एक महीने पूर्व, अंजना ओम कश्यप ने बीटी टीवी के एक शो पर निर्मला सीतारमण से एक बातचीत के दौरान यह सवाल पूछा कि “राहुल गांधी का यह कहना है कि आप उपभोग केंद्रित अर्थव्यवस्था बनाना चाह रही हैं जबकि उत्पादन और विनिर्माण पर देश को आत्मनिर्भरता पर आपका कोई ध्यान नहीं है।”
वित्त मंत्री निर्माण सीतारमण जवाब देने से पहले बिना किसी रुकावट के कहा कि “ये आए दिन आकर कहते रहते हैं कि चीन हमसे आगे निकल गया है विनिर्माण और औद्योगिक उत्पादन में उनका कोई जवाब नहीं है। परन्तु इससे पहले चीन के साथ वो क्या साइन करके आए थे। उनके दादाजी के समय में चीन ने कितना जमीन भारत से हाथिया लिया था।” जी हां ये जवाब है देश की वित्त मंत्री का जिसे इसका जवाब आर्थिक विश्लेषणों के साथ देना था पर वह जियो पॉलिटिकल ओपिनियन देते हुए आगे निकल गईं।
बहरहाल भारत के विनिर्माण और औद्योगिक उत्पादन पर सवाल काफी लंबा रहा है और यह कोई भारतीय जनता पार्टी की देन भी नहीं है। परन्तु भारतीय जनता पार्टी ने जो प्रयास किए उसे नकारा नहीं जाना चाहिए और उसपर बात भी की जानी चाहिए।
2023–24 के दौर में मोबाइल फोन के उत्पादन को लेकर बड़े खुलासे किए गए की भारत 99% मोबाइल का उत्पादन स्वयं “मेक इन इंडिया” योजना के तहत करने लगा है। ये वो खबर थी जो सारे देश के समाचार पत्रों की सुर्खियों में आ गया था। ये वो सवाल नहीं था कि “जंगल में मोर नाचा किसने देखा” बल्कि सरकार उसपर सरकारी आंकड़े दे रही थी कि हमने 2017 से 2023 के बीच किस प्रकार से मोबाइल के आयात पर नियंत्रण लगाया है जबकि उसके निर्यात में एक गुणात्मक वृद्धि देखी गई है।
सरकारी आंकड़े प्रदर्शित करते हुए देश के बड़े दिग्गज मंत्रियों ने यह बताया कि अप्रैल 2017 से मार्च 2018 की एक वर्ष की अवधि में मोबाइल फोन का आयात लगभग 3.6 अरब डॉलर था, जबकि फोन निर्यात मात्र 33.4 करोड़ डॉलर था। इस प्रकार शुद्ध निर्यात -3.3 अरब डॉलर (या कहें तो इतना आयात हुआ) था। वित्तीय वर्ष अप्रैल 2022- मार्च 2023 में मोबाइल फोन का आयात घटकर 1.6 अरब डॉलर रह गया, जबकि निर्यात करीब 11 अरब डॉलर रहा।
अर्थात 9.8 अरब डॉलर का देश को निर्यात के दम पर फायदा होता दिखाया गया। इस खबर ने देश के अर्थशास्त्रियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और जिज्ञासा भी जगा दी कि भारत ने इतनी जल्दी इलेक्ट्रॉनिक उत्पादन में इजाफा किया कैसे।
यही जिज्ञासा अर्थशास्त्रियों को “मेक इन इंडिया” से आगे ले जाते हुए “असेंबल इन इंडिया” तक पहुंचती है। इसका मतलब यह हुआ कि एक मोबाइल के निर्माण में कई प्रकार के पुर्जों की जरूरत होती है जैसे प्रोसेसर समेत एलसीडी डिस्प्ले, टच स्क्रीन, प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी), प्रोसेसर (सीपीयू), मेमोरी चिप्स, बैटरियां, कैमरा मॉड्यूल, सेंसर, चार्जिंग पोर्ट, कनेक्टर्स और विभिन्न अन्य इलेक्ट्रॉनिक घटक जिसका भारत चीन से शुद्ध आयातक है।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल में लगने वाले मुख्य 15 उत्पाद जिसे जोड़कर मोबाइल बनाया जाता है उसका भारत के शुद्ध आयातक देश है। और अगर इन आयातों के आंकड़ों को मिला के देखा जाए तो मोबाइल व्यापार का नेट प्रॉफिट (लाभ) के बजाय भरी नुकसान से गुजर रहा है।
सरकार ने हड़बड़ी और आंकड़ों में कुछ विशेष दिखने के लिए 2018 में कुछ नीतिगत संशोधन किए थे जिसके अनुसार मोबाइल पर टैरिफ रेट को लगभग 20% तक बढ़ा दिया था जिससे देश में मोबाइल आयात महंगा हो गया था। परन्तु इसमें समझने वाली बात ये हैं कि इसी समय सरकार देश में मोबाइल निर्माण हेतु सब्सिडी देने हेतु भी एक योजना की शुरुआत की जिसका उद्देश्य फिनिश्ड मोबाइल पर 6% सब्सिडी देना था।
परन्तु इसमें यह एक विशेष बात है कि यस सब्सिडी फिनिश्ड मोबाइल पर है न कि उसके पुर्जों पर क्योंकि वह वैल्यू एडिशन का भाग है और विश्व व्यापार संगठन की नियमों के अनुसार वैल्यू एडिशन पर सब्सिडी नहीं दिया जा सकता है। इन सारे को जोड़ने और घटाने के बाद जो आंकड़ा सामने आया उसने देश की अर्थव्यवस्था की पोल खोल दी थी।
