मुफ्त की रेवड़ी का जुमला और भरमाता मध्यम वर्ग

दिल्ली के चुनाव आने के साथ ही ‘मुफ्त की रेवड़ी’ फिर से चर्चा में आ चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत से ही ‘फ्रीबीस कल्चर’ के विरोध में खड़े रहे हैं, अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में उन्होंने सब्सिडी पर तंज कसने शुरू कर दिए थे।

दिल्ली विधान सभा की 70 सीटों पर आज यानि 5 फरवरी को मतदान हुआ, जिसमें फिर से फ्रीबीस पर चर्चा का माहौल है। जहां भारत का उच्च और मध्यम वर्ग लगातार गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी और तमाम तरह के आर्थिक लाभों का विरोध इस आधार पर करता आया है कि ‘उनके मेहनत के पैसे को सरकार गरीबों में बांट देती है’ वहीं उनका यह भी मानना है की यह प्रक्रिया आर्थिक हित के लिए भी खतरनाक साबित होगी।

इस लेख में हम सब्सिडी और तमाम तरह की सरकारी छूटों, उसका प्रधानमंत्री द्वारा विरोध और माध्यम वर्ग की पीड़ा का आकलन करने का प्रयास करेंगे।

इस लेख में हम WTO द्वारा जारी मापदंडों और कारणों के आधार पर भारत की सब्सिडी रणनीति को भी समझने का प्रयास करेंगे जिसमें एक बड़ा हिस्सा न केवल रोजगार पा रहा है अपितु हमारी आर्थिक व्यवस्था में भी इसके क्या मायने हैं समझने का मौका मिलेगा।

विकिपीडिया की परिभाषा के अनुसार “सब्सिडी, अनुदान या सरकारी प्रोत्साहन एक प्रकार का सरकारी व्यय है, जो व्यक्तियों और परिवारों के साथ-साथ व्यवसायों के लिए किया जाता है, जिसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था को स्थिर करना होता है। यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों और परिवारों को आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं तक पहुंच प्राप्त हो, जबकि व्यवसायों को टिके रहने और/या प्रतिस्पर्धी बने रहने का अवसर मिलता है।

सब्सिडी न केवल दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देती है, बल्कि आर्थिक झटकों का जवाब देने में सरकारों की मदद भी करती है। सब्सिडी के विभिन्न रूप हैं – जैसे टेक्निकल सब्सिडी, डायरेक्ट सब्सिडी, सॉफ्ट लोन सब्सिडी, टैक्स रिलैक्सेशन सब्सिडी, मार्किट प्रमोटिंग सब्सिडी आदि।

एक आंकड़े के अनुसार भारत दुनिया का पांचवां देश है जो किसानों को अलग-अलग तरीके से सब्सिडी देता है। सबसे ज्यादा सब्सिडी देने वाले देशों में फिलीपीन्स, इंडोनेशिया, चीन, यूरोपियन यूनियन हैं।

इसके अलावा अगर देखा जाए तो आर्गेनाइजेशन फॉर इकनोमिक एंड कमर्शियल डेवलपमेंट (OECD) तथा WTO जैसी संस्थाओं का मानना है कि विकासशील देश जैसे भारत और विकसित देश जैसे चीन किसानों को भरी मात्रा में सब्सिडी दे रहे हैं जिसके कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापार विकृति समस्या उत्पन्न हो गयी है। इसलिए WTO की सब्सिडी खासकर कृषि सब्सिडी पर क्या समझदारी है इसे भी समझना बेहद जरुरी हो जाता है।

विश्व व्यापार संगठन के दावों की मानें तो यह संस्था मुख्य रूप से वैश्विक व्यापार में समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए सब्सिडी को विभिन्न समझौतों के माध्यम से विनियमित करता है। जहां संगठन का प्रारूप इस और साफ़ इशारा करता है कि सदस्य राष्ट्र ‘रेड बॉक्स’ और एम्बर बॉक्स’ में आने वाले विषयों पर किसानों को सब्सिडी देना बंद करे। 

वहीं संगठन ब्लू बॉक्स और ग्रीन बॉक्स में सब्सिडी देने से मन नहीं है। परन्तु यह समझने का मसला है कि आखिर ऐसी क्या चीजें हैं जो अलग-अलग वस्तुएं इन अलग-अलग बॉक्सेस में हैं और दोनों के साथ अलग नीति को अपनाने के पीछे विश्व व्यापार संगठन की क्या मंशा है।

एम्बर बॉक्स – लगभग सभी घरेलू समर्थन उपाय जो उत्पादन और व्यापार को विकृत करते हैं (कुछ अपवादों के साथ) एम्बर बॉक्स में आते हैं। इसे कृषि समझौते के अनुच्छेद 6 में परिभाषित किया गया है, जिसमें ब्लू और ग्रीन बॉक्स को छोड़कर सभी घरेलू समर्थन शामिल हैं। इनमें मूल्य समर्थन उपाय या उत्पादन की मात्रा से सीधे संबंधित सब्सिडी शामिल होती हैं। एम्बर बॉक्स में विकासशील देशों को कुल अपने कृषि मूल्य का केवल 10 % खर्च करने की अनुमति दी गयी है। वहीं विकसित देशों को 5 % खर्च करने की छूट है।

इसके अलावा ब्लू बॉक्स में भी कटौती का प्रावधान निहित है परन्तु ग्रीन बॉक्स पूरी तरह से किसी भी प्रकार के नियंत्रण से मुक्त है। ग्रीन बॉक्स मूल रूप से पर्यावरण सुधार, तकनीकी विकास पर जोर देता है, जिसमें सभी विकसित देश विशेष रूप से प्रभावकारी है। नयी बीज तकनीक, नए मशीन, बिग फर्म का जहां सीधा फायदा बड़े किसान विकसित देश के उठा पा रहे हैं वहीं विकासशील देश के किसान पूर्णतः तकनीक के स्टार पर और लगभग पूंजी के स्टार पर विदेशों पर आश्रित हैं।

यही एक बहुत बड़ी वजह है कि जहां WTO फ्री मार्केट के कांसेप्ट के द्वारा हमारे बाजारों में विदेशी सस्ते माल को अंदर आने की अबाध्य अनुमति देता है वहीं हमारे देश में तकनीकी विकास के लिए भी पूरी तरह से बाहरी देशों पर निर्भरता तो बढ़ावा दे रहा है। विदेश से आने वाले सस्ते समान से आज देश के बाजार को पाट दिया गया है।

परन्तु यह फ्रीबीस के एक तरफ की सच्चाई है परन्तु हमारे देश के प्रधानमंत्री का यह मानना है कि किसी भी प्रकार की सब्सिडी देश के आर्थिक विकास के हित में नहीं है। फिर सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि चीन जो पूरी अपनी खेती का 37 % सब्सिडी के रूप में किसानों को दे रहा है वह कैसे लगातार न केवल कृषि अपितु सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था में पूर्णतः आत्मनिर्भर है।  जी हां यह खबर 28 जनवरी 2025 की है जब द इकोनॉमिक्स टाइम्स ने एक खबर में खुलासा करते हुए बताया की केवल एक दिन में अमेरिका बेस्ड एनवीडिया कंपनी को 592. 7 $ बिलियन का नुकसान डीपसीक के कारण सहना पड़ा।

जबकि वास्तविक सच्चाई कुछ और ही है जिसे न दिखते हुए देश के मध्यम वर्ग को दिग्भ्रमित किया जा रहा है। अगर हम भारत के अंदर जीवाश्म ईंधन पर मिलने वाली सब्सिडी की बात करें तो वह 2013 से 2023 के बीच में 85 प्रतिशत से ज्यादा घटाया जा चुका है जिसके कारण पेट्रोल, गैस और डीजल तीनों के कीमत आसमान छू रही हैं।

अगर हम मात्र 2 साल के कॉर्पोरेट लोन वेव ऑफ इसी लोन माफ़ी का आंकड़ा निकालें तो पूरा कृषि सब्सिडी, एजुकेशन सब्सिडी शामिल हो जाएंगे। केवल 2022 और 2023 में भारतीय सरकार ने 3.78 ट्रिलियन रुपये का कर्ज कॉर्पोरेट घरानों का माफ़ कर दिया है। वही इस देश के अंदर में प्रत्यक्ष और परोक्ष कर की दरों में लगातार इजाफा हुआ है।

इसलिए भारत के मध्यम वर्ग को न केवल देश के किसानों और मजदूरों के साथ खड़े होकर असली शोषक के खिलाफ आवाज़ बुलंद करनी चाहिए अपितु इस संदर्भ में सहयोग भी देना चाहिए। परन्तु भारत का मध्यम वर्ग का ऊपरी तबका जो खुद को यहां के शासक वर्ग के नजदीक पता है उसे अपने वर्गीय सुख से दूर हो जाने के दर ने किसी भी बड़े कदम को उठाने से रोका हुआ है।

इसलिए फासीवादी सरकार भी इस वर्ग से अपना नियंत्रण छोड़ना नहीं चाह रहा है। एक तरफ तो एक बड़े कर नीति के तहत उन्हें दबा रहा है वहीं उसका ठीकरा मजदूर, किसान और महिलाओं के ऊपर फोड़ रहा है।

(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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