ग्राउंड रिपोर्ट : यहां कठिनाइयों से गुज़रती है ज़िंदगी

पटना। देश के बड़े शहरों और महानगरों में दो तरह की ज़िंदगी नज़र आती है। एक ओर जहां चमचमाती सड़कें, गगनचुंबी इमारतें और आधुनिक सुख सुविधाओं से सजी कॉलोनियां होती हैं, वहीं दूसरी ओर संकरी गलियों में झुग्गी झोपड़ियां भी आबाद होती हैं। जिसे स्लम बस्ती के रूप में जाना जाता है। जहां लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करते नजर आते हैं। यहां रहने वाला प्रत्येक परिवार सामाजिक और आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा होता है।

इन्हीं शहरों में एक बिहार की राजधानी पटना भी है। जहां बघेरा मोहल्ला नाम से आबाद स्लम बस्ती की हकीकत और यहां रहने वाले लोगों के संघर्ष की कहानी आपको बता रही हूं। शहर के मशहूर गर्दनीबाग इलाके में आबाद यह बस्ती पटना हवाई अड्डे से महज 2 किमी दूर और बिहार हज भवन के ठीक पीछे स्थित है। ऐतिहासिक शाह गड्डी मस्जिद, (जिसे स्थानीय लोग सिगड़ी मस्जिद के नाम से जानते हैं), से भी इस बस्ती की पहचान है।

इस बस्ती तक पहुंचने के लिए आपको एक खतरनाक नाला के ऊपर बना लकड़ी के एक कमजोर और चरमराते पुल से होकर गुजरना होगा। सुबह की पहली किरण के साथ ही, इस बस्ती में हलचल शुरू हो जाती है। गीली मिट्टी और टूटे नलों से रिसते पानी के बीच महिलाएं अपने दिनभर के कामों में जुट जाती हैं। वहीं पुरुष रोज़गार की तलाश में निकल जाते हैं।

इस बस्ती का जीवन आसान नहीं है। यहां पीने का साफ पानी मिलना किसी सपने से कम नहीं, और शौचालय की अनुपलब्धता ने खुले में शौच को मजबूरी बना दिया है। बिजली भी आँख-मिचौली खेलती रहती है। इस बस्ती के लोगों का स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बहुत मुश्किल होती है। अक्सर गर्भवती महिलाओं, बुज़ुर्गों और छोटे बच्चों के लिए स्थिति गंभीर हो जाती है।

इस बस्ती के निवासी पिछले आठ वर्षों से प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अपना मकान होने की बाट जोह रहे हैं। लेकिन दस्तावेज़ पूरा नहीं होने के कारण उनका ख्वाब अधूरा रह जा रहा है। यहां रहने वाली 80 वर्षीय रुकमणी देवी बताती हैं कि वह इस बस्ती में पिछले 40 सालों से रह रही हैं। इस बस्ती में करीब 250-300 घर हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 700 के करीब है।

रुकमणी देवी की पहचान क्षेत्र में एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी रही है। जो इस बस्ती की महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ने का काम करती रही हैं। वह बताती हैं कि 1997 में सरकार ने इस बस्ती को स्लम क्षेत्र घोषित किया था। यहां लगभग 70 प्रतिशत अनुसूचित जाति समुदाय के लोग आबाद हैं। जिनका मुख्य कार्य मजदूरी और ऑटो रिक्शा चलाना है। वह बताती हैं कि इस बस्ती के सभी परिवार के पास अपना मकान के नाम पर केवल झुग्गी झोपड़ी है।

इस बस्ती में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम है। बच्चे, जो कल का भविष्य हैं, वे यहां बचपन में ही संघर्ष करना सीख लेते हैं। बस्ती में एक प्राथमिक स्कूल तो है, मगर उनमें संसाधन नहीं है। शिक्षकों की कमी और सुविधाओं का अभाव बच्चों को शिक्षा से दूर कर रही है। नतीजा यह है कि यहां कम उम्र में ही बच्चे काम पर लग जाते हैं और शिक्षा उनसे कोसों दूर हो जाती है। वहीं पाँचवीं के बाद जब बच्चे पढ़ने के लिए गर्दनीबाग हाई स्कूल जाते हैं तो उन्हें भेदभाव का सामना करनी पड़ती है।

