जलियांवाला बाग स्मारक का सौंदर्यीकरण : कुर्बानी की चेतना को मिटाने का उद्यम

केंद्र सरकार द्वारा गुजरात स्थित एक प्राइवेट कंपनी के माध्यम से जलियांवाला बाग स्मारक के सौंदर्यीकरण / नवीनीकरण की काफी आलोचना हो रही है। स्मारक के सौंदर्यीकृत रूप का उद्घाटन 28 अगस्त को प्रधानमंत्री ने किया। इस मुद्दे पर भारत से लेकर विदेशों तक कई विद्वानों, सामान्य नागरिकों और जनप्रतिनिधियों के विचार एवं प्रतिवाद तथा स्मारक के मौलिक रूप में किए गए परिवर्तनों के विवरण मीडिया में विस्तार से आ चुके हैं। इन सब में काफी आक्रोश के साथ लोगों ने कहा है कि सौंदर्यीकरण की आड़ में सरकार ने बलिदान के प्रतीक एक ऐतिहासिक स्मारक को पिकनिक स्थल में तब्दील कर दिया है। कुछ लोगों ने उस दिमाग पर आश्चर्य प्रकट किया है जो जलियांवाला बाग जैसे कुर्बानी के प्रतीक ऐतिहासिक स्मारक के सौंदर्यीकरण की बात सोच सकता है।

इस विषय पर चर्चा करने से पहले 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग नरसंहार के कुछ तथ्यों को याद कर लेना मुनासिब होगा, ताकि उस घटना के साथ जुड़ी कुर्बानी की चेतना और सौंदर्यीकरण के पीछे निहित उत्सवधर्मी मानसिकता को आमने-सामने रखा जा सके। वह बैसाखी के त्यौहार का दिन था। आस-पास के गावों-कस्बों से हजारों नर-नारी-बच्चे अमृतसर आये हुए थे। उनमें से बहुत-से लोग खुला मैदान देख कर जलियांवाला बाग में डेरा जमाए थे। रौलेट एक्ट के विरोध के चलते पंजाब में तनाव का माहौल था। तीन दिन पहले अमृतसर में जनता और पुलिस बलों की भिड़ंत हो चुकी थी। पुलिस दमन के विरोध में 10 अप्रैल 1919 को 5 अंग्रेजों की हत्या और मिस शेरवूड के साथ बदसलूकी की घटना हुई थी। कांग्रेस के नेता डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू गिरफ्तार किये जा चुके थे। शाम को जलियांवाला बाग में एक जनसभा का आयोजन था, जिसमें गिरफ्तार नेताओं को रिहा करने और रौलेट एक्ट को वापस लेने की मांग के प्रस्ताव रखे जाने थे। इसी सभा पर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर (जिन्हें पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर माइकल फ्रांसिस ओ’ड्वायर ने अमृतसर बुलाया था) ने बिना पूर्व चेतावनी के सेना को सीधे गोली चलाने के आदेश दिए। सभा में 15 से 20 हजार भारतीय मौजूद थे। उनमें से 500 से 1000 लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। फायरिंग के बाद जनरल डायर ने घायलों को अस्पताल पहुँचाने से यह कह कर मना कर दिया कि यह उनकी ड्यूटी नहीं है। 13 अप्रैल को अमृतसर में मार्शल लॉ लागू नहीं था। मार्शल लॉ नरसंहार के तीन दिन बाद लागू किया गया, जिसमें ब्रिटिश हुकूमत ने जनता पर भारी जुल्म किए।

जनरल डायर ने जो ‘ड्यूटी’ निभायी उस पर चश्मदीदों, इतिहासकारों और प्रशासनिक अधिकारियों ने, नस्ली घृणा से लेकर डायर के मनोरोगी होने तक, कई नज़रियों से विचार किया है। ब्रिटिश हुकूमत ने जांच के लिए हंटर कमीशन बैठाया और कांग्रेस ने भी अपनी जांच समिति बैठाई। इंग्लैंड में भी जनरल डायर की भूमिका की जांच को लेकर आर्मी कमीशन बैठाया गया। इंग्लैंड के निचले और उंचले सदनों में भी डायर द्वारा की गई फायरिंग पर चर्चा हुई। हालांकि निचले सदन में बहुमत ने डायर की फायरिंग को गलत ठहराया, लेकिन उंचले सदन में बहुमत डायर के पक्ष में था। इंग्लैंड के एक अखबार ने डायर की सहायता के लिए कोष की स्थापना की, जिसमें करीब 70 हज़ार पौंड की राशि इकठ्ठा हुई। भारत में रहने वाले अंग्रेजों और ब्रिटेन वासियों ने डायर को  ‘राज’ की रक्षा करने वाला स्वीकार किया।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ट्रेन से लाहौर से दिल्ली लौटते हुए उन्होंने खुद जनरल डायर को अपने सैन्य सहयोगियों को यह कहते हुए सुना कि 13 अप्रैल 1919 को उन्होंने जो किया बिल्कुल ठीक किया। जनरल डायर उसी डिब्बे में हंटर कमीशन के सामने गवाही देकर लौट रहे थे। जनरल डायर ने अपनी हर गवाही और बातचीत में फायरिंग को, बिना थोड़ा भी खेद जताए, पूरी तरह उचित ठहराया। ऐसे संकेत भी मिलते हैं कि उन्होंने स्वीकार किया था कि उनके पास ज्यादा असलहा और सैनिक होते तो वे और ज्यादा सख्ती से कार्रवाई करते। इससे लगता है कि अगर वे दो आर्मर्ड कारें, जिन्हें रास्ता तंग होने के कारण डायर जलियांवाला बाग के अंदर नहीं ले जा पाए, उनके साथ होती तो नरसंहार का पैमाना बहुत बढ़ सकता था।

