चमोली आपदाः गरीब चुका रहा है अमीरों की खुशहाली की कीमत

7 जनवरी को अचानक ख़बर आती है कि एक ग्लेशियर के टूटने से उत्तराखंड के चमोली में भारी तबाही आई है और 250 से अधिक लोग लापता हैं। इसके ठीक अगले दिन यानी 8 फरवरी को ख़बर आती है कि केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और अर्ध-न्यायिक निकायों, जैसे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) द्वारा दिए गए अलग-अलग फैसलों के ‘आर्थिक प्रभाव’ पर अध्ययन करने के लिए कंज्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसायटी (CUTS) इंटरनेशनल को लगाया है।

साथ ही अदालतों और ट्रिब्यूनल्स के ज्यूडीशियल एक्टिविज्म यानी न्यायिक सक्रियता के आर्थिक प्रभावों पर भी स्टडी की जाएगी। स्टडी का उद्देश्य है ‘निर्णय के आर्थिक प्रभाव पर न्यायपालिका को संवेदनशील बनाने के लिए नैरेटिव बनाना’ और इस स्टडी के निष्कर्षों का इस्तेमाल कमर्शियल कोर्ट, NGT, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए ट्रेनिंग इनपुट के रूप में किया जाएगा, ताकि किसी विकास परियोजना के केस में फैसला देने से पहले जज केवल पर्यावरण, इको सिस्टम और उक्त क्षेत्र जन समूह के समाजिक-सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक पहलू के बारे में भी सोचें। 

उपरोक्त दोनों ख़बरें एक साथ आई हैं। दोनों को एक-दूसरे के साथ रखकर ही मौजूदा व्यवस्था की क्रूरता, सत्ता के असंवेदनशील मंसूबे को समझा जा सकता है। सबसे पहले बात करते हैं 7 जनवरी को चमोली में आई तबाही पर। तमाम मीडिया संस्थानों ने एक हेडलाइन लगाकर ख़बर चलाई कि चमोली में ग्लेशियर फटने से तबाही आई। वहीं इस ख़बर में ‘हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट का बांध टूटने से बहे मजदूर’ दबा दिया गया। स्थानीय निवासी कहते हैं कि ऋषि गंगा पॉवर प्रोजेक्ट और तपोवन जल विद्युत परियोजना का निर्माण कर रही कंपनियों ने हर स्तर पर मानकों का उल्लंघन किया।

यहां पर्यावरण नियमों को ताख पर रखकर कंपनियां काम करती रही हैं। कंपनियां यहां भारी विस्फोट करती थीं और परियोजना निर्माण का मलबा भी ऋषिगंगा में ही डंप किया जाता था। इस कारण भी आपदा का रूप भयावह रहा। ऋषिगंगा की आपदा में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 204 लोग लापता हुए, जिसमें अभी तक 58 शव बरामद हो चुके हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि यदि पर्यावरण के नियमों का पालन किया गया होता तो शायद यह आपदा नहीं आती।

स्थानीय लोगों के आरोपों की पुष्टि साल 2019 में 46 वर्षीय कुंदन सिंह की उस जनहित याचिका से भी होती है। कुंदन सिंह रैनी गांव के निवासी हैं और आदिवासी समुदाय से आते हैं। साल 2019 में कुंदन सिंह द्वारा नैनीताल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके कोर्ट को बताया था कि पॉवर प्रोजेक्ट के निर्माण के दौरान निकलने वाला सारा कूड़ा-कचड़ा ऋषि गंगा में फेंका जा रहा है, और रीवर बेड पर पत्थर क्रशिंग का काम किया जा रहा है। ऋषि गंगा पॉवर प्रोजेक्ट के नाम पर नदी का अवैध खनन किया जा रहा है, जिससे नंदा देवी बॉयोस्फेयर रिजर्व क्षेत्र की भारी बर्बादी हो रही है और पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।

इस केस में नैनीताल हाई कोर्ट के रमेश रंगनाथन (सीजे) और अलोक कुमार वर्मा (जज) की बेंच ने 1 अगस्त 2019 को राज्य के डिप्टी जनरल एडवोकेट एसएस चौहान से पूछा था कि बैराज और बिजलीघर के पास इकट्ठे किए गए कूड़ा-कर्कट की सफाई क्यों नहीं की गई और उन्होंने इस मामले में अब तक क्या कदम उठाए हैं।

