पुलिस के साथ राग दरबारी गा रहे हैं ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट!

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उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा है कि ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को अपने दिमाग लगाने की जरूरत है और अभियोजन पर आंख बंद करके भरोसा करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि पुलिस अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर ना जाए, न्याय पालिका को यह पहरेदारी करनी पड़ती है। एफआईआर की जांच करें, केस डायरी की जांच करें, पता करें कि क्या हो रहा है, और व्यक्ति को पुलिस या न्यायिक हिरासत में तभी भेजें, जब आवश्यक हो। शूटिंग दी मैसेंजरः दी चिलिंग इफेक्‍ट ऑफ क्रिमिनालाइजिंग जर्नलिज्म विषयक लाइव लॉ द्वारा आयोजित एक ई-सेमिनार को जस्टिस लोकुर सम्बोधित कर रहे थे।  

जस्टिस मदन बी लोकुर का सुझाव इसलिए भी और महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि तमिलनाडु में पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत में बर्बर पिटाई, जिसके कारण बाद में मौत हो गयी और न्यायिक मजिस्ट्रेट के लापरवाही भरे रिमांड आदेश की देशव्यापी आलोचना हो रही है और पुलिस सुधार के साथ लोअर ज्यूडिशियरी में सुधार की मांग उठ रही है क्योंकि मजिस्ट्रेट का आचरण न्यायिक कदाचार का एक स्पष्ट मामला है और गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट के डीके बसु मामले में दिए गये दिशानिर्देशों का उल्लंघन है।

पिता-पुत्र बुरी तरह घायल थे और उनके कपड़ों से खून रिस रहा था । दोनों गेट के पास, कॉम्प्लेक्स के प्रवेश द्वार पर सात-आठ पुलिसकर्मियों से घिरे हुए थे। उन्हें अंदर नहीं ले जाया गया। मजिस्ट्रेट पहली मंजिल पर दिखाई दिए और पुलिसकर्मियों की तरफ हाथ लहराया। जयराज और बेनिक्स के साथ एक अधिकारी चिल्लाया, कोविलपट्टी, रिमांड और मजिस्ट्रेट ने इसे वहीं खड़े-खड़े मंजूरी दे दी।

तमिलनाडु की हाल कि कस्टोडियल मौतों का जिक्र करते हुए जिस्टिस लोकुर ने इस तथ्य पर अफसोस जताया कि पुलिस ने घटना को छुपाने की कोशिश की। पुलिस ने कहा कि आरोपियों को दिल की बीमारी थी। आज यह पता चला है कि कुछ सबूत भी हटा दिए गए थे। तमिलनाडु में हाल के मामले में, ऐसा लगता है कि मजिस्ट्रेट ने भी पिता और पुत्र को नहीं देखा! यह ऐसा नहीं हो सकता। वे आंख बंद करके अभियोजन पर भरोसा नहीं कर सकते। दिमाग का स्पष्ट इस्तेमाल होना चाहिए। ऐसी चीजों के होने पर पुलिस और जांच पर भरोसा करना मुश्किल है। ऐसी घटनाएं होने के साथ, न्यायमूर्ति लोकुर ने जांच की निष्पक्षता में पत्रकारों के दुर्बल विश्वास को व्यक्त किया।

पुलिस हिरासत में मारे गए पिता और पुत्र।

ई-सेमिनार में जस्टिस मदन बी लोकुर, सीनियर एडवोकेट डॉ कॉलिन गोंसाल्विस, और पत्रकार/ लेखिका सीमा चिश्ती मुख्या वक्ता थे। कार्यक्रम को एडवोकेट मालविका प्रसाद ने संचालित किया। कार्यक्रम की शुरुआत देश भर के पत्रकारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए और 188 जैसे संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराधों के तहत दर्ज एफआईआर पर चर्चा से हुई। इन मामलों में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रदत्त प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी को खतरे में डालने की क्षमता है।

इस संदर्भ में, प्रसाद ने जस्टिस लोकुर से पूछा कि अदालतों को प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिए। न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली को समग्र रूप से देखा जाना चाहिए और इसमें कुछ बदलाव किए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, जांच की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है, जो दुर्भाग्य से हाल ही में सामने आए मामलों में खतरे में रही है।

उन्होंने पत्रकारों के अधिकारों को रोकने के लिए कानून के संभावित दुरुपयोग पर टिप्पणी की। उदाहरण के लिए, देशद्रोह के मामलों में, जांच इस तरीके से की जाती है ताकि यह दर्शाया जा सके कि देशद्रोही कृत्य किया गया है। सिर्फ इसलिए कि पुलिस कहती है कि देशद्रोह किया गया है, मजिस्ट्रेट को यह नहीं कहना चाहिए कि देशद्रोह किया गया है और व्यक्ति को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में डाल दिया जाए। दिमाग का इस्तेमाल भी करना चाहिए।

जांच के चरण में और चार्जशीट दाखिल करते हुए कानून की गलत व्याख्या होने के बावजूद, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह उस पर लगाम लगाए। सवाल यह है कि अदालत की भूमिका क्या है? मजिस्ट्रेट को बहुत सावधान रहना होगा और देखना चाहिए कि क्या प्रथम दृष्ट्या मामला बनता है। जस्टिस लोकुर ने आगे कहा कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत मामलों में, “गैरकानूनी गतिविधियों” का उल्लेख मात्र मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को मामले पर कार्रवाई नहीं करने या अपने हाथों खड़े करने का अधिकार नहीं देता है।

उच्चतम न्यायालय ने कई निर्णय दिए हैं, जिसमें कहा गया है कि धारा 43 डी (5) के तहत जमानत देने से इनकार करने के लिए प्रथम दृष्ट्या एक मामला बनाया जाना है। मजिस्ट्रेट को बहुत सावधान रहना होगा और देखना होगा कि क्या प्रथम दृष्ट्या अपराध बनता है.…क्या एफआईआर में दम है, केस डायरी में दम है, और उसके बाद ही मजिस्ट्रेट को चीजों को आगे ले जाना चाहिए।

जस्टिस लोकुर ने कहा कि यह सुनिश्चित करना कि पुलिस अपने अधिकार क्षेत्र से आगे न जाए, मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य है। मजिस्ट्रेट को एफआईआर और केस डायरी की जांच करने की आवश्यकता है और फिर आगे बढ़ना है। मजिस्ट्रेटों की भूमिका महत्वपूर्ण है और इसलिए, उन्हें प्रोटोकॉल का पालन करना निर्विवाद रूप से आवश्यक है।

कार्टून के जरिये प्रतिनिधित्व।

इंडियन एक्सप्रेस की डिप्‍टी एडिटर सीमा चिश्ती ने एक मजबूत न्यायपालिका की आवश्यकता पर जोर दिया, जो सरकार से सवाल पूछने पर एक पत्रकार या किसी व्यक्ति की रक्षा करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन करती हो। हमें रीढ़ की आवश्यकता है, हमें एक अच्छे रवैये की आवश्यकता है। हमें क्या आप राष्ट्रवादी हैं, क्या आप राष्ट्र-विरोधी हैं’ के द्वैध से मुक्त होने की आवश्यकता है। हमें अपने लोकतंत्र के प्रति अपनी धारणा को ताजा करने के लिए दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है। सरकार दबाव डालेगी और भीड़ रास्ते में आएगी। इस कारण न्यायाधीशों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है।

चिश्ती ने कहा कि पहले, गौरी लंकेश की हत्या तक, लोग गैर-कानूनी तरीकों से पत्रकारों को परेशान करते थे। लेकिन अब लोग कानून का इस्तेमाल कर उन्हें परेशान कर रहे हैं। इसलिए, हमें अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए, फ्री प्रेस को बचाने की आवश्यकता है।

चिश्ती ने लॉकडाउन के दरमियान पत्रकारों को आई बाधाओं और मुश्किलों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि भारत में पत्रकारिता का परिदृश्य काफी डरावना है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 142वें स्‍थान पर हैं। इसे ध्यान में रखते हुए, वरिष्ठ पत्रकार ने इस मुद्दे की चार बिंदुओं पर पत्रकारों के लिए सरकार का दृष्टिकोण, मीडिया में तकनीकी चुनौतियों के कारण उत्पन्न मुद्दे, पत्रकारों के संबंध में नकारात्मक जनमत और संस्थागत सहायता का अभाव के जरिये विस्तार से चर्चा की।

चिश्ती ने कहा कि पत्रकारों के लिए सरकार के दृष्टिकोण ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें सरकार पर सवाल उठाने वाले को जवाबदेह ठहराया जाता है। सरकार को निश्चित रूप से अपनी बात कहनी चाहिए। लेकिन, ऐसे वरिष्ठ मंत्री हैं, जिन्होंने पत्रकारों को ‘प्रेस्टीट्यूट्स’ कहा है। हमारे पास आम जनता की राय भी है। जब आपातकाल घोषित किया गया था, तो अखबार के संपादकों को जनता का समर्थन मिल रहा था। अब ऐसा नहीं है। जनता पत्रकारों की तरफ नहीं है। अदालतों से भी कोई संस्थागत समर्थन नहीं है।

वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ कॉलिन गोंसाल्वेस ने पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल किए जा रहे देशद्रोह के कानून के मुद्दे पर चिश्ती से सहमत हुए। उन्होंने कहा कि मैं सुश्री चिश्ती से सहमत हूं कि कानून का वैसे ही क्रूर प्रयोग हो सकता है, जैसे एक ‘डंडा’ का प्रयोग। देशद्रोह के कानून का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है और इसकी सावधानीपूर्वक निगरानी भी नहीं हो रही है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां कानूनी प्रतिनिधित्व भी कम है।गोंसाल्वेस ने मणिपुर के मुख्यमंत्री के एक केस का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने एक पत्रकार के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कराया था। उस पत्रकार ने उनके खिलाफ अपशब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने कहा कि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) का निर्णय बहुत ही खराब था, इसलिए, देशद्रोह के कानून को इस प्रकार अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा था।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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