पंजाब में कांग्रेस का दलित और गरीब कार्ड कितना कारगर

पंजाब में संभवतः दलित पहली बार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सहित अन्य राजनितिक दलों के टॉप एजेंडे में हैं। लेकिन यह भी हकीकत है कि हिंदी पट्टी यथा यूपी और बिहार की तरह पंजाब का दलित समुदाय अभी तक किसी पार्टी का वोट बैंक नहीं रहा है। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि पंजाब में कांग्रेस ने अमरिंदर सिंह को हटाकर पहले दलित चेहरे चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है और कांग्रेस ने मौजूदा सीएम को ही अगले विधानसभा चुनाव के लिए पंजाब में सीएम चेहरा घोषित किया है। इसका आधिकारिक ऐलान राहुल गांधी ने रविवार को लुधि‍याना में आयोजित एक रैली में किया।

इसके साथ ही राहुल गांधी ने पंजाब में गरीब कार्ड भी खेल दिया है। लुधि‍याना में अपने संबोधन में राहुल गांधी ने कहा कि चन्नी जी गरीब घर के बेटे हैं। वे गरीबी को समझते हैं और गरीबी से निकले हैं। उनके खून में पंजाब है। सिद्धू जी के भी खून में पंजाब है। काटकर देख सकते हैं। इनके खून में पंजाब दिखेगा। चन्नी जी के अंदर अहंकार नहीं है। वे जनता के बीच जाते हैं। मोदी, योगी तो जनता के बीच नहीं जाते।

चन्नी दरअसल रामदसिया दलित सिख समुदाय से आते हैं । पंजाब में दलितों की आबादी करीब 32 फीसदी है। चन्नी की हिंदू दलितों के साथ सिख समुदाय पर भी अच्छी पकड़ है। चन्नी को चेहरा बनाने से दलित वोट के साथ सिख वोट भी कांग्रेस को मिल सकते हैं। चन्नी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से तो इसका सीधा असर दलित वोट पर पड़ना तय है। जबसे चन्नी सीएम बने हैं तभी से पंजाब में दलित विमर्श शुरू हो गया है। सीएम फेस घोषित होने के बाद दलित समुदाय की कुंडलियां खोली जा रही हैं और मीडिया पंजाब के दलित विमर्श में पूरी तरह डूब गयी है। 

चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभान का मानना है कि “पंजाब में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से कड़ी चुनौती मिल रही है, लेकिन आम आदमी पार्टी के सीएम फेस भगवंत मान पर नशेड़ी होने का गम्भीर आरोप है और उनकी संस्थानिक क्षमता की परीक्षा नहीं हुई है कि क्या वे अपने बूते पर सारे पंजाब में आप पार्टी को ढो सकते हैं? शिरोमणि अकाली दल और बसपा से मिलकर तीसरा कोण तथा अमरिंदर सिंह भाजपा के साथ मिलकर चौथा कोण बना रहे हैं। पंजाब में बहुकोणीय मुकाबला दिख रहा है। ऐसे में यदि दलित चेहरे के नाम पर पंजाब में ध्रुवीकरण होता है तो कांग्रेस के लिए पौबारह होना निश्चित है।”

तीन दशक से पंजाब की राजनीति पर नजर रखने वाले चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडे का कहना है कि “आज़ादी के बाद एकीकृत पंजाब में चार सीएम हिन्दू थे, फिर पंजाब और हरियाणा अलग हुए, तो सिख सीएम बनने लगे। इसमें वर्ष 1966 के बाद से अब तक राज्य के 15 मुख्यमंत्रियों में से यदि जैल सिंह को छोड़ दें, जो एक रामदसिया सिख थे, तो बाकी सारे मुख्यमंत्री जाट सिख थे।” दरअसल पिछले साल भाजपा ने जब यह ऐलान किया कि वह राज्य की सत्ता में आने पर किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाएगी, तो यह पंजाब की दलित-राजनीति में एक नए युग का आगाज था। इसके तत्काल बाद ही शिरोमणि अकाली दल ने भी घोषणा कर दी कि अगर राज्य में उसकी सरकार बनती है तो उप-मुख्यमंत्री पद पर किसी दलित को लाया जाएगा। इसके पांच महीने बाद कांग्रेस ने मौका मिलने पर आखिरकार एक दलित को मुख्यमंत्री की गद्दी सौंपने में देरी नहीं की और अब सीएम फेस बनाने का ऐलान कर दिया। अब चुनावी नतीजों से ही पता चलेगा कि राजनीतिक दलों की कोशिशों के बाद पंजाब में भी दलित एकजुट होकर वोट बैंक बनेगे या नहीं ।

दरअसल भारत की  दलित आबादी का एक बड़ा हिस्सा पंजाब में रहता है। साल 2018 की सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि पंजाब में दलितों की 39 उपजातियां हैं। इन 39 उपजातियों में पांच उप-जातियां दलित आबादी का 80 प्रतिशत हैं। दलितों में मजहबी सिखों की सबसे बड़ी 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वहीं रविदासिया (24 प्रतिशत) और आदधर्मी (11 प्रतिशत) और वाल्मिकी (10 प्रतिशत) हैं। पंजाब में दलित हिंदू और सिखों में बंटे हुए हैं। पंजाब की कुल आबादी का 32 फीसद दलित हैं। कुल दलित आबादी का 59.9 फीसद सिख और 39.6 फीसद हिंदू हैं। जाट सिखों की संख्या क़रीब 20% है। कुल सिख समुदाय का 60 प्रतिशत जाट सिख ही हैं, इनका राजनीति के साथ आर्थिक दबदबा भी है। जाट किसानों के पास राज्य में जमीन का बड़ा हिस्सा है वहीं दलितों के पास राज्य में महज 6.02 कृषि भूमि है।