2017 में जो मोबाइल का आयात 12.5 अरब डॉलर था, वह 2023 में बढ़ कर 21 अरब डॉलर के आसपास पहुंच गया है। अर्थात वास्तविकता को वही जामा पहना दिया गया जो मेकिंग को असेंबलिंग करके किया गया।
मोबाइल कंपनियां अक्सर अपने उत्पादों को “मेड इन इंडिया” के रूप में लेबल करती हैं, भले ही वे केवल भारत में असेंबल किए गए हों, इसके पीछे कई कारण होते हैं:
1. बाजार में अपील : “मेड इन इंडिया” उत्पाद को हाइलाइट करने से स्थानीय उपभोक्ताओं के साथ बेहतर जुड़ाव होता है, जो घरेलू उत्पादों को प्राथमिकता देते हैं और इससे ब्रांड निष्ठा (ब्रांड लॉयल्टी) बढ़ती है। यह जुड़ाव प्रोडक्ट से ज्यादा हिंदुत्व राष्ट्रवाद से ज्यादा आ रहा है जिसमें देश के सामान के नाम पर चीजें बेचना इतना आसान है कि कुछ भी व्यापार संभव है।
2. सरकारी नीतियां : भारतीय सरकार “मेक इन इंडिया” जैसी पहलों के माध्यम से स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा देती है। कंपनियां इन नीतियों के साथ तालमेल बिठाने और प्रोत्साहनों का लाभ उठाने के लिए अपने उत्पादों को “मेड इन इंडिया” के रूप में लेबल कर सकती हैं। सब्सिडी का फायदा ज्यादातर असेंबल करने वाली कंपनियां कर रही है जबकि भारत की बड़ी कंपनियां भी देश में आ रही है जिसका बड़ा कारण उन्हें सस्ते कीमत पर जमीन और सब्सिडी मिल रहा है वहीं देश के नेताओं को सस्ती पब्लिसिटी।
3. लागत दक्षता : भारत में असेंबल करने से टैरिफ और शिपिंग से जुड़ी लागतें कम हो जाती हैं, जिससे कंपनियां स्थानीय बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकती हैं।
4. सप्लाई चेन अनुकूलन : स्थानीय रूप से असेंबल किए गए उत्पादों से सप्लाई चेन अधिक सुव्यवस्थित होती है, लीड टाइम (डिलीवरी का समय) घटता है और बाजार की मांगों के प्रति तेजी से प्रतिक्रिया दी जा सकती है। परन्तु आत्मनिर्भर न होने के कारण हमेशा ऐसी बाजारों को बाहरी बाजार के उतर चढ़ाव का भी काफी सामना करना पड़ता है।
5. नियामक अनुपालन : कुछ नियमों के अनुसार, यदि उत्पाद के निर्माण की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया देश में होती है, तो उसे “मेड इन” लेबल दिया जा सकता है, भले ही इसके घटक विदेशों से मंगाए गए हों। अर्थात नियमन के द्वारा वैद्यता हासिल करने का यह चलन उत्पादन की न्यायिक विन्यास की मदद से आगे बढ़ रहा है और न्यायिक विन्यास देश के झूठे अर्थशास्त्र की वकालत कर रहा है।
6. उपभोक्ता धारणा : “मेड इन इंडिया” लेबल उत्पाद के मूल्य को बढ़ा सकता है, जिससे यह उच्च गुणवत्ता या स्थानीय कारीगरी का प्रतीक बन सकता है और उपभोक्ताओं के खरीदारी निर्णय को प्रभावित कर सकता है। परन्तु क्या लेबल लगाने से वैल्यू सच में बढ़ता है। तो इसका जवाब है नहीं। चाहे वह मार्क्सवादी हो या पूंजीपति यह दोनों के लिए यह स्पष्ट है कि लेबल लगाने से किसी उत्पाद के मूल्य में कोई इजाफा नहीं होता पर “उग्र राष्ट्रवाद का फायदा बाजार सीधे तौर पर उठाएगा।
उपरोक्त विश्लेषण यह बात स्पष्ट करता है कि देश की आर्थिक दशा बेहद ही नाजुक है। वहीं दूसरी तरफ इसकी वैश्विक बाजार पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जिसके कारण कोई भी बड़ा झटका देश के आर्थिक विन्यास को न केवल खराब कर देगा अपितु श्रीलंका के अर्थव्यवस्था को तरह इसे विदेशी पूंजी पर और आश्रित बना देगा जिसका खामियाजा हमारी आने वाली नस्लों को सीधे तौर पर भोगना पड़ेगा। मेरा फिर से ध्यान एक पूर्णतः नवीन आर्थिक व्यवस्था पर है जहां अर्थव्यवस्था के केंद्र में बाजार न होकर इंसान हो और जीडीपी के विकास की जगह मानव जीवन के संसाधन के साथ संबंध के नियमित विकास की एक परिपाटी चले।
(निशांत आनंद स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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