इस संबंध में बस्ती की 14 वर्षीय सोनल (बदला हुआ नाम) कहती है कि स्कूल में हमें निम्न जाति का बताकर बहुत सी गतिविधियों से दूर रखा जाता है। मुझे कबड्डी खेलने का बहुत शौक है लेकिन मुझे स्कूल की टीम में कभी शामिल नहीं किया जाता है। कई बार इस भेदभाव को देखकर स्कूल जाने का मन भी नहीं करता है।

इस बस्ती में रहने वाली महिलाओं की समस्याएं भी बहुत अधिक है। घर के काम, पानी भरने की जद्दोजहद, बच्चों की परवरिश और ऊपर से असुरक्षा का डर, ये सब उनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। 33 वर्षीय सीमा देवी कहती हैं कि वह लोग पिछले 30-40 सालों से इसी बस्ती में रह रहे हैं। यहां सुविधाओं की कई कमियां हैं। लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता है। यहां पीने के पानी के लिए एकमात्र हैंडपंप है। जिसका पानी गर्मियों में अक्सर नीचे चला जाता है, वहीं बारिश के दिनों में इसमें से गंदा पानी आता है।

बस्ती के लोगों को स्वास्थ्य की सुविधा भी बहुत कम मिलती है। बारिश के दिनों में नाले का पानी उफन कर बस्ती में घुस जाता है। जान बचाने के लिए लोग सड़क किनारे आश्रय बना कर रहने को मजबूर होते हैं। शिक्षा की कमी की वजह से अंधविश्वास ने इस बस्ती को पूरी तरह से अपनी जकड़ में ले रखा है। परिवार किसी मानसिक बीमारी का इलाज डॉक्टर की जगह ओझा को दिखाने को प्राथमिकता देते हैं। इससे सबसे अधिक किशोरियां प्रभावित होती हैं। अक्सर इसके कारण उनकी जान पर बन आती है।

हालांकि इस स्लम बस्ती के लोगों की समस्याओं का हल भी संभव है। लेकिन इसके लिए सरकार और प्रशासन के साथ साथ सामाजिक संगठनों को भी आगे आने और मिलकर काम करने की जरूरत है। उन्हें बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता जैसे हर झुग्गी तक पीने का साफ पानी और शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। वहीं बस्ती में संचालित स्कूल की स्थिति सुधार कर और महिलाओं के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र खोलकर शिक्षा को बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मोबाइल हेल्थ क्लीनिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले जा सकते हैं। जिससे गर्भवती महिलाओं और बच्चों को फौरन स्वास्थ्य सुविधा मिल सके।

इन सुविधाओं की प्राप्ति के लिए बस्ती में ही सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम चलाने की जरूरत है, जहां बस्ती के लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सकता है। दरअसल, पटना की इस स्लम बस्ती में रहने वाले लोग शहर का एक अनदेखा चेहरा हैं। जो प्रतिदिन अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिदिन संघर्ष करते हैं। हालांकि उनकी समस्याएं केवल उनकी नहीं, बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है। जिसकी तरफ इस दिशा में काम करने वाली सभी एजेंसियों को ध्यान देने की जरूरत है ताकि कठिनाइयों से गुजरती बघेरा मोहल्ला के लोगों का जीवन आसान हो सके।

(बिहार के पटना से सुप्रिया सिन्हा की ग्राउंड रिपोर्ट)

More From Author

यूरोपीय नेताओं का बड़बोलापन और जेलेन्स्की की नामसझी

किसान आंदोलन की अग्रगति का सवाल

Leave a Reply