चुनावी हिंसा और बंगाल के बीच है चोली दामन का साथ

इन दिनों बंगाल में चुनाव बाद हिंसा एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कई जनहित याचिका दायर की गई है। कोलकाता हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस राजेश बिंदल की अध्यक्षता में गठित लार्जर बेंच ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इसकी जांच करने का आदेश दिया है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने चार सदस्यों की एक कमेटी बनाई है। कमेटी के सदस्य पश्चिम बंगाल के चुनाव बाद हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रहे हैं। उन्हें अपनी रिपोर्ट 30 जून को हाईकोर्ट के लार्जर बेंच के समक्ष पेश करनी है। इसके बाद लार्जर बेंच अगली कार्रवाई के बारे में आदेश देगा। अभी इस बाबत सुप्रीम कोर्ट का आदेश आना है। जनहित याचिका दायर करने वालों में भाजपा और माकपा के लोग शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट क्या आदेश देंगे यह तो नहीं मालूम पर एक बात तो सच है कि पश्चिम बंगाल और चुनावी हिंसा के बीच चोली दामन का साथ है। यहां तो स्कूल या कॉलेज कमेटी का चुनाव भी बमबारी के बगैर संपन्न नहीं हो पाता है। पश्चिम बंगाल इस मामले में देश के अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है। आइए पड़ताल करते हैं कि बंगाल में चुनावी हिंसा की पौध कब लगी थी, जो आज एक पेड़ बन गई है, और जिसके साए में पश्चिम बंगाल के सभी राजनीतिक दल अपनी चुनावी रणनीति तय करते हैं। चुनावी हिंसा के इस खेल को समझने के लिए हमें 53 साल पीछे लौटना पड़ेगा।

पश्चिम बंगाल में 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री तो ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री एवं गृह मंत्री बने थे। तत्कालीन राज्यपाल धर्मवीर ने उनकी सरकार बर्खास्त कर दी और 1969 में दोबारा चुनाव हुआ। एक बार फिर अजय मुखर्जी और ज्योति बसु की वापसी हुई और इसके साथ ही पश्चिम बंगाल में लड़ाकू और हिंसक राजनीतिक संस्कृति का आगमन भी हो गया। लड़ाकू राजनीति की वेदी पर हिंसा की पहली घटना 1970 में बर्दवान में घटी और इसे साईं बाड़ी हत्याकांड के नाम से जाना जाता है। प्रणव साई और मलय साई को जलाकर मार डाला गया और नवकुमार साई की आंखें निकालने के बाद हत्या कर  दी गई। इसके साथ ही उसके रक्त से सने चावल को खाने के लिए उसकी मां को मजबूर किया गया। माकपा समर्थकों पर इसका आरोप लगा था।

कहते हैं कि कांग्रेस के जमाने में साई परिवार का आतंक लोगों के सिर पर चढ़कर बोलता था। इसके बाद 1982 में 17 आनंद मार्गियों को कोलकाता के विजन सेतु पर जलाकर मार डाला गया। यह आरोप माकपा कार्यकर्ताओं पर लगा था।  इसके बाद 2000 में 27 जुलाई को बीरभूम जिले के सूजापुर में 11मजदूरों को हत्या कर दी गई थी। उनकी लाश नदी में बहा दी गई थी। बर्दवान के बार बेटा  में 2002 में तृणमूल कांग्रेस के सात कार्यकर्ताओं की हत्या करने के बाद उनके शव को दफना दिया गया था। यह आरोप भी माकपा कार्यकर्ताओं पर लगा था। इसका खुलासा 2012 में हुआ था और पश्चिम बंगाल में इसे कंकाल कांड के नाम से जाना जाता है। नंदीग्राम में 2011 से पहले दो वर्षों के अंदर कम से कम 50 लोगों की हत्या हुई थी।  2011 के विधानसभा चुनाव के बाद 2012 में बर्दवान के पूर्व माकपा विधायक प्रदीप शाह और बर्दवान जिले के माकपा नेता कमल गायन की हत्या कर दी गई थी। यह चुनावी हिंसा की कुछ प्रमुख घटनाएं हैं।

पंचायत चुनाव का पश्चिम बंगाल में बेजोड़ इतिहास है। 2003 के पंचायत चुनाव में 76, 2013 के पंचायत चुनाव में 39 और 2018 के पंचायत चुनाव में 10 लोगों की हत्या की गई थी। देश के किसी भी राज्य में पंचायत चुनाव में यह मिसाल नहीं मिलेगी। बंगाल में 2018 के पंचायत चुनाव में 34 फ़ीसदी सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ विपक्ष कोई उम्मीदवार नहीं दे पाया था। इसके जवाब में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने कहा था कि वाममोर्चा के जमाने में भी तो ऐसा ही होता था और यह बात सही भी है। कोलकाता नगर निगम के 1993 और 2015 के चुनाव में हुई हिंसा आज भी लोगों के जेहन में है। दोनों ही मामलों में हिंसा की सूरत एक जैसी थी अंदाज एक जैसा था पर सरकारें बदल गई थीं। 1993 में वाममोर्चा की सरकार थी तो 2015 में तृणमूल कांग्रेस की सरकार थी।

 बंगाल में चुनाव या राजनीति पर हिंसा के हाबी होने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। बंगाल में 70 के दशक में माकपा का विभाजन हुआ और चारू मजूमदार ने सीपीआई (एमएल) का गठन किया। बंगाल में उन दिनों यह नारा कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके बाद बंगाल में हिंसा चरम पर पहुंच गई और हेमंत बसु जैसे वयोवृद्ध नेता की हत्या कर दी गई।  इंदिरा गांधी ने सिद्धार्थ शंकर राय को कैबिनेट में पश्चिम बंगाल मामलों का मंत्री बना कर बंगाल को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी थी। उन दिनों रंजीत गुप्ता बंगाल में आईजी हुआ करते थे। माओवाद का एंटीबॉडी तैयार करने के लिए एक रणनीति के तहत पश्चिम बंगाल के सारे गुंडों को रातों-रात माओवादी बना दिया गया। इस एंटीबॉडी ने काम किया।

इसका नतीजा यह हुआ कि एक वाद पर भरोसा करते हुए राजनीति करने आए युवा हाशिए पर चले गए और उनमें से बहुतों की हत्या कर दी गई। इसके बाद गुंडे ही माओवादी बन गए और  सही मायने में जो माओवादी  कैडर थे उनकी हत्या करने लगे। इस तरह माओवाद समाप्त हो गया। इसके बाद माओवादी वायरस,  उनकी निगाहों में, को समाप्त करने के लिए बनाई गई यह एंटीबॉडी राजनीति के रगों में बस गई। इसने अपना पहला कारनामा 1972 की विधानसभा चुनाव में दिखाया जब ज्योति बसु जैसे दिग्गज नेता बूथ कैप्चरिंग और रैगिंग के कारण बारानगर से चुनाव हार गए। इसके बाद एंटीबॉडी राजनीति में इस कदर बस गई कि हर चुनाव में इसकी झलक देखने को मिलने लगी। इसी का नतीजा है कि बंगाल में चुनावी हिंसा थमने का नाम नहीं  ले रही है।

अब बंगाल के एक और राजनीतिक चरित्र का जिक्र किए बगैर चुनावी हिंसा की यह कहानी अधूरी रह जाएगी। यह पश्चिम बंगाल में ही होता है जहां विधानसभा चुनाव के बाद विरोधी दल के कार्यालय बंद हो जाते हैं  और नेता गुमशुदगी में चले जाते हैं। यह सबसे ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में होता है। बंगाल में 1969 के चुनाव के बाद कांग्रेस को इस दौर से गुजरना पड़ा था तो 1972 के चुनाव के बाद माकपा को इसका सामना करना पड़ा था। 1977 के चुनाव के बाद कांग्रेस को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। विधानसभा के 2011 के चुनाव के बाद जिलों में माकपा के सभी कार्यालय बंद हो गए और नेता भूमिगत हो गए।

2021 के चुनाव के बाद वामपंथियों को राहत मिली है क्योंकि इस बार भाजपा निशाने पर है। इतना ही नहीं बंगाल में पाड़ा, यानी मोहल्लों, का विभाजन भी राजनीतिक आधार पर होता है। अगर किसी मोहल्ले में तृणमूल समर्थक ज्यादा हैं और वहां के किसी मतदाता ने वाम मोर्चा को वोट दिया तो उसे जुर्माना भरना पड़ता है। पाड़ा को दखल करने के लिए भी जंग होती है। बहुचर्चित  नंदीग्राम का मिसाल देते हैं। 2011 के विधानसभा चुनाव से पहले नंदीग्राम तृणमूल के कब्जे में था नदी के उस पार खेजुरी पर माकपा का कब्जा था। एक दूसरे पर कब्जा करने के लिए विधानसभा चुनाव तक जंग चलती रही थी। इस तरह एंटीबॉडी के रहते हुए बंगाल में चुनावी हिंसा भला कैसे थाम सकती है। अब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को जो भी कहना है कहते रहे।

(कोलकाता से वरिष्ठ पत्रकार जेके सिंह की रिपोर्ट।)

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