लल्लेश्वरी: महिला स्वतंत्रता की अनूठी प्रतीक

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लल्लेश्वरी कई नामों से जानी जाती हैं। कोई उन्हें “मां लाल”, कहता है, कोई “मां लल्ला”,तो कई उन्हें लाल द्याद,यानी “लाल दादी” कहता है। लल्लेश्वरी लल्ला आरिफ़ा, लाल दीदी, लल्ला योगीश्वरी/योगेश्वरी और लालीश्री के नाम से भी पुकारी जाती हैं। जिसे जो भाता है,वह उसी नाम से लल्लेश्वरी का नाम लेता है। मगर, लल्लेश्वरी कश्मीर की फ़ज़ाओं में कुछ इस तरह रची-बसी है, जहां हिंदू-मुसलमान का फ़र्क़ गर्क हो जाता है, आम और ख़ास अपना अर्थ खो देता है, क्योंकि लल्लेश्वरी कश्मीर के शब्दों में उच्चरित होती है, कश्मीर की भाषा में है, वहां की संस्कृति में है। न धर्म का भेद,न जाति का भेद।लल्लेश्वरी अभेद के साथ हर जगह मौजूद है।

लल्लेश्वरी का जीवनकाल 1320 से लेकर 1392 ई. तक का है। वह दुनिया के इतिहास में स्याहकाल के रूप में जाने जाते मध्यकाल के अंधेरे को चुनौती देती कश्मीर की एक रहस्यवादी कवयित्री थीं। कवितायें किसी समाज या संस्कृति के लिए प्राण होती हैं, यह लल्लेश्वरी की वाख से साबित हो जाती है। वाख उनकी कविताओं को कहा जाता है। ये वाख आज भी कश्मीर के लोगों को प्रेरित करती हैं।

लल्लेश्वरी क्रांतिकारी थीं। उन्होंने समाज के कठोर नियमों को तोड़ते हुए आध्यात्मिक और सामाजिक सीमाओं को फिर से परिभाषित किया। एक महिला संत के रूप में उन्होंने अपने समय में महिलाओं पर लगाए गए प्रतिबंधों को पार करते हुए स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयीं। उनकी कविता और जीवन यात्रा आत्म-मुक्ति, आध्यात्मिक ज्ञान और अन्यायपूर्ण परंपराओं के विरोध की अलामत हैं।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ

लल्लेश्वरी का जो जीवनकाल है, वह 14वीं शताब्दी सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल, धार्मिक परिवर्तन और कठोर सामाजिक संरचनाओं का समय था। उस समय महिलाओं को बहुत कम स्वतंत्रता हासिल थी। राजा-महाराजाओं, युद्ध और रक्तपात वाले उस काल में महिलाओं का जीवन मुख्य रूप से घरेलू दायरे तक सीमित था। धार्मिक परंपरायें महिलाओं के लिए सख़्त नियम बनाती थीं, और उनके विचारों को दबा दिया जाता था।

ऐसे समय में लल्लेश्वरी एक साहसी और अपारंपरिक महिला के रूप में सामने आयीं। उन्होंने सामाजिक बंधनों को छोड़कर आध्यात्मिक जागृति का मार्ग अख़्तियार किया। उन्होंने विवाह और भौतिक जीवन को त्याग दिया और सन्यास की राह चुन ली। उनकी कविता गहरी दार्शनिक समझ और व्यक्तिगत स्वाभिमान को दर्शाती है। उन कविताओं के बूते वे भारतीय उपमहाद्वीप में महिला स्वतंत्रता की अग्रदूत बन गयीं।

शुरुआती जीवन और संघर्ष

लल्लेश्वरी का जन्म कश्मीर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रचलित परंपरा के अनुसार, उनका विवाह कम उम्र में कर दिया गया था, जो कि उस समय के लिए एक सामान्य बात थी। लेकिन, उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था। कहा जाता है कि उनके पति और सास उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से लगातार प्रताड़ित किया करते थे। उन्होंने इस प्रताड़ना को सालों तक सहा।

वह चारों तरफ़ से पीड़ा और प्रताड़ना से घिरी थीं। लेकिन, उस पीड़ा और प्रताड़ना से खींची हुई अपनी ज़िंदगी की परिधि को उन्होंने आध्यात्मिकता का केंद्र बना लिया था। वह अक्सर नदियों के किनारे और एकांत स्थानों में ध्यान लगाया करती थीं। उनके भीतर सत्य की खोज चल रही थी और उस तलाश के साथ उनका आत्मबल लगातार मज़बूत होता जा रहा था। इस पूरी प्रक्रिया में वह सामाजिक बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रेरित होती रहीं। सबसे पहले उन्होंने अपना घर छोड़ा। फिर विवाह के बंधन से मुक्त हुईं और आध्यात्मिक यात्रा पर निकल पड़ीं।

