15 अगस्त से भूख हड़ताल पर बैठेंगे पत्रकार रूपेश कुमार सिंह

15 अगस्त जब पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस का महाउत्सव मनाया जाएगा, उस दिन झारखंड के सरायकेला जेल में बंद जनपक्षीय पत्रकार रूपेश कुमार सिंह अपनी तीन मांगों को लेकर भूख हड़ताल पर बैठेंगे।
ये तीन मांगे हैं-
1. जिस सेल में उन्हें रखा गया है, उसके अस्सी प्रतिशत हिस्से में बरसात का पानी टपक रहा है, वहां की छत टूट कर गिर रही है, साथ ही यह एक तन्हा सेल है,  लिहाजा उन्हें वहां से हटाकर सुरक्षित जगह पर रखा जाए।
2. वे एक पत्रकार हैं, लेखक हैं इसलिए लिखने के लिए उन्हें कॉपी कलम दी जाए।
3. मिलने वाला खाना जेल मैन्युअल के हिसाब से नहीं है और साथ ही कच्चा, अधपका होता है, उसे ठीक किया जाए।
ये तीन ऐसी मांगे हैं जिसके लिए न ही कोई नया कानून बनाने की जरूरत है और न ही जेल प्रशासन को कोई बड़ी परेशानी झेलने की, बावजूद इसके इन्हीं बातों को लेकर पिछले कई दिनों से रूपेश को शिकायत करनी पड़ रही है, फिर भी उन्हें नहीं सुना जा रहा है। जेल प्रशासन की शोषण की मंशा को हम इसी बात से समझ सकते हैं।
राजनीतिक बंदी का दर्जा होने के बदले पेशेवर अपराधियों सा व्यवहार
15 अगस्त को हम स्वतंत्रता दिवस के रूप में जानते हैं, हम जानते हैं कि आज से 74 साल पहले हमारा देश आजाद हुआ था, हम मानते हैं कि ब्रिटिश सत्ता एक क्रूर सत्ता थी जिसके क्रूर जेल प्रशासन के खिलाफ भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल में 63 दिनों का भूख हड़ताल किया था जिसमें जतिंद्र नाथ दास शहीद हो गए थे, उनकी भूख हड़ताल भारतीय कैदी और विचाराधीन कैदी के साथ ब्रिटिश सत्ता के क्रूर व्यवहार के खिलाफ थी, उनकी मांगें थीं कि उनके जैसे विचाराधीन कैदियों को राजनीतिक बंदी का दर्जा दिया जाए, उनके खाने की बदतर क्वालिटी ठीक की जाए, पढ़ने लिखने की सामग्री दी जाए, उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाए और अंततः जिसे हम एक क्रूर सत्ता कहते हैं, ने इन मांगों के सामने घुटने टेक दिए और क्रांतिकारियों को राजनीतिक बंदी का दर्जा दिया गया था।

इन बातों को  आज दुहराने की जरूरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि आज उसी आजाद देश के झारखंड राज्य के सरायकेला जेल में बंद पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को वैसी ही मांगों को लेकर भूख हड़ताल पर बैठने की नौबत आ गई है। आज आजाद देश में  राजनीतिक बंदियों को वह आजादी नहीं रह गई है जो उस वक्त गुलाम देश में भी राजनीतिक बंदियों को थी। यतींद्र नाथ दास ने अपने प्राण न्यौछावर कर जो आज़ादी दिलाई थी, आज की जेल व्यवस्था ने उसे खत्म कर दिया है। इस बात का उदाहरण हमें पूरे देश भर में देखने को मिलता है, चाहे वह भीमा कोरेगांव में फंसाए जन पक्षधर हों, चाहे सिद्दीक कप्पन जैसे पत्रकार, स्टेन स्वामी की मौत को तो हम भूल ही नहीं सकते। आज की जेल व्यवस्था उस वक्त की व्यवस्था से भी बदतर है, जबकि कानून में जेल को सुधार गृह कहा गया है और कैदियों के लिए उचित खाने पीने, सोने-बैठने यानी जीने के मौलिक अधिकार की बात कही गई है।

हकीकत में आज जनतंत्र की आवाज को क्रूरता के साथ दमन किया जा रहा है, कितनी शर्मिंदगी की बात है आदिवासी जनता के हक अधिकार पर लेख लिखने वाले जनपक्षीय पत्रकार को अपनी लेखनी की सजा जेल के रूप में भुगतनी पड़ रही है। गिरफ्तारी के बाद से ही उनके साथ एक अपराधी की तरह व्यवहार किया जा रहा है जबकि रूपेश समाज के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, जिनकी लेखनी हमेशा जनता के हक अधिकारों के लिए ही चली है, जमीनी हकीकत को बिना झिझके और डरे वे लिखते रहे हैं।
कौन हैं पत्रकार रुपेश कुमार सिंह?

रूपेश कुमार सिंह एक पत्रकार हैं, जो झारखंड की आदिवासी-मूलवासी जनता  की जमीनी रिपोर्टिंग करते रहे हैं, जिनमें वे “आदिवासी की नक्सली के नाम पर प्रशासनिक हत्या, उनके जमीन की लूट, स्कूल इमारतों में सीआरपीएफ कैंप लगाने के सरकार की योजना, गरीबी व भूख से मौत,”…. जैसे संवेदनशील मामले पर वेब पोर्टल जनचौक, द वायर, जनज्वार, हस्तक्षेप, व कई पत्र-पत्रिका समयांतर, तलाश, प्रेरणा अंशु, दस्तक नये समय की, बिरसा भूमि इत्यादि में लिखते रहे हैं, इनके लेख गूगल में इनका नाम सर्च करके भी निकाला जा सकता है। पर सरकार बार-बार इन्हें अपराधी लिस्ट में डालने पर तुली हुई है।
क्यों फंसाए जा रहे हैं जनपक्षीय पत्रकार

चूंकि जब वे आदिवासी मूलवासी जनता के हक की बात लिख रहे हैं तो स्वत: ही सरकार की विकास नीति पर सवाल उठ खड़ा हो रहा है, जब एक आदिवासी की प्रशासनिक हत्या की रिपोर्टिंग होती है तो सरकार सवाल के घेरे में आ खड़ी होती है, साथ ही पूरे पुलिस प्रशासन पर भी सवाल उठते हैं। रूपेश ने हाल ही में  गिरीडीह में औद्योगिक प्रदूषण पर भी लेख लिखा है, जिस मामले पर सरकार भी चुप बैठी हुई थी, रूपेश ने सभी उद्योगों पर सवाल खड़े कर दिए। यही कारण है कि रूपेश कारपोरेट, पुलिस प्रशासन व सत्ता के निशाने पर हैं, इन्हें ऐसे झूठे केस में फंसाया गया है। अगर ये कश्मीर के सवाल पर लिखते तो शायद इन पर आतंकवाद का केस लगाया जाता, पर ये आदिवासी जनता पर लिखते हैं इसलिए नक्सलवाद का केस लगाया गया है।
जनपक्षीय पत्रकार की आवाज दबाने की पूरी मंशा

अभी जब ये एक झूठे केस को झेलने की जहमत उठा रहे हैं, इनका नाम बोकारो जिला के एक और नये केस जागेश्वर बिहार थाना अंतर्गत केस नं-16/22 में जोड़ दिया गया है, इस केस में मामला क्या है पता नहीं, पर उस केस में उनकी 10 अगस्त को पेशी भी कर दी गई,  जबकि न ही पहले केस में ये नामजद थे न ही दूसरे केस में। अक्सर हम देखते हैं कि किसी घटना पर अज्ञात नाम पर कुछ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया जाता है, इसलिए बड़ा आसान है कि उसमें किसी के नाम को भी जोड़ा जा सके, आज एक पत्रकार के साथ यही घृणित खेल खेला जा रहा है, अभी यह कहना भी मुश्किल है कि सरकार के एलिगेशन का यह खेल यहीं रूकेगा, या और भी आगे बढ़ेगा।

गिरफ्तारी से आज तक जेल में स्थिति
एक नजर हमें पूरी घटना पर डालनी चाहिए। 17 जुलाई को गिरफ्तारी के बाद  18 जुलाई को जब जेल भेजा गया तो उन्हें संक्रामक रोग से ग्रसित- टीवी, हेपेटाइटस बी, कुष्ठ रोग से ग्रस्त कैदी के साथ रख दिया गया, अगले ही दिन रिमांड पर लिया गया और  19-23 जुलाई तक पहला रिमांड रहा, उसके खत्म होने पर एक नयी जगह रखी तो गयी, पर वह और भी बदतर निकली, वह एक पुराना महिला वार्ड है, टूटा फूटा और जर्जर, वह एक एकांत सेल है जहां एक भी कैदी नहीं है, आस पास झाड़ झंकार है जिसमें जहरीले जीव लाजमी है रहते होंगे। 28 को दूसरा रिमांड पर रखा गया और 31 जुलाई को फिर उसी जगह भेज दिया गया।

रूपेश ने इसकी शिकायत 31 जुलाई को सीजेएम मंजू कुमारी के सामने खुद रखा भी था, मगर उसमें कोई बदलाव नहीं किया गया। और अभी तो स्थिति और भी बदतर है अभी बरसात में उस सेल का 80% हिस्सा से पानी टपकता है, दीवारें पूरी जर्जर हो गई हैं और छत झड़कर गिर रही है, पूरे कमरे में सीपेज है, उस बड़े वार्ड में अकेले वे ही एक कैदी हैं। अकेले रहने पर किसी आकस्मिक खतरे से बचना भी मुश्किल है। जेल में तो ऐसे भी खाने की क्वालिटी बदतर ही होती है पर यहां इतनी बदतर है कि एक वक्त भी ठीक से खाया नहीं जाता, जब हम उनसे मिले थे, वे बेहद कमजोर दिख रहे थे।

इस बात पर रूपेश की जीवन साथी ईप्सा शताक्षी ने वहां की सुपरिटेंडेंट हिमानी प्रिया से फोन पर जगह बदलने की अपील की पर कोई सुनवाई नहीं हुई, रुपेश ने 31 जुलाई को सीजेएम मंजू कुमारी से इसकी शिकायत की, पर कोई बदलाव नहीं आया, ईप्सा ने झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन, झारखंड के सीएम सेक्रेटरी, स्वास्थ्य विभाग झारखंड, डीसी सरायकेला, जेल आईजी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इन सभी को लिखित शिकायत मेल द्वारा भेजा, मगर अभी तक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। दिन-प्रतिदिन अपनी बदतर स्थिति को देखते हुए रूपेश अब भूख हड़ताल करने पर विवश हैं ताकि बहरे कानों में ये आवाज पहुंच सके। एक पत्रकार को अकेला व इस स्थिति में रखना उसे मानसिक प्रताड़ना देने की साज़िश ही है।
जेल व्यवस्था शोषण का अड्डा

सरायकेला जेल एक ऐसी जेल है जहां कैदियों का शोषण चरम पर है, अपनी बातों को वे रखते रहते हैं पर कोई सुनवाई नहीं होती। वहां कैदियों की क्षमता 298 है जिसमें पुरूष कैदियों की संख्या 290 तथा 8 महिला कैदी हैं, मगर यहां कैदियों की कुछ संख्या लगभग 500 है, यानी क्षमता से लगभग दुगुना, अब हम समझ सकते हैं कि ये कैदी किस स्थिति में रखे गए होंगे, इतने कैदियों के हिसाब से सिपाहियों की संख्या काफी कम है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहां जेलर ही नहीं है। जिस सुपरिटेंडेंट के अंतर्गत यह जेल है कैदी उनसे मिल ही नहीं पाते, अपनी बाते क्या सुनाएंगे, खाने का स्तर वैसा ही गिरा हुआ है जैसे कैदी इंसान न हों।

जब एक कैदी विचाराधीन कैदी होता है तो वह अपराधी नहीं होता क्योंकि अंतिम फैसला कोर्ट द्वारा उसके अपराधी होने और न होने को तय करते हैं, मगर जेल प्रशासन कैदियों को कोर्ट के फैसले के पहले ही अपराधी साबित कर सजा निश्चित कर देती है जिसमें उनसे जीने के अधिकार छिन उन्हें अधपका खाना, रहने के लिए बदतर जगह, मच्छरों की भन-भन, या तो दुगनी भीड़ या एकांत कारावास, बीमार पड़ने पर उचित इलाज नहीं, जैसी तमाम सजाएं तय कर देती हैं। अक्सर कैदी विचाराधीन होने के बावजूद भी इस यातना को झेल रहे हैं क्योंकि उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है, आदिवासी जनता के साथ उस राज्य में यह दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है जिस राज्य के मुख्यमंत्री आदिवासी हैं और जिस राज्य की आदिवासी महिला को देश की राष्ट्रपति बनाया गया है।

झारखंड की ज्यादातर जेलें झूठे केस में फंसाए गए आदिवासी जनता से भरी पड़ी हैं। साथ ही उनके लिए जो भी आवाज उठ रही है उन्हें भी जेल में भरा जा रहा है। स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी भी इसी की कड़ी थी और रूपेश की गिरफ्तारी भी इसी की कड़ी है।
तमाम न्यायपसंद लोगों से आह्वान

रूपेश हमेशा ही शोषण और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, जेलों की शोषण युक्त इस व्यवस्था के खिलाफ भी वे आवाज उठा रहे हैं, सारे प्रयास विफल होने के बाद जेल के बड़े जमादार सियाराम शर्मा से 9 अगस्त को ही अपनी तीन मांगों को रखते हुए रूपेश कुमार सिंह ने 15 अगस्त से भूख हड़ताल की बात रखी है, वे उसे लिखित देना चाहते थे मगर उन्हें कागज उपलब्ध नहीं कराया गया, और इस घोषणा के बाद भी अभी तक कोई परिणाम नहीं निकला है।

रूपेश कुमार सिंह ने तमाम न्याय पसंद लोगों से आह्वान किया है कि जेल प्रशासन के कैदियों के इस शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में उनका साथ दे, आदिवासी जनता का शोषण करने वाली व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाएं। एक तरफ स्वतंत्रता दिवस का अमृत महोत्सव और दूसरी तरफ जनता की आवाज का इस प्रकार शोषण बेहद ही शर्मनाक है। हमें इसके खिलाफ ज़रूर से ज़रूर आवाज उठानी चाहिए। हम मूक दर्शक नहीं, इस देश की जनता हैं जिसके ऊपर कानून नहीं जिसके लिए कानून हैं। और इस तरह के काले कानून और नियम के खिलाफ हमें उठने की सख्त ज़रूरत है।

(इलिका प्रिय एक उभरती लेखिका हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments