किसानों की नजरें 15 जनवरी पर

अब बस कुछ ही दिन बचे हैं, किसान व उनके समर्थक 15 जनवरी के इंतजार में हैं। उस दिन, ऐतिहासिक किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहा संयुक्त किसान मोर्चा दिल्ली में मिलेगा। वहां वह पिछले नवंबर में कृषि संबंधी तीन काले कानून वापस लिए जाने पर सरकार द्वारा किये वायदों का जायजा लेगा व तदानुसार आगे की रणनीति तय करेगा। नवंबर में मोर्चा ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि आंदोलन को खत्म नहीं बल्कि स्थगित किया जा रहा है।

साल भर से कुछ अधिक चला किसान आंदोलन अद्वितीय था लेकिन तीन कृषि कानून कोई जादू का पिटारा नहीं था जिसके विरोध में किसान एकाएक उठ खड़े हुए थे। खेती-किसानी की हालत कई सालों से बद से बदतर होती आ रही थी और पिछले कुछ सालों में देश भर के किसान दिल्ली के जंतर-मंतर व अपने अपने राज्यों में समय-समय पर विरोध में जमा हो रहे थे। अभी का किसान आंदोलन उसी पृष्ठभूमि से उपजा था और तीन कृषि कानून ने बस चिंगारी का काम किया। इस आंदोलन की खासियत यह रही कि इसमें सब कुछ जैसे सही-सही था – उसकी राजनीति (गुटनिरेपेक्षता- राजनैतिक दलों व राज्य अधिकारियों से), प्रशासन (सामूहिक नेतृत्व व अपने निर्णयों का पूरा परिपालन), रणनीति (अहिंसा व बातचीत का जरिया), संचार (अति रचनात्मक पैरवी व लोक-संपर्क कार्यक्रम) और एक लंबे संघर्ष के लिए जज्बा, हिम्मत व धैर्य। निसंदेह, इसमें एक विवेकहीन सरकार के अहंकारी नेता (जैसा मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक ने भी हाल में कहा) व उनके गाली-गलौज करते भक्तों का पूरा सहयोग मिला।

लेकिन नंवबर से, जब वे कृषि कानून बाकायदा संसद में वापस लिए गये, तब से अब तक पूरा मौसम बदल सा गया लगता है। और आज तो चर्चा का मुख्य विषय तो राजनीति और पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव – अर्थात्, वही धर्म, जातिवाद, पैसा-दारू, तोड़ो-फोड़ो, आदि – हो गया है। तिस पर, पंजाब के किसान आंदोलन से जुड़े 22 किसान संघों ने सीधे राजनीति में जाने का फैसला किया है, जिससे संयुक्त किसान मोर्चा की एकता में कुछ सेंध लगी है और जिससे सरकार या राजनैतिक दलों को एक मौका मिल सकता है उस एकता को और तोड़ने का। व्यापक किसान समाज को अब जरा और सतर्क रहने की जरूरत हो गयी है। एहतियातन, यह कहना जरूरी लगता है कि राज्य चुनावों के जो भी परिणाम हों, किसान मुद्दे पर सरकार का पलड़ा अब कुछ भारी लगने लगा है।

इतना ही नही, नवंबर में जब वे कानून वापस लिए गये और किसान मोर्चा उठा़ कर घर लौटने लगे, उसे हम सरकार की कितनी भी हार मानें, उसी क्षण से पलड़ा सरकार की ओर झुकना शुरू हो गया था।

जरा सोचिए! वह किसी भी सरकार के लिए कितने शर्म की बात थी कि किसानों ने प्रधानमंत्री पर अविश्वास करते हुए इस बात पर जोर दिया कि पहले संसद उन कानूनों को वापस ले। फिर भी और हार मानते हुए भी सरकार ने बड़ी चतुराई से किसानों की अहम मांगों पर कोई ठोस हामी नहीं भरी। एम.एस.पी. पर सरकार ने एक समिति के गठन का वायदा किया। लेकिन एम.एस.पी. का मुद्दा नया नहीं है और काफी सालों से इस पर बातें होती आ रही हैं, यहां तक कि किसान, डॉ. स्वामीनाथन द्वारा सुझाए गए सूत्र को स्वीकार करने के पक्ष में थे। संयुक्त किसान मोर्चा आंदोलन के दौरान ही पहले एक समिति के गठन को अस्वीकार कर चुका था, तो वह ऐसी नयी समिति के विचार से क्यों सहमत हुआ जिसके सदस्य तक तय नहीं थे? और अब छह हफ्ते बाद भी उस समिति के गठन की, जैसी उम्मीद की जा सकती थी, कहीं नामों-निशान नहीं।

किसानों की दूसरी बड़ी मांग, जो संभवतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक न्यायोचित व अहम थी- अजय मिश्र टेनी का केन्द्रीय मंत्रिमंडल से निष्कासन व कानूनी कार्यवाही, उसे भी फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, कम से कम आगामी चुनावों के फैसलों तक। दो अन्य मांगें – भूमि व बिजली से संबंधित- सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया यह कह कर कि वे राज्यों के मसले हैं, जबकि हम जानते हैं कि इस सरकार का देश के संघीय ढांचे पर कितना विश्वास है। और जो आंदोलन के दौरान किसानों पर ठोके गये मुकदमों को वापस लेने की मांग थी, वह सरकार ने मानी, पर वो देर-सबेर तो मानी ही जानी थी।

किसान आंदोलन ने पूरे देश और दुनिया का ध्यान खींचा। 365 से अधिक दिन सड़कों पर, मौसम की हर मार झेलते हुए और वह भी एक ऐसी सरकार और उसके पुलिस बल के सामने जिसे अपनी ताकत का बद से बद इरादों से इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं- वह कोई कम धैर्य व साहस की बात नहीं थी। सो उसी से उपजी, इस आंदोलन की एक मुख्य सफलता यह थी कि उसने उस ‘भय’ के आवरण को कुछ हटाया जो पूरे देश पर छा रहा था। आंदोलन ने लोकतंत्र और संविधान के प्रति गहन आस्था (और जरूरत) को रेखांकित किया और बेशक आगे बहुत अन्य उम्मीदें उससे प्रोत्साहित होंगी। बैंक कर्मचारियों ने लंबे विरोध की शुरूआत कर दी है; लघु व मध्यम उद्योग भी असंतोष जाहिर करने लगा है और युवा भी सड़कों पर उतरने लगे हैं। अन्य लोग भी अपनी आवाज वापस पाने लगेंगे।

लेकिन हम ये भी समझ लें कि कोई भी अन्य समुदाय या लोग ऐसा आंदोलन नहीं कर सकते थे या हैं जैसा कि किसानों ने किया। किसानों की जड़ें जमीन और अपनी जमीन में गहरी होती हैं और मूलतः, वे स्वयं अपने मालिक होते हैं, किसी बाहरी के प्रति जवाबदेही उनकी नहीं होती। हां, एक ही समुदाय है जो किसानों के कुछ करीब आता है, वह है युवा, लेकिन युवा को लेकर हम यह सुनिश्चित नहीं कह सकते कि वे ऐसा आंदोलन पूर्णतः अहिंसात्मक तौर पर कर सकते, जैसा किसानों ने किया। वाकई, देखा जाए तो अहिंसा (विचार व रणनीति) इस आंदोलन से एक प्रमुख सीख निकली है। यह एक अलग विषय है और इसे कुछ अधिक तवज्जो देने व उस पर कुछ अध्ययन करने की जरूरत है।

फिर भी, नवंबर के बाद, सरकार (किसी भी सरकार) के लिए सबसे बड़ी फायदे की बात रही है कि जब यह आंदोलन स्थगित किया गया, वह वास्तव में अपने खेती-किसानी की दायरे से निकल कर देश-समाज के बाकी व्यापक अहम सवालों को अपने घेरे में लेने लग गया था। वह उन तीन कृषि कानूनों से आगे उनकी नींव में पड़े बड़े खतरों को चिन्हित करने लगा था; वह हमारे जीवन, विकास व भविष्य तय करने में देसी-विदेशी बड़ी-बड़ी कंपनियों के हस्तक्षेप व बढ़ती भूमिका को बेपर्दा करने लगा था; वह किसान ही नहीं, बल्कि ‘‘देश बचाओ’’ की बात करने लगा था। यह आंदोलन सरकार द्वारा संविधान को हाशिए पर धकेलने की कोशिशों, देश की दशकों से अर्जित पूंजी को कौड़ी के भाव निजी हाथों बेचने, देश में सामुदायिक विघटन, वैमनस्य व नफरत के खिलाफ खड़ा हो रहा था। आंदोलन के स्थगन से सरकार उन सवालों से कुछ बच गयी है।

यह कतई नहीं कहा जा रहा है कि किसान अपने घर व जमीन से इतने लंबे समय तक दूर रहने के बाद घर लौटने के हकदार नहीं थे। लेकिन हम 15 जनवरी को संयुक्त किसान मोर्चा से क्या अपेक्षा कर सकते हैं? पंजाब में 22 किसान संघों के हट जाने से, मोर्चा के लिए, तात्कालिक रूप से ही यही, रास्ता कुछ कठिन हुआ है। यह भी नहीं कहा जा रहा है कि किसान फिर ऐसा आंदोलन नहीं कर पाएंगे, क्यों कि अंतत सवाल उनके जीने-मरने का है। लेकिन आंदोलन के स्थगन के बाद, अन्य क्षेत्रों के संघर्ष अब उतने व्यापक सामाजिक एकता के साथ शायद आगे न बढ़ पाएं। संयुक्त किसान मोर्चा की चुनौतियां कुछ नयी, कुछ बढ़ गयी हैं।

(बीजू नेगी बीज बचओ आंदोलन व हिंद स्वराज मंच से जुड़े हैं।)

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