उनका यह क़दम आज के हिसाब से भले ही थोड़ा साहसी दिखता हो, लेकिन उस समय के लिए यह एक क्रांतिकारी फ़ैसला था। एक महिला द्वारा संन्यास का मार्ग अपनाना समाज के पुरुष-प्रधान नियमों को चुनौती देने की तरह था। लल्लेश्वरी ने यह दिखाया कि महिलायें परिवार और समाज द्वारा लगाए गए बंधनों से मुक्त होकर अपने ख़ुद के फ़ैसले ले सकती हैं।

आध्यात्म और रहस्यवाद

लल्लेश्वरी की आध्यात्मिक यात्रा उस शैव दर्शन, विशेष रूप से कश्मीरी शैववाद से प्रभावित था, जो कि आत्मा और ईश्वर के एकत्व को स्वीकार करता है। उनके वाख गहरी दार्शनिक विचारधारा को सामने रखते हैं, जो कि आत्म-साक्षात्कार, भौतिक दुनिया की अस्थिरता और आंतरिक शुद्धता के महत्व पर केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए उनका एक प्रसिद्ध वाख है:

“शिव छुई थलि, रोज़ान मोज़ान,

स्वान छुई दय्यास, तू पान परज़ान।”

(शिव हर जगह हैं, हर वस्तु में हैं, उन्हें मंदिरों और मस्जिदों में मत खोजो, अपनी आत्मा में उनकी उपस्थिति को पहचानो।)

अपनी कविता के माध्यम से लल्लेश्वरी ने कठोर धार्मिक परंपराओं को नकार दिया और प्रत्यक्ष आध्यात्मिक अनुभव पर बल दिया। वे भगवान को अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि आत्म-चेतना में खोजती थीं। उनके विचार हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को समान रूप से प्रभावित करते थे, जिससे वे सांप्रदायिक एकता का प्रतीक बन गईं।

नारीवादी का दमदार प्रतीक

हालांकि, मध्यकालीन कश्मीर में नारीवाद की कोई अवधारणा नहीं थी, फिर भी लल्लेश्वरी का जीवन और उनकी कवितायें महिला सशक्तिकरण के मूल सिद्धांतों को दर्शाती हैं।

पितृसत्ता से मुक्ति

लल्लेश्वरी का विवाह से अलग होना केवल एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध एक सशक्त संदेश था। उस समय महिलाओं से आज्ञाकारी पत्नी और बेटी बनने की अपेक्षा की जाती थी, लेकिन उन्होंने अलग रास्ता चुना। विवाह संस्था को अस्वीकार करते ही उन्होंने दिखाया कि महिलाओं को अपनी नियति स्वयं तय करने का अधिकार है।

नारीत्व की नई परिभाषा

लल्लेश्वरी ने परंपरागत स्त्रीत्व की धारणा को पूरी तरह नकार दिया था। उन्होंने वस्त्रों का त्याग कर दिया और वह निडर होकर समाज में पूरी तरह निर्वस्त्र होकर विचरण किया करती थीं। यह कार्य भले ही समाज के लिए चौंकाने वाला था, लेकिन यह उनकी भौतिक बंधनों और सामाजिक अपेक्षाओं से स्वतंत्रता का प्रतीक था। उन्होंने नारीत्व को केवल घरेलू भूमिका तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे उच्च सत्य की खोज के रूप में परिभाषित किया।

आत्म-साक्षात्कार को प्रोत्साहन

उनकी कवितायें-वाख पुरुषों और महिलाओं दोनों को आत्म-ज्ञान और आत्म-चेतना की तलाश के लिए प्रेरित करती हैं। उन्होंने यह सिखाया कि सच्ची स्वतंत्रता बाहरी मान्यता से नहीं, बल्कि आंतरिक जागरूकता से आती है। उनका यह संदेश आज भी महिलाओं के लिए प्रासंगिक है, जो उन्हें सामाजिक स्वीकृति की चिंता छोड़कर आत्म-बल विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।

भविष्य की पीढ़ियों पर प्रभाव

लल्लेश्वरी का प्रभाव उनके जीवनकाल तक ही सीमित नहीं रहा। यह प्रभाव आने वाले समय में भी प्रेरक बन रहा। उनकी कवितायें और दर्शन बाद की पीढ़ियों की महिला कवयित्रियों और संतों को प्रेरित करती रहीं। उन्होंने ख़ुद को महिलाओं अपनी आवाज़ के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का परचम बना दिया।

सामाजिक और धार्मिक प्रभाव

लल्लेश्वरी धार्मिक मतभेदों से ग्रसित समाज में एकता का प्रतीक बन गयी थीं। उनके विचारों को हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ने अपनाया। उन्होंने कश्मीरी आध्यात्मिकता और संस्कृति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहां तक कि कश्मीरी सूफ़ी परंपरा के संस्थापक नुंद ऋषि कहे जाने वाले शेख़ नूर-उद्-दीन पर भी उनका गहरा असर था।

उनकी शिक्षायें बाहरी धार्मिक संघर्षों की व्यर्थता और आंतरिक आध्यात्मिक जागरूकता के महत्व को दर्शाती हैं। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, जातिगत भेदभाव और कठोर अनुष्ठानों को अस्वीकार कर दिया और सीधे ईश्वर से संबंध स्थापित करने पर बल दिया।

आधुनिक युग में लल्लेश्वरी की प्रासंगिकता

लल्लेश्वरी की विरासत आज भी महिलाओं के अधिकारों, आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय पर चर्चा में प्रासंगिक बनी हुई है।

महिलाओं की स्वतंत्रता की प्रेरक 

लल्लेश्वरी का जीवन साहस और आत्मनिर्भरता का उदाहरण है। आज भी कई समाजों में परंपरा के नाम पर महिलाओं का शोषण होता है। उनका जीवन हमें याद दिलाता है कि सच्ची स्वतंत्रता भीतर से आती है और महिलाओं को अपनी राह ख़ुद बनाने का अधिकार है।

आध्यात्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा 

धार्मिक परंपरायें आज भी महिलाओं पर कठोर नियम थोपती हैं। लल्लेश्वरी की शिक्षायें इन रूढ़ियों को चुनौती देती हैं और व्यक्तिगत आध्यात्मिक अनुभव को प्राथमिकता देती हैं।

विविधता में एकता का संदेश

जिस समय में हम जी रहे हैं, उसमें हमारे चारों तरफ़ धार्मिक टकहाहट है, असहिष्णुता की आहट है और इस कारण कुछ भी दुर्घटित हो जाने की घबराहट है। ऐसे में लल्लेश्वरी की विचारधारा महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि उस विचारधारा में सहिष्णुता की आत्मा है, समरसता की अविरल धारा है।

अंतत:

लल्लेश्वरी आज भी महिला स्वतंत्रता, आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक जागृति की प्रतीक बनी हुई हैं। उनकी कविता और विचार हमें यह याद दिलाते हैं कि सच्ची स्वतंत्रता आत्म-जागरूकता, साहस और सत्य के प्रति प्रतिबद्धता से आती है। उनकी कवितायें,यानी वाख, कश्मीरी संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हैं और इनमें आध्यात्मिक गहराई के साथ भाषा की सुंदरता भी झलकती है।  

लल्लेश्वरी की रचनायें कश्मीरी भाषा में लिखी गईं हैं, जिससे यह आम लोगों के लिए ज़्यादा सुलभ बन गयीं। उनकी कविता में सूफ़ी विचारधारा, अध्यात्म और प्रकृति के प्रति गहरा जुड़ाव दिखायी देता है। उन्होंने अपनी सहज और प्रभावशाली भाषा के माध्यम से आत्मबोध, ईश्वरीय मिलन और भौतिकवाद के त्याग जैसे जटिल दार्शनिक विचारों को सरल तरीक़े से प्रस्तुत किया।  

उनकी भाषा-शैली ने न केवल आम जनता और विद्वानों के बीच की खाई को पाटने का काम किया, बल्कि कश्मीरी भाषा को समृद्ध भी किया। लल्लेश्वरी ने कश्मीरी भाषा को एक सशक्त साहित्यिक और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। आज भी उनकी वाख कविताएँ कवियों, विद्वानों और आध्यात्मिक साधकों द्वारा पढ़ी और सराही जाती हैं। उनके योगदान ने कश्मीरी भाषा को सिर्फ एक बोली से ऊपर उठाकर एक समृद्ध साहित्यिक और आध्यात्मिक भाषा का दर्जा दिलाया। लल्लेश्वरी की कवितायें रोज़-ब-रोज़ इस्तेमाल होते मुहावरे की तरह कश्मीर के लोगों की ज़बान पर विराजती है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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