हंटर कमीशन की रिपोर्ट और अन्य साक्ष्यों के आधार पर जनरल डायर को उनके सैन्य पद से हटा दिया गया। डायर भारत में ही जन्मे थे। लेकिन वे इंग्लैंड लौट गए और 24 जुलाई 1927 को बीमारी से वहीं उनकी मृत्यु हुई। क्रांतिकारी ऊधम सिंह ने अपने प्रण के मुताबिक 13 मार्च 1940 को माइकल ओ’ड्वायर की लंदन के काक्सटन हॉल में गोली मार कर हत्या कर दी। ऊधम सिंह वहां से भागे नहीं। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 31 जुलाई 1940 को फांसी दे दी गई। ऊधम सिंह का पालन अनाथालय में हुआ था। वे भगत सिंह के प्रशंसक और हिंदू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे। बताया जाता है कि अनाथालय में रहते हुए उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया था। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोरे ने ‘नाईटहुड’ और गाँधी ने ‘केसरेहिंद’ की उपाधियां वापस कर दीं। इस परिवर्तनकारी घटना के बाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन ने नए चरण में प्रवेश किया। करीब तीन दशक के कड़े संघर्ष और कुर्बानियों के बाद देश को आज़ादी मिली।

कहने की आवश्यकता नहीं कि आजादी के लिए किए गए बलिदान की चेतना को बचाए रखने के लिए उससे जुड़े स्मारकों को बचाए रखना जरूरी है। इसके लिए बलिदान की चेतना को आत्मसात करने के साथ ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए अद्यतन तकनीक और एक्स्पर्टीज़ की जरूरत होती है। संरक्षण और सौंदर्यीकरण में फर्क होता है। संरक्षण में आने वाली पीढ़ियों के लिए स्मारक के साथ जुड़ी चेतना को बचाने और बढ़ाने का काम किया जाता है। सौंदर्यीकरण में ऐतिहासिक / राष्ट्रीय स्मारकों के साथ जुड़ी मूल चेतना को नष्ट करके उन्हें पिकनिक स्थल में तब्दील कर दिया जाता है। जलियांवाला बाग में यही किया गया है। पिछले तीन दशकों से नवसाम्राज्यवाद की सेवा में लगा भारत का रूलिंग इलीट – राजनैतिक पार्टियां, सरकारें और इंटेलीजेन्शिया – आजादी के संघर्ष और बलिदान की चेतना को आने वाली पीढ़ियों के लिए खत्म कर देना चाहता है। यह कारण नहीं है, वह यह इसलिए करता है ताकि वह जो देश की संप्रभुता और संसाधनों / संपत्तियों को कारपोरेट घरानों / बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले आम बेचने में लगा है, उसके विरोध की चेतना का आधार ही नष्ट किया जा सके।

इस अभियान में सभी शामिल हैं। अलबत्ता आरएसएस / भाजपा का अपना अतिरिक्त एजेंडा है : स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष और बलिदान की चेतना का खात्मा होने पर उसे स्वतंत्रता आंदोलन के विरोध के ठप्पे से निजात मिल जाएगी; साथ ही वह समझता है कि भारत को ‘हिंदू-राष्ट्र’ बनाने के रास्ते में आने वाली अड़चनें भी दूर होंगी। लिहाजा, जो लोग जलियांवाला बाग के मौलिक चरित्र को बदलने का विरोध कर रहे हैं, उन्हें इसके मूल कारण – भारत पर कसा नवसाम्राज्यवादी शिकंजा – को भी समझना और उसका विरोध करना चाहिए।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के पूर्व शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी, भारत से संबद्ध हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments