बिहार के चुनावी ताप का कितना पड़ेगा बंगाल पर असर

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बिहार विधानसभा का चुनाव इस बार एक नए तेवर और नए अंदाज में हो रहा है। रोटी, रोजी, शिक्षा और स्वास्थ्य को चुनावी मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश हो रही है। अगर इसमें कामयाबी मिल गई तो बंगाल में भी भाजपा और दीदी यानी तृणमूल कांग्रेस को बहुत सारे सवालों के जवाब देने पड़ेंगे। इतना ही नहीं अगर यह जज्बा बना रहा तू पूरे देश को एक नई चुनावी तहजीब मिल सकती है जिसमें रोटी और रोजी के मुकाबले राम मंदिर और धारा 370 आदि अप्रासंगिक हो जाएंगे। तो क्या बिहार देश के युवाओं को एक नया संदेश देने जा रहा है।

अब अगर बिहार के चुनाव के इस नए अंदाज को कामयाबी मिलती है तो बंगाल में भाजपा और दीदी यानी तृणमूल कांग्रेस दोनों की मुश्किलें बढ़ जाएगी। अगर रोजगार शिक्षा और स्वास्थ्य चुनावी मुद्दा बनते हैं तो फिर यह आलम होगा। अब अगर बिहार में परीक्षा देने के बाद टीचर की नौकरी पाने के लिए बरसों इंतजार करना पड़ता है तो बंगाल में भी तो यही आलम है। अगर बिहार की चुनावी टेबल पर बंगाल की भाजपा का पोस्टमार्टम करेंगे तो तस्वीर साफ हो जाएगी। अगर पिछले लोकसभा चुनाव को आधार मानें तो इसे मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि बंगाल में भाजपा का आधार मजबूत हुआ है। उसे लोकसभा की 18 सीटें मिली थीं और मतदान भी 38% के आसपास था।

अब जरा इस बात पर गौर करें कि भाजपा को इतनी ताकत कहां से और कैसे मिली। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और तृणमूल से टूट कर आए नेताओं का अवदान इसमें काफी था, लेकिन यह भी सच है कि सबसे ज्यादा अवदान धर्म के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण होने से मिला था। धर्मनिरपेक्षता के प्रति दीदी की नाटकीयता ने इसे और मजबूत बनाया। अब आइए एक बार फिर बिहार की तरफ लौट चलें। भाजपा की पुरजोर कोशिश के बावजूद राम मंदिर और धारा 370 चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहे हैं। रोजगार उन पर भारी पड़ रहा है। वरना तेजस्वी यादव के 10 लाख के मुकाबले भाजपा 19 लाख का दावा नहीं करती।

अब अगर रोजगार ही चुनावी मुद्दा बन गया तो बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नींव पर टिकी भाजपा की इमारत क्या इस झटके को झेल पाएगी। अगर बात रोजगार की होगी तो मोदी की सालाना एक करोड़ नौकरी देने और लॉकडाउन में करोड़ों नौकरियों के जाने का मुद्दा भी उठेगा। बात रोजगार की होगी तो सिंगूर का जिक्र भी आएगा। ममता बनर्जी के विरोध के कारण ही टाटा को सिंगूर छोड़ना पड़ा और नैनो परियोजना गुजरात चली गई।

अब सिंगूर के किसान कंक्रीट में धान उगाने की प्रौद्योगिकी आने का इंतजार कर रहे हैं। यह सवाल भी उठेगा कि ज्योति बसु की यथास्थिति बनाए रखने से उलट बुद्धदेव भट्टाचार्य की इस नैनो परियोजना के जरिए बंगाल के औद्योगीकरण की नई शुरुआत को पलीता किसने लगाया था। अगर बिहार मॉडल सफल रहा तो बंगाल के विधानसभा चुनाव में इन सवालों का जवाब तो नेताओं को देना ही पड़ेगा।

(जेके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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