कुंदन सिंह ने अपनी जनहित याचिका में हाई कोर्ट को ये भी बताया था कि इस प्रोजेक्ट में स्थानीय लोगों से इस पॉवर प्रोजेक्ट में काम कराया गया और उनका मेहनताना देने का समय आया तो कहा गया कि अब पॉवर प्रोजेक्ट के निर्माण का काम दूसरी कंपनी ने अपने हाथों में ले लिया है। इस याचिका में रैनी गांव के लोगों के सुरक्षित स्थान पर पुनर्वास कराने का अनुरोध भी किया गया था, क्योंकि साल 2016 में इस पॉवर प्रोजेक्ट के चलते कुछ डैमेज हुआ था। उन्होंने कोर्ट में कहा था कि पॉवर प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए आवश्यक पर्यावरणीय क्लियरेंस होना आवश्यक है। इस तरह के पर्यावरण क्लियरेंस का लक्ष्य और उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जिस परियोजना की कल्पना की गई है वह पर्यावरण मापदंडों पर व्यवहार्य है और इससे स्थानीय इको सिस्टम को पर्याप्त खतरा नहीं होगा।

उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में स्पष्ट है कि हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट के निर्माण के दौरान ज़रूरी मानदंडो का न सिर्फ़ जबर्दस्त उल्लंघन किया गया बल्कि पर्यावरण, स्थानीय निवासियों और हजारों मजदूरों की जान को जोखिम में डाल कर इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया गया।

7 फरवरी की चमोली आपदा के तीन दिन बाद 11 जनवरी को प्रमुख अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में NTPC अधिकारियों के हवाले से एक ख़बर छपती है, जिसमें बताया जाता है कि तीन दिनों से एनटीपीसी हाइड्रोपावर प्‍लांट की गलत सुरंग में मजदूरों की तलाश कर रही है। गढ़वाल के कमिश्‍नर इंडियन एक्‍सप्रेस को जानकारी देते हुए बताते हैं, “पहले हमें बताया गया था कि एनटीपीसी प्‍लांट के 180 मीटर अंदर करीब 34 मजदूर फंसे हो सकते हैं।

ऐसे में हम इन्‍हें बचाने के लिए उसी दिशा में खुदाई कर रहे थे। 10 फरवरी बुधवार को एनटीपीसी अफसरों ने सूचना दी है कि आखिरी बार इन मजदूरों के काम का स्‍थल सिल्‍ट फिल्‍ट्रेशन टनल में था। यह टनल इनटेक एडिट टनल से 12 मीटर नीचे और 72 मीटर दूर है। अब हमने पूरी रणनीति बदलकर पूरा ध्‍यान सिल्‍ट फिल्‍ट्रेशन टनल की खुदाई पर लगा दिया है।”

उपरोक्त बातों से स्पष्ट है कि मजदूर और स्थानीय जनजातीय लोगों की ज़िंदग़ी की क्या अहमियत है। वो आखिरी बार किस साइट पर सकाम कर रहे थे, इसकी सटीक जानकारी तक नहीं है हाईड्रोपॉवर प्लांट कंपनी के पास।

उपभोग नवउदारवादी व्यवस्था का मूलमंत्र है। सवाल उठता है कि किस कीमत पर उपभोग। और जवाब है किसी भी कीमत पर। पर्यावरण की कीमत पर, स्थानीय जनजातीय लोगों के भारी जान-माल की कीमत पर। पहाड़ों और नदियों को खत्म कर देने की कीमत पर। उत्तराखंड इसी उपभोग की कीमत चुका रहा है। विडंबना ये है कि उपभोग समाज का सबसे उच्च वर्ग कर रहा है और कीमत सबसे निम्न वर्ग चुका रहा है।

किसी प्रोजेक्ट का विरोध करने पर उन्हें नक्सली और फॉरेन फंडिंग पर काम करने वाले अलगवादवादी बताकर विरोधियों को जेल में डाल दिया जाता है, और जब कोई चमोली या केदारनाथ जैसा हादसा हो जाता है तो पहले तो बादल फटने, या ग्लेशियर फटने के तर्क के साथ मुख्य कारण को डायवर्ट कर दिया जाता है। कोई ज़्यादा चीखा चिल्लाया तो मुआवजा देकर मुंह बंद करा दिया जाता है, जबकि चमोली आपदा से ठीक पांच महीना पहले राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से ऋषि गंगा और धौली गंगा पेंडिंग पॉवर प्रोजेक्ट अप्रूव करने को कहा था। बावजूद इसके कि साल 2014 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सर्वोच्च अदालत को बताया था कि इन नदियों को अपरिवर्तित (Left Pristine) रहने दिया जाए।