एक मोटे अनुमान के अनुसार पंजाब में 5,23,000 परिवार गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी गुजार रहे हैं। इनमें से 3,21,000 यानी करीब 61.4 फीसद दलित हैं । पंजाब विधानसभा के कुल 117 सीटों में से 34 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं । वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 34 एससी सीट में से 21 पर जीत हासिल की थी जबकि आम आदमी पार्टी ने 9, अकाली 3 और बीजेपी ने 1 सीट जीती थी । कुल 50 सीटें ऐसी हैं जिनपर दलित वोटर हार जीत का फ़ैसला करते हैं। लेकिन दलित पूरे राज्य में समान रूप से फैले हुए हैं। दोआबा में 37 फीसदी, मालवा में 31 फीसदी और माझा में 29 फीसदी दलित आबादी है जो जीत हार को प्रभावित करती है।

पंजाब में डेरा सचखंड बल्लन को रविदासिया अनुयायियों के सबसे बड़े डेरों में से एक माना जाता है। रविदासिया समुदाय पंजाब के सबसे बड़े दलित समुदाय में से एक है,  कुल दलित आबादी का 24 प्रतिशत। जालंधर के बल्लन गांव में स्थित, डेरा सचखंड बलान का दोआबा क्षेत्र में व्यापक असर है। पंजाब विधानसभा की 117 सीटों में से 23 सीटों पर इसका असर है। रविदासिया समुदाय के वोट हर निर्वाचन क्षेत्र में 20 से 50 प्रतिशत के करीब हैं ।

मालवा में सबसे ज्यादा दलित आबादी है। सीएम चरणजीत चन्नी मालवा के रहने वाले हैं और रविदासिया उपजाति से ताल्लुक रखते हैं। यही वजह रही कि कांग्रेस ने चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर एक बड़ा दांव खेला है। आम आदमी पार्टी भी इस दलित वोट के महत्व को अच्छे से समझती है, इसलिए मुख्य विपक्षी दल के प्रमुख के पद पर हरपाल चीमा को बिठाया गया था।पंजाब की सबसे बड़ी दलित आबादी का 28 प्रतिशत हिस्सा जालंधर, लुधियाना और अमृतसर की बेल्ट में ही रहता है। जालंधर जिले के उग्गी पिंड गांव में लगभग 5,000 के करीब आबादी है, जिसमे से 60% आबादी दलितों की है।

रविदासिया/अधधर्मी समुदाय में, जिसमें अनुसूचित जातियां शामिल हैं, जो परंपरागत रूप से चमड़े के व्यवसाय में हैं, का चन्नी के प्रति झुकाव स्पष्ट है, लेकिन जमीनी स्तर पर पूछताछ से पता चलता है कि यह प्रभाव राज्य के सबसे बड़े एससी समुदाय मजहबी सिखों में उतना रैखिक नहीं हो सकता है। परंपरागत रूप से, बाल्मीकि, जो एक ही जाति की पृष्ठभूमि साझा करते हैं और जनगणना में खुद को हिंदू बताते हैं और मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों और आसपास के इलाकों में रहते हैं, पहले से ही मुख्य रूप से कांग्रेस का समर्थन करते आये हैं, जबकि मजहबी सिख कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के पक्ष में विभाजित हैं। दो समुदाय – रविदासिया/अधधर्मी और मज़हबी सिख/बाल्मीकि- भी सामाजिक और राजनीतिक स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं।

पंजाब में दलित 32 प्रतिशत हैं फिर भी बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम राजनीतिक शक्ति नहीं बन पाए। कांशी राम पंजाब के होशियारपुर ज़िले से थे। उन्होंने यहीं से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की थी। कांशी राम ने पंजाब में दलितों को एकजुट करने के लिए काफ़ी मेहनत की और उनके बीच राजनैतिक जागरूकता फैलाने के लिए भी काफ़ी प्रयास किया। इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1996 में उन्हें जीत हासिल हुई। उस समय भी उनकी पार्टी का गठबंधन शिरोमणि अकाली दल के साथ था। लेकिन 1997 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 7.5% प्रतिशत मत ही मिल पाया था, जो वर्ष 2017 में हुए विधानसभा के चुनावों में सिमटकर 1.5% पर आ गए।

वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडे  का कहना है कि  “दलित  आबादी भी बंटी हुई है और यूपी या बिहार की तरह समाज के हाशिये पर नहीं है। दलित समाज में अच्छी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के भी लोग हैं। उनका कहना है कि बहुजन समाज पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शन वर्ष 1992 में रहा जब उसे 16 प्रतिशत मत मिले थे। लेकिन समय के साथ पार्टी का प्रभाव कम होता चला गया और वो सिमटकर पंजाब के दोआबा क्षेत्र के कुछ इलाकों में रह गयी।” तमाम प्रयासों के बावजूद कांशी राम पंजाब में बहुजन समाज पार्टी को दलितों की पार्टी के रूप में स्थापित नहीं कर पाए, क्योंकि ‘मज़हबी सिख’ यानी वो सिख जो अनुसूचित जाति से आते हैं और वाल्मीकि , इन दोनों समाज के लोगों ने हमेशा ख़ुद को इस पार्टी से अलग रखा।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)  

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