‘महाकुंभ’ में डुबकी न लगाने का साहस कर, राहुल गांधी ने वह काम कर दिखाया, जिसकी हिम्मत नेहरू-गांधी भी नहीं जुटा पाए थे 

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मानव जाति के इतिहास में दो तरह के नेता हुए हैं, एक तरह के वे जो जनता की पिछड़ी भावनाओं, आस्थाओं, यहां तक कि अंधविश्वासों के सामने झुककर, जनता का समर्थन हासिल करते हैं, उनका वोट प्राप्त करते हैं। इन भावनाओं, आस्थाओं और अंध विश्वासों में धार्मिक भावनाएं, आस्थाएं और अंधविश्वास भी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता की अतार्किक, अवैज्ञानिक और पिछड़ी मानसिकता को बढ़ावा देते हैं, उसके पीछे चलते हैं। 

दूसरी तरह के वे नेता होते हैं, जो जनता की इन पिछड़ी भावनाओं, मूल्यों-विचारों और आस्थाओं के सामने झुकते नहीं हैं, वे जनमानस को इन पिछडे़ मूल्यों के आधार पर अपने साथ नहीं करते, बल्कि उनकी जिंदगी की बुनियादी जरूरतों और सुविधाओं-सेवाओं के आधार पर उन्हें अपने साथ करते हैं, उनका वोट हासिल करते हैं।

राहुल गांधी ने जनमानस, मीडिया और आरएसएस-भाजपा के प्रचार के सामने नहीं झुके और कुंभ में डुबकी लगाने नहीं गए। थोड़ा सरल शब्दों में कहें तो अतार्किकता, अवैज्ञानिकता और आस्था के महासागर से डरे नहीं और उसमें डुबकी लगाकर लोगों का  समर्थन हासिल करने या भविष्य में वोट बैंक बनाने की कोशिश नहीं की। इतना ही नहीं, इससे भी आगे बढ़कर भविष्य में इसका इस्तेमाल उनके खिलाफ दुष्प्रचार के लिए किया जाएगा, उन्हें गैर-हिंदू साबित करने के लिए किया जाएगा, इटालियन साबित करने के लिए किया जाएगा, यहां तक हिंदू विरोध साबित करने के लिए किया जाएगा, इसकी भी उन्होंने चिंता नहीं की। 

जबकि ऐसे सारे आरोप उनके ऊपर जब से उन्होंने राजनीति शुरू की तब से लगाया जा रहा है, खासकर आरएसएस-भाजपा की मशीनरी और कार्पोरेट मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा। राहुल गांधी ने यह काम उस समय किया है, जब आरएसएस-भाजपा की प्रचार मशीनरी ने इस कुंभ को लोगों की धार्मिक आस्था का आयोजन नहीं रहने दिया, इसे आप हिंदू हैं या नहीं हैं, इसके साथ जोड़ दिया। हम सबको पता है कि आज यदि आप सच्चे हिंदू नहीं साबित होंगे, तो आप सच्चे भारतीय और सच्चे राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते हैं, यह परिभाषा भाजपा-आरएसएस ने बाकायदा गढ़ दिया है।

राहुल का इस महाकुंभ में डुबकी न लगाने का निर्णय इस मामले में भी बहुत महत्वपूर्ण है कि 2024 के लोक सभा चुनावों से पहले वे पता नहीं अपनी इच्छा से या अपने सलाहकारों की सलाह पर या कांग्रेसियों के दबाव में न केवल रात-दिन खुद को हिंदू साबित करने, बल्कि पक्का हिंदू साबित करने के लिए खुद को ब्राह्मण भी घोषित किए, अपने पिता राजीव के जनेऊ का भी इस्तेमाल किया। 

हिंदू ही नहीं, खुद का गोत्र भी बताते रहते थे। महाकुंभ में डुबकी न लगाने का यह साहसपूर्ण निर्णय यह बताता है कि वे खुद जनता के पीछे चलने वाले नहीं, बल्कि जनता की अगुवाई करने वाले नेता के रूप में प्रस्तुत करने के लिए तैयारी कर रहे हैं। यह देश के लिए एक सुखद संदेश है।

ऐसा नहीं इसके पहले ऐसे नेता नहीं हुए, लेकिन बहुत कम हुए हैं। इन नेताओं की सूची में सबसे पहला नाम तमिलनाडु में डीएमके पार्टी के पहले मुख्यमंत्री अन्नादुरई का आता है। तमिलनाडु जैसे धार्मिक आस्था वाले प्रदेश में उन्होंने जनता की धार्मिक आस्था के पीछे न चलने का रास्ता चुना। इस विरासत को एम. करुणानिधि ने आगे बढ़ाया, वह घोषित तौर पर नास्तिक थे। 

वे मंदिरों-मस्जिदों और गिरिजाघरों और कुंभों-महाकुंभों या इसी तरह के अन्य आयोजनों में डुबकी लगाकर राजनीति नहीं किए, न ही वोट जुटाया। उन्होंने जनता के वास्तविक मुद्दों पर राजनीति की और लोगों का समर्थन हासिल किया। उन्होंने जनता को उसकी कूपमंडूकताओं, अतार्किक-अवैज्ञानिक विचारों, आस्थाओं और अंधविश्वासों से मुक्त करने की हर कोशिश भी की। तमिलनाडु के वर्तमान मुख्यमंत्री एमके स्टालिन भी उसी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। 

इस मामले में कुछ दलित राजनेता खासकर मान्यवर कांशीराम और मायावती ने भी कभी लोगों की धार्मिक आस्थाओं में डुबकी लगाकर अपनी राजनीति नहीं की। हालांकि भाजपा के खेमे के दलित राज नेताओं में खुद को ज्यादा से धार्मिक साबित करने की होड़ सी लगी रहती है,  रामकोविंद ने किया और वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी (आदिवासी समाज से आने वाली) मुर्मु इसके उदाहरण हैं। 

कुछ और राजनेता ऐसे रहे होंगे, ज़रूर ही रहे होंगे। लेकिन अधिकांश चर्चित नेताओं ने जनता की पिछड़ी आस्थाओं और भावनाओं के सामने समर्पण ही किया है। इस कुंभ में अखिलेश यादव जैसे नेता ने न केवल कुंभ में डुबकी लगाई बल्कि उसका बाकायदा प्रचार-प्रसार भी किया। पूरा मामला केवल व्यक्तिगत आस्था से ज्यादा, कुंभ के जनसैलाब के सामने झुकना लगा। वोटरों की भावनाओं के सामने झुकना ज्यादा लगा। इसी दौरान वे शंकराचार्य के चरणों में बैठे हुए भी दिखे। 

खुद राहुल गांधी जिस राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के आज नेता हैं और जिस पारिवारिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आए हैं, वे लोग भी जनता की धार्मिक भावनाओं के सामने डुबकी लगाने से खुद को नहीं बचा पाए। जिस नेहरू को वैज्ञानिक सोच का नास्तिक व्यक्ति कहा जाता है, उन्होंने भी बाकायदा कुंभ में डुबकी लगाई थी। इतना ही नहीं, खुद को जनेऊ धारण करने से भी रोक नहीं पाए। जिस चित्र का इस्तेमाल डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब में किया है। 

कोई कह सकता है कि ऐसा उन्होंने सांस्कृतिक कदम के तौर पर किया था। ये सब बहानेबाजियां हैं, सच को स्वीकार करने से बचने की कोशिशें हैं। इंदिरा जिन्हें नेहरू का बौद्धिक वारिस तक कहा जाता है, धार्मिक तौर पर एक कूपमंडूक राजनेता दिखती हैं। देवरहवा बाबा, जैसे बाबाओं के चरणों में लोटती रहीं। मंदिरों का चक्कर लगाती रहीं। बाबाओं कौन कहे, चंद्रास्वामी जैसे तांत्रिकों के चक्कर में भी पड़ी रहीं। कुंभ में डुबकी लगाने से भी खुद को रोक नहीं पाईं। 

वामपंथी राजनेताओं का इतिहास भी इस मामले में कोई उजला नहीं रहा है। पश्चिम बंगाल की वामपंथी पार्टियां, खासकर सत्तारूढ़ पार्टी सीपीएम और सीपाआई दुर्गा पूजा को सांस्कृतिक आयोजन कहकर उसमें डुबकी लगाते रहे हैं, बाकयदा उसका महिमा मंडन और गुणगान करते रहे। जबकि दुर्गा का न केवल हिंदुत्व की प्रतीक हैं, बल्कि उनका मिथक पूरी तरह वर्ण-जातिवादी वर्चस्व स्थापित करने वाली मिथकीय देवी का रहा है। वे देवताओं की ओर से असुरों का विनाश (महिषासुर मर्दनी) करने वाली देवी हैं, उनका यही रूप पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा का सबसे प्रभावी रूप है। 

हम भारतीयों ने जिन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा दिया है, जो स्वतंत्रता आंदोलन में जनता के सबसे बडे़ नेता थे, उन्होंने धार्मिक भावनाओं को अपनी राजनीति का एक मुख्य आधार बनाया। धार्मिक-मिथकीय रामराज्य, गीता, रामधुन और वेद उनकी राजनीति के आधारों में एक बहुत ही बुनियादी तत्व था। उन्होंने राजनीति का पूरी तरह धार्मिककरण कर दिया, भले ही इस धार्मिककरण में इस्लाम और ईसाइयत आदि को समान महत्व देते रहे, देने की बात करते रहे हों। 

उन्होंने भारतीय जनता की धार्मिक भावनाओं का खूब दोहन किया। शाकाहार, गऊ माता, ब्रह्मचर्य आदि को उन्होंने महान मूल्य के रूप में प्रस्तुत किया। इन सब चीजों से जब भारत के मुसलमान एक हद तक कांग्रेस से दूर होने लगे, तो उन्होंने मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को न केवल सहलाकर, बल्कि उसे और भड़का कर उन्हें अपने साथ करने की कोशिश किया, जिसमें वे कुछ हद तक सफल रहे। उन्होंने इस्लामिक जगत के खलीफा, दूसरे शब्दों में विश्वव्यापी इस्लामी राज्य के मुखिया तुर्की के खलीफा के राज्य को बचाने की भारत के मुसलमानों की धार्मिक मुहिम में उनका साथ दिया, जिसे खिलाफत आंदोलन कहा जाता है, जिसके चर्चित चेहरे अली बंधु बने। 

यह वह खलीफा थे, जिन्हें कमालपाशा के नेतृत्व में खुद तुर्की के लोग हटाने का  संघर्ष कर रहे थे और आखिरकार हटा भी दिया। गांधी धर्म के महासागर में आजीवन डुबकी लगाते रहे। भले ही गांधी को भारत को आजादी दिलाने का श्रेय जाता है, जाना भी चाहिए, लेकिन उन्होंने भारतीय जन को धार्मिक तौर पर कूपमंडूक बनाने में या उनकी कूपमंडूकता को पल्लवित-पोषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, चाहे वह हिंदुओं की कूपमंडूकता हो या मुसलमानों की इससे कोई फर्क नहीं  पड़ता।

राहुल गांधी यदि धर्म की कूपमंडूकता को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाते हैं, उनके कुंभ में डुबकी न लगाने का संकेत यदि यह है तो इस देश के लिए एक अच्छा संकेत माना जाना चाहिए, वह एक बड़ी पार्टी के बडे़ नेता हैं। धार्मिक भावनाओं को सहलाकर या उसके सामने झुक कर, चाहे वह हिंदुओं की धार्मिक भावना हो या मुसलमानों की इस देश और इस देश की जनता का कोई भला नहीं होने वाला है, बल्कि बुरा बहुत होने वाला है, जिसे हम देख रहे हैं।

फिलहाल राहुल गांधी ने एक साहसिक कदम उठाया, जिसे इतिहास ज़रूर याद रखेगा।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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