वहीं साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अलकनंदा हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट केस की सुनवाई के दौरान उत्तराखंड सरकार और पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया था कि अगले आदेश तक किसी भी हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरणीय क्लियरेंस, और फॉरेस्ट क्लियरेंस न दिया जाए। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया था कि वो विशेषज्ञों की एक ऐसे निकाय का गठन करे जो यह अध्ययन करके बताए कि किन मौजूदा और निर्माणाधीन पनबिजली परियोजनाओं से पर्यावरणीय क्षति हो रही है और 16 जून 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ आपदा के लिए जिम्मेदार हैं।

इसके बाद अंतर्मंत्रीय समूह (IMG) ने नयार, बाल गंगा, ऋषि गंगा, अस्सी गंगा, धौली गंगा (ऊपरी हिस्से), बिरही गंगा, भयुंदर गंगा को मौलिक रूप में पड़े रहने देने का अनुमोदन किया था, और 5 दिसंबर 2014 को एक्सपर्ट पैनल के सामने एफिडेविट देकर कहा था कि आगे से इन क्षेत्रों में कोई हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट का निर्माण नहीं होगा। इतना ही नहीं मंत्रालय ने कोर्ट को बताया था कि विशेषज्ञ पैनल इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट के निर्माण से स्थानीय पर्यावरण तंत्र को अपूर्णनीय नुकसान पहुंचा है। 

साल 2012-13 में दो प्रतिष्ठित संस्‍थानों- वाइल्‍ड लाइफ इंस्‍टीट्यूट ऑफ इंडिया (देहरादून) और इंडियन इं‍स्‍टीट्यूट ऑफ टेक्‍नोलॉजी (रुड़की) ने अलकनंदा-भागीरथी बेसिन में हाइड्रोपावर प्रोजेक्‍ट्स के समग्र प्रभावों पर एक-दूसरे से बिलकुल अलग रिपोर्ट सौंपी। आईआईटी ने जहां नदियों के तीव्र दोहन से पैदा होने वाले खतरे को कम करने के लिए कुछ सुझाव दिए थे, वहीं वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ने कहा था कि प्रस्‍तावित 39 में से 24 बांध नदियों को बहुत नुकसान पहुंचाएंगे, इसलिए उन्‍हें बनाने की इज़ाज़त नहीं दी जानी चाहिए। जबकि तब तक, अन्‍य 31 प्रोजेक्‍ट या तो शुरू हो चुके थे या निर्माणाधीन थे।

सुप्रीम कोर्ट ने 16 जून 2013 की आपदा का संज्ञान लेते हुए और हाइड्रोपावर प्रोजेक्‍ट्स के क्लियरेंस को अगले आदेश तक रोक दिया। कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय से कमेटी बनाकर हाइड्रोपावर प्रोजेक्‍ट्स के बाढ़ को ट्रिगर करने में भूमिका पर रिपोर्ट सौंपने को कहा। रवि चोपड़ा के नेतृत्‍व में टीम ने 24 प्रस्‍तावित प्रोजेक्‍ट्स को ख़तरनाक बताया था।

इसके बाद जल्‍द ही छह प्रोजेक्‍ट डेवलपर्स ने केस में अपील की कि उन्‍हें मंत्रालय से क्लियरेंस मिल चुका है, इसलिए उन्‍हें आगे काम शुरू करने दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय को एक और कमेटी बनाकर इन छह हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्‍ट्स पर विचार करने को कहा। चार सदस्‍यीय कमेटी ने फरवरी 2015 में रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में भी चेताया गया कि प्रस्‍तावित बांध बनने से इलाके के पारिस्‍थ‍ितिकीय सुरक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ेगा, हालांकि पर्यावरण मंत्रालय ने अदालत को सिर्फ यही बताया कि इन छह प्रोजेक्‍ट को क्लियरेंस दे दिए गए हैं।

मामला गर्माने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रालय से पूरी रिपोर्ट पेश करने को कहा। कोर्ट के फैसले से चकित मंत्रालय ने बीपी दास के नेतृत्‍व में एक और कमेटी गठित कर दी। इस कमेटी को इन छह बांधों का भविष्‍य तय करना था। दास ने मंत्रालय की एक्‍सपर्ट अप्रेजल कमेटी का उप-चेयरमैन होने के नाते इन छह में तीन प्रोजेक्‍ट को खुद क्लियरेंस दिया था।

अक्तूबर 2015 में मंत्रालय ने कोर्ट को बताया कि दास कमेटी से सभी छह परियोजनाओं को शुरू किए जाने की सिफारिश की है। मगर मंत्रालय ने अन्‍य मंत्रालयों-ऊर्जा और गंगा जीर्णोद्धार से भी सलाह लेने की बात कही। जनवरी 2016 में एक एफिडेविट के जरिए सरकार ने दावा किया कि उसने फैसला कर लिया है। सरकार ने मदन मोहन मालवीय और कॉलोनियल सरकार के बीच 1916 में हुए एग्रीमेंट (गंगा और उसकी सहायक नदियों पर कम से कम 1,000 क्‍यूबिक मीटर प्रति सेकेंड पानी छोड़ने वाले बांध प्रोजेक्‍ट) के तहत इज़ाज़त दे दी।

गंगा जीर्णोद्धार मंत्री उमा भारती ने चिट्ठी लिखकर पर्यावरण मंत्री के फैसले पर हैरानी जताई। मीडिया रिपोर्ट्स के बाद, अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मंत्रालयों से अपने एफिडेविट फाइल करने को कहा है, जिसके बाद ऊर्जा मंत्रालय ने पर्यावरण मंत्रालय के समर्थन में रिपोर्ट फाइल कर दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था प्रोजेक्ट्स को रद्द क्यों नहीं किया?
सुप्रीम कोर्ट ने 13 दिसंबर, 2014 को इस मामले में पूछा था कि अगर इन पॉवर प्रोजेक्ट्स से वन और पर्यावरण को खतरा है, तो इसे रद्द क्यों नहीं किया जा रहा है? उन अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती है, जिन्हें उन्होंने मंजूरी दी है? विकास योजनाओं में पर्यावरण से समझौता नहीं होना चाहिए।

इसके बाद केंद्र की ओर से दायर हलफनामे में कहा गया था कि सरकार विकास के सभी काम वैज्ञानिक तरीके से कराएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 28 फरवरी 2020 को केंद्र सरकार को निर्देश जारी करते हुए कहा था कि सरकार चाहे तो इन प्रोजेक्ट को इको-सेंसेटिव जोन से बाहर दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट करने पर विचार कर सकती है, ताकि उनके कारण लोगों की जिंदगी खतरे में न आए। मामले की सुनवाई अभी तक जारी है।

बता दें कि हाइड्रोपावर उत्पादन में चीन, ब्राजील, अमेरिका और कनाडा के बाद पांचवे नंबर पर भारत है। भारत में 197 हाइड्रोपावर प्लांट हैं, जो कुल 45,798 मेगावॉट यानी देश की 12% से ज्यादा बिजली का उत्पादन करते हैं। इनमें से 98 केवल उत्तराखंड में हैं। अभी 41 बन रहे हैं और 197 प्रस्तावित हैं।

दरअसल, 2013 में ही यहां कुल 336 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को अनुमति मिल चुकी थी। वहीं साल 2000 में पूर्ण राज्‍य बनने के बाद उत्‍तराखंड को हाइड्रोपावर हब के तौर पर शोकेस किया गया। साल 2003 में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने दर्जनों परियोजनाओं की घोषणा की। साल 2006 तक, कई नए बांधों के प्रोजेक्‍ट राज्‍य में आए। जब देहरादून और दिल्‍ली की सरकारें गलती सुधारने की दिशा में आंखें मूंदे बैठीं थीं, जून 2013 में आपदा आ गई। बुरी तरह झटका खाने के बावजूद राज्‍य सरकार इस पर टिकी रही कि वह उत्‍तराखंड को 2016 तक पावर सरप्‍लस बना कर रहेगी।

चारधाम परियोजना पर भी सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई थी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वकांक्षी उत्तराखंड चार धाम प्रोजेक्ट से भी उत्तराखंड में पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा है। इसका खुलासा सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित रवि चोपड़ा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में किया था। इस रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सात मीटर की जगह 5.5 मीटर चौड़ी सड़क बनाने का निर्देश दिया था। चारधाम प्रोजेक्ट से होने वाले नुकसान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने रवि चोपड़ा कमेटी बनाई थी।

फिलहाल चारधाम परियोजना अंतिम चरण में है। इससे केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में जोड़ा जा रहा है, जिसमें 889 किलोमीटर टू-लेन हाईवे बन रहा है। इसमें 12 बाइपास रोड, 15 बड़े फ्लाईओवर, 101 छोटे पुल, 3,596 पुलिया और दो टनल बनाई जा रही हैं। इसके लिए करीब 56 हजार पेड़ काटने पड़े। 1702 एकड़ जंगल की जमीन दूसरे काम के लिए ट्रांसफर कर दी गई।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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