इतिहास बहुत ही शानदार-समृद्ध है। कितनी बड़ी बेवकूफ़ी है अगर हम जिस सिस्टम में रह रहे हैं, उस सिस्टम की आलोचना के सबसे समृद्ध स्रोत को सिरे से खारिज कर दे रहे हैं। जो चीज़ हमें अगले लेवल पर लेकर जा सकती है, उसे पढ़ना ही नहीं चाहते बल्कि ये कहें कि पढ़ ही नहीं सकते तो यह कोई स्मार्टनेस नहीं है, मूर्खता है। अमेरिका में मेरी पढ़ाई आधी-अधूरी रही। क्योंकि मेरे शिक्षक डरते थे। वो मार्क्सवाद को नकारते नहीं थे। उन्हें पता ही नहीं था ये क्या बला है।

उन्हें बस ये पता था, ये सेफ नहीं है। वो सब भयभीत थे और उनमें इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वे हमें यह सच बता सकें। वो मुझे अपने डर का कारण बता देते तो मैं समझ जाता। अगर वे मुझे कहते कि तुम्हें नौकरी नहीं मिलेगी बल्कि हमारी भी चली जाएगी तो मैं समझ जाता। पर अब मुझे गुस्सा है एक तो मैं वो सब नहीं सीख पाया जो मुझे सीखना चाहिए था, दूसरे मुझे यह भी नहीं बताया गया कि शिक्षक अपने डर के कारण ऐसा नहीं कर पाए। मुझे लगता है अब हमें सीखना शुरू करना चाहिए। देर आये-दुरुस्त आए।

(अमोल सरोज अपनी पढ़ने-लिखने की लत और इससे जुड़ी बेचैनियों के चलते एक बर्बाद क़िस्म के चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। सोशल मीडिया पर प्रोग्रेसिव- जन पक्षधर नज़रिये से की जाने वाली उनकी टिप्पणियां मारक असर वाली होती हैं। व्यंग्य की उनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है।)

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