पुस्तक समीक्षा: एक यायावर की यादों के साथ रोमांचकारी पाठकीय यात्रा

देश के वरिष्ठ पत्रकार और प्रतिबद्ध लेखक-विचारक उर्मिलेश के संस्मरणों की किताब ‘ ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ के प्रकाशन की घोषणा हो चुकी है। नवारूण प्रकाशन से आने वाली यह किताब जल्द ही पाठकों के हाथ में होगी। प्रकाशन की प्रक्रिया में मुझे इस किताब की पांडुलिपि पढ़ने का मौका मिला, उस आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि यह किताब हिंदी संस्मरण विधा को सामाजिक, राजनीतिक व अकादमिक हलचलों के और ज्यादा करीब ले कर जायेगी। आम तौर पर हिंदी में संस्मरण विधा साहित्यिक बहसों और साहित्यिक व्यक्तियों के इर्द-गिर्द ही सीमित रही है, और ऐसा होना स्वभाविक भी है क्योंकि साहित्यिक जनों का अनुभव संसार का जो फैलाव है स्मृतियाँ वहीं से कलमबद्ध होती हैं।

उर्मिलेश जी एक समादृत पत्रकार, विचारक और समता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी के बतौर जाने जाते हैं। उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक और जीवन यात्रा रोमांचकारी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक धूल धूसरित पिछड़े जनपद ग़ाज़ीपुर में एक छोटे किसान के घर में जन्म से लेकर इलाहाबाद विवि होते हुए जेएनयू , वहाँ पर शिक्षण, शोध और छात्र सक्रियता के दौरान अच्छे-बुरे अनुभवों से गुजरते हुए पत्रकारिता की शुरुआत और पत्रकारिता के दौरान सामाजिक-राजनीतिक साहित्यिक घटनाओं और व्यक्तियों के गहन प्रेक्षण के बीच से निकली हुई स्मृतियों को उन्होंने इस किताब में संकलित किया है। इसमे गाजीपुर से लेकर कश्मीर तक का भौगोलिक विस्तार है। साथ ही गोरख पांडे, तुलसीराम, राजेंद्र यादव, डी प्रेमपति, महाश्वेता देवी, एम जे अकबर, नामवर सिंह और कश्मीर के मशहूर पत्रकार शुजात बुखारी जैसी शख्सियतें जिनके साथ उनके सकरात्मक और नकारात्मक अनुभव रहे हैं, ये सभी उनकी यादों के गलियारे में मौजूद हैं।

संस्मरणों या आत्मकथाओं के मामले में ऐसा देखा गया है कि बड़े पत्रकारों, राजनेताओं, पूर्व नौकरशाहों के संस्मरण छपते ही अक्सर कई तरह के विवाद पैदा होते हैं। क्योंकि इनमें बड़ी हस्तियों और बड़ी घटनाओं का एक अलग ही रूप लेखक के जरिये दुनिया के सामने आता है। कई बार तो ऐसी किताबों के प्रकाशन से राजनीतिक संकट भी पैदा होता हुआ देखा गया है। हिंदी मे ऐसा कम ही होता है क्योंकि ज्यादातर लेखक कई कारणों से कड़वे अनुभव और विवादस्पद घटनाओं से दूरी बनाकर रखना ही श्रेयस्कर समझते हैं।

इस किताब में उर्मिलेश जी ने बहुत ही बेबाकी व लेखकीय निर्भीकता के साथ अपने अनुभवों को लिखा है, भले ही वह किसी बड़े व्यक्ति की लोकप्रिय छवि को विरूपित करता हो। इस संदर्भ में जेएनयू में नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के जातिवादी व्यवहार पर उन्होने बहुत ही संवेदनशीलता से लिखा है। यह प्रकरण इस किताब से पहले भी कई मौकों पर प्रकाश में आ चुका है। नामवर सिंह जैसे प्रगतिशील आलोचक के प्रछन्न जातिवाद पर इससे ज्यादा प्रामाणिक आज तक कुछ भी सामने नहीं आया। निश्चित ही इस प्रकरण ने नामवर सिंह की लोकप्रियता व सम्मान में भारी गिरावट लाने का काम किया था।

इन संस्मरणों में उर्मिलेश जी ने इलाहाबाद विवि और जेएनयू में क्रांतिकारी वाम धारा के छात्र आंदोलन में अपनी सक्रियता को बहुत ही प्यार से याद किया है। आपातकाल के बाद इलाहाबाद विवि और देश के तमाम अन्य परिसरों में एक नए वाम छात्र आंदोलन का आगाज़ हुआ था। इलाहाबाद में जिसे पीएसओ (प्रोग्रेसिव स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन) के नाम से जाना जाता था। यही संगठन 1990 मे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशिएशन (आइसा) के रूप में पुनर्गठित हुआ। पीएसओ ने अस्सी के दशक में छात्र राजनीति को एक नया तेवर दिया था जिसमें तमाम पिछड़े दलित समुदायों के छात्र पहली बार छात्र राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हुए थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि उर्मिलेश पिछड़े समुदाय से आने वाले छात्र नेताओं की प्रारम्भिक पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। पीएसओ के दिनों को और उन दिनों के अपने कॉमरेडों को जिस आत्मीयता से उर्मिलेश जी ने याद किया है उससे इस आंदोलन के प्रति उनके लगाव को समझा जा सकता है।

आगे चल कर वामपंथी संगठनों में सवर्ण वर्चस्व और वर्ग-जाति के अंतर्द्वंद पर उर्मिलेश जी काफी मुखर रहे, इस किताब में कई प्रसंगों में यह बात सामने आती है।

इस किताब को पढ़ना एक यायावर के रोमांचकारी अनुभवों के साथ सफर करने जैसा है। यह लेखक के निजी जीवन की यादें जरूर हैं पर इन यादों की गलियों से गुजरते हुए हमारे समाज और समय की विद्रूपताएँ एक सामूहिक बोध की तरह पाठक के सामने खुलती चली जायेंगी।

(डॉ. रामायन राम उत्तर प्रदेश के शामली ज़िले में हिंदी में अध्यापन करते हैं। नवारुण से उनकी पहली किताब ‘डॉ. अंबेडकर: चिंतन के बुनियादी सरोकार’ 2019 में प्रकाशित हुई है।)

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