नये भारत के निर्माण की बारिश

पीएम मोदी दो दिन के गुजरात दौरे पर थे। परसों गुजरात से दो तस्वीरें आयीं। एक तस्वीर में पीएम मोदी देश के दूसरे नंबर के पूंजीपति और अपने खासमखास अंबानी के 5जी वेंचर का उद्गाघटन कर रहे हैं। यहां यह बात भी बतानी जरूरी हो जाती है कि यह काम करके वह देश के और जनता के अपने सेक्टर बीएसएनएल की कब्र का रास्ता साफ कर रहे हैं। और दूसरी तस्वीर में वह वंदे भारत ट्रेन में इंजन की ड्राइविंग सीट पर बैठकर उसे चलाते दिखते हैं। और यह वंदे भारत भी निजी कारपोरेट घरानों के लिए ही तैयार की गयी है। वाराणसी से दिल्ली चलने वाली वंदे भारत पहले निजी हाथ में ही थी अभी जब उसमें घाटा हुआ तो उसके मालिक ने उसे सरकार को सरेंडर कर दिया।

ये देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जो कुछ पूंजीपतियों के सामानों के ब्रांड अंबेसडर बन गए हैं। अडानी और अंबानी इनको अपनी जेब में रखते हैं और जैसे ही उनको जरूरत पड़ती है वो कबूतर की तरह जेब से निकाल कर अपने बगल में खड़ा कर लेते हैं। उसी जगह से एक तीसरी तस्वीर भी आयी है जिसमें वह एक सभा को संबोधित कर रहे हैं और अभी उनका भाषण चल ही रहा है कि तभी भारी तादाद में लोग उठ कर जाने लगते हैं। अब पिछले 25 सालों से एक ही मुंह से एक ही तरह का भाषण सुनते-सुनते जनता भी ऊब गयी है। और वह भी सच होता तो कोई बात होती। जब सब कुछ झूठ हो तो वह भी कितने दिन? और पीएम मोदी की छवि तो अब ऐसी बन गयी है कि वह अगर सच बोलें तो भी लोग विश्वास नहीं करेंगे और उसे झूठ ही समझेंगे। पिछले आठ सालों की पीएम मोदी की यही कमाई है। कॉरपोरेट का, कॉरपोरेट के लिए और कॉरपोरेट द्वारा। 

दूसरी तरफ एक दूसरी तस्वीर कर्नाटक के मैसूर से आयी है। जिसमें मूसलाधार बारिश के बीच कांग्रेस सांसद राहुल गांधी भीगते हुए खुले मंच से भाषण दे रहे हैं और सामने तकरीबन 40 हजार जनता उसी बारिश के बीच उनको सुन रही है। यह तस्वीर भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हो चुकी है। अब इसे कोई मिटा नहीं सकता। लेकिन इसके साथ ही घटना यह भी बताती है कि लोग कितने परेशान हैं और बदलाव की एक छोटी आशा के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर देने के लिए तैयार हैं। कल गांधी जयंती के मौके पर कर्नाटक से आयी यह तस्वीर राजनीति के नये बदलाव का आगाज कर रही है। कन्याकुमारी से शुरू हुई राहुल गांधी की यात्रा को जो अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है वह अनायास नहीं है। लोग आ रहे हैं और राह चलते राहुल से लिपट जा रहे हैं। कोई रोने लग रहा है। तो कोई उनका गाल चूम लेना चाहता है।

बच्चियां निश्छल भाव से जिस तरह से राहुल से मिल रही हैं वह न केवल उनके लिए सुकूनदायक है बल्कि उन तस्वीरों को देखने वालों के कलेजे को भी शीतलता दे रहा है। यह एकाएक नहीं हुआ है। पिछले आठ सालों में इस देश में न केवल नफरत और घृणा फैलाया गयी। बल्कि जनता के पास जो कुछ था उसको भी उससे छीन लिया गया। और एक देश जो बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा था, यहां तेजी से आगे बढ़ने का मतलब पांचवीं अर्थव्यवस्था बनना नहीं है बल्कि अपनी पूरी जनता को समृद्ध करते हुए उनके रोजी-रोटी और शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादी सवालों को हल करते हुए आगे बढ़ने की बात है। आज उसी जनता के 80 फीसदी हिस्से को हासिये पर खड़ा कर दिया गया है। पीएम मोदी खुद अपनी तारीफ में कई बार अपनी पीठ थपथपा चुके हैं कि वह 80 फीसदी जनता को बैठा कर खिला रहे हैं।

जिस देश में अब खाना-पीना कोई मुद्दा नहीं था और जनता अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और प्रगति समेत घर के हर तरह के विकास के बारे में सोच रही थी उसे एक बार फिर रोटी का हिसाब लगाना पड़ रहा है। इन स्थितियों से लोग ऊब गए हैं। देश और लोगों की जिंदगियों ने बहुत आगे का रास्ता तय कर लिया था लेकिन पिछले आठ सालों में उन्हें उतना ही पीछे कर दिया गया। उनका सारा पैसा लूट कर अडानी और अंबानी को दे दिया गया जो देश और दुनिया के सबसे बड़े दौलतमंदों में शुमार हो चुके हैं। इस बीच न तो उन्होंने कोई फैक्ट्री लगाई, न कोई रोजगार पैदा किया फिर भला उनकी संपत्ति इतनी कैसे बढ़ गयी इसका कोई जवाब है मौजूदा सरकार के पास? 

अब तो खुद इनके लोग भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कल ही स्वदेशी जागरण मंच के एक वेबिनार में स्वीकार किया कि देश में 20 फीसदी से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जी रहे हैं। 20 फीसदी संपत्ति देश के महज एक फीसदी लोगों के पास है। और 50 फीसदी लोगों के हिस्से में सिर्फ 13 फीसदी दौलत है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी माना कि देश में गैरबराबरी के पैमाने ने आसमान छू लिया है। अब इससे ज्यादा किसी और सबूत की क्या जरूरत है? हालांकि वास्तविक आंकड़े देश की और भी ज्यादा बुरी तस्वीर पेश करते हैं।

