पुलिस स्मृति दिवस : सीबीआई से कश्मीर तक पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल

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21 अक्तूबर, पुलिस स्मृति दिवस, साहसी रणनीतिक चुनौतियों का ही नहीं, विडम्बनापूर्ण राजनीतिक संकेतों का भी अवसर हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पुलिसकर्मी बिना हिचक हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं। जबकि एक दिन पहले ही उनकी सीबीआई को अर्नब गोस्वामी को मुंबई के टीआरपी स्कैंडल की आँच से बचाने का गंदा काम सौंपा गया है। बदले में उद्धव ठाकरे की महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में सीबीआई को अधिकृत करने वाले 1989 के नोटिफ़िकेशन को ही रद्द कर दिया। 

इसी दिवस पर श्रीनगर में एक पुलिस कार्यक्रम में जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने कश्मीरी युवा को कट्टरपंथी बनने से रोकने का आह्वान कर डाला। लेकिन वहाँ पुलिसकर्मी के लिए, मोदी सरकार की गत एक वर्ष की राष्ट्रवादी थूक चाटने की क़वायद के बीच, स्वयं को ही सुरक्षित रख पाना भी कठिनतर होता जा रहा है। दो दिन पहले अनंतनाग में आतंकवादियों ने एक पुलिस इंस्पेक्टर को सरे आम मार डाला था।

क़यास है कि टीआरपी मामले में मुंबई पुलिस का शिकंजा अर्नब गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी पर कसता देख, मोदी सरकार ने मैदान में अपनी संकट मोचक सीबीआई की एंट्री करा दी है। योगी की पुलिस ने लखनऊ की हजरतगंज कोतवाली में किसी गोल्डेन रैबिट कम्यूनिकेशन कम्पनी के क्षेत्रीय निर्देशक की ओर से अज्ञात मीडिया चैनलों के ख़िलाफ़ न सिर्फ एक एफ़आईआर दर्ज की बल्कि इसे साथ ही  सीबीआई को सौंपने की सिफ़ारिश भी कर दी।

मिलीभगत का आलम यह कि मोदी सरकार के निर्देश पर सीबीआई ने हाथों-हाथ केस में जाँच करना स्वीकार भी कर लिया। अब सीबीआई की मार्फ़त इस मामले में केंद्र की दो अन्य एजेंसियों ईडी और इनकम टैक्स को भी उतारा जा सकता है। कोशिश होगी कि किसी प्रकार मुंबई पुलिस को जाँच से दूर रखा जाए और मित्र चैनलों पर पड़ रहे दबाव को कम किया जाए। 

कहते हैं बदमाश को अंततः राजनीति में ही शरण मिलती है। यानी अपने देश में राजनीति के व्यापक अपराधीकरण के वर्तमान दौर में अजूबा जैसा कुछ भी नहीं। लिहाज़ा, यह स्वभाविक है कि सरकार में काबिज हो चुका अपराधी दिमाग अपना स्वार्थ साधने में हर सरकारी संस्था का खुल कर दुरुपयोग भी करे। 

क्या केंद्र सरकार की नामी जाँच एजेंसी सीबीआई के साथ भी यही नहीं हो रहा है? भाजपा की राजनीतिक बदमाशी को अंजाम देने के लिए मोदी सरकार बेहद बेशर्मी से सीबीआई को सामने कर रही है। हालाँकि उसकी, मार्फ़त सीबीआई, सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या को हत्या करार देकर बिहार चुनाव का मुद्दा बनाने की हाल की मुहिम टाँय-टाँय फुस्स हो गयी थी। अब वह एक बार फिर टीआरपी मामले में घिरे अपने भक्त मीडिया चैनलों को मुंबई पुलिस के दबाव से राहत दिलाने में सीबीआई का इस्तेमाल करेगी।

आरएसएस ब्रांड के राष्ट्रवादियों को पीढ़ियों से यही बेचा गया है कि कश्मीर में सारी समस्या साम्प्रदायिक है और इसकी जड़ में नेहरू की नीतियाँ हैं। लेकिन पाखंड के इस मुलम्मे पर से देर-सवेर कलई उतरनी ही थी। 

इस पर शायद ही किसी समझदार को आश्चर्य हुआ हो! कश्मीर में अनुच्छेद 370/35A हटाने मात्र को ही समस्या का हल बना कर पेश करने वाली मोदी सरकार का थूक कर चाटने का सिलसिला जारी है। बड़े-बड़े दावों के बावजूद उसका इस एक वर्ष का हासिल रहा है- हताशा और विफलता। कोल्हू के बैल की तरह वहीं घूम रहे हैं जहां से चले थे। इसी क्रम में पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की रिहाई को भी देखा जाएगा। 

भाजपा के कश्मीर रणनीतिकार राम माधव को पार्टी ने स्वयं ही महासचिव पद से हटा दिया और मोदी सरकार को अब्दुल्ला पिता-पुत्र सहित तमाम राजनीतिक बंदी भी रिहा करने पड़े। कश्मीरी पंडित का घर लौटना असंभव होता चला गया है और आज घाटी में पहले से ज़्यादा आतंकी पैदा हो रहे हैं। लद्दाख़ तक में स्वायत्तता की माँग जोर पकड़ रही है और वहाँ चीन को भी अपनी टांग अड़ाने की सुविधा मिल गयी है। 

सवाल है आगे क्या होगा? जम्मू-कश्मीर को पुनः राज्य का दर्जा देना ही पड़ेगा, इसमें अब शायद ही किसी को शक रह गया हो। कश्मीर के तमाम भारत समर्थक नेता भी अनुच्छेद 370/35A की वापसी से कम की स्थिति नहीं स्वीकार कर पायेंगे। यानी यह स्थायी तनाव बना ही रहेगा। बिना विचारे अंधाधुंध थूकने पर इसी तरह चाटना पड़ता है। लगता है मोदी सरकार इसकी आदी हो गयी है, बेशक देश पहले की तरह भारी क़ीमत चुकाता रहे। 

इस कठिन समय में पुलिस स्मृति दिवस पर राजनेताओं से पुलिस सुधार को दिशा देने की दरकार थी, न कि ऐसी दिशाहीनता को बल देने की।

(लेखक विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकेडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

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