जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ गये हैं। इस के साथ ही जीत का जश्न और हार की समीक्षा का सिलसिला शुरू हो गया है। जिसे स्वीकार किया जाता है उस का सम्मान भी किया जाये, यह बिल्कुल सामान्य और स्वाभाविक रूप से अपेक्षित होता है।
असामान्य और अस्वाभाविक परिस्थिति में सामान्य और स्वाभाविक की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं होता है। असामान्य स्थिति की जीत के जश्न में स्वाभाविक जोश नहीं होता है, हार की समीक्षा में वैसा हाहाकार नहीं होता है।
यह सच है कि हर हाल में जीत और हार दोनों को ही स्वीकार करना होगा। ऐसा मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र के सवालों के जवाब चुनावी जीत-हार से ही नहीं मिला करते हैं।
राजनीतिक दलों का अपना-अपना विश्लेषण होगा। अधिकतर राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक चुनाव के नतीजों का जो विश्लेषण करते हैं, वह भी अंततः विभिन्न दलों को दी जानेवाली सलाह से ज्यादा कुछ नहीं होता है।
जम्मू-कश्मीर के जनादेश की व्याख्या से यह बात निकलकर आती है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों के बीच मुद्दों के आधार पर तीखा क्षेत्रवार विभाजन है। इस तीखे क्षेत्रवार विभाजन के भीतर छिपे शुभ-अशुभ को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। विभाजन की प्रक्रिया में ध्रुवीकरण के महत्व से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
यही क्यों, हरियाणा के जनादेश की व्याख्या को भी बहुत गौर से पढ़े जाने की जरूरत है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इनकी व्याख्याएं कई तरह से की जा सकती है। यह कहना जरूरी है कि ये सारी व्याख्याएं जनादेशों को शुद्ध और पवित्र मानकर ही की जा सकती है।
राजनीतिक दलों की शिकायतों पर केंद्रीय चुनाव आयोग चुनाव क्या रवैया अपनाता है, किस तरह से शिकायत निवारण और निस्तारण करता है यह अलग बात है। एक बात जरूर है कि जन-हित के मामलों में कई बार नैसर्गिक न्याय की भावनाओं के निरसन की घटनाएं चिंता में डाल देती है।
चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के दो बयानों की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। प्रधान मंत्री ने कांग्रेस को अर्बन-नक्सल से जोड़ा और गृहमंत्री ने 2026 तक नक्सलियों को समाप्त किये जाने की बात कही।
इतने जबरदस्त किसान आंदोलन, दलित-पिछड़ों-महिलाओं पर अत्याचारों, रोजगार के घटते-बिगड़ते अवसरों, लगातार बढ़ती हुई कीमतों, विषमताओं जैसे जनविरोधी माहौल का जन-मानस पर पड़नेवाले प्रभाव को समझे जाने की जरूरत है।
लेकिन कैसे! क्या जम्मू-कश्मीर में हुए विभाजन और ध्रुवीकरण का असर भीतर-ही-भीतर हरियाणा पर भी पड़ा! कुछ भी कहना मुश्किल है।
अभी इन चुनाव नतीजों का गंभीरता से विश्लेषण करने में समय लगेगा। विश्लेषण के निष्कर्ष निकालने में राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक समय लेंगे। किसी भी निष्कर्ष को मान लेना, स्वीकार कर लेना और बात है लेकिन निष्कर्ष का सम्मान करना बिल्कुल भिन्न बात है।
व्याख्याएं और विश्लेषण का दौर अभी चलता रहे, फिलहाल हमें उम्मीद से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारा लोकतंत्र ऐसे जनादेशों को शांति से स्वीकार करे और धीरज बनाए रखे।
भले ही राजनीतिक दल जीत का जश्न और हार की समीक्षा अपने तरीके से मनाते रहें। मतदाता समाज के लिए यह सोचना जरूरी है कि जन-हित का हासिल मकाम क्या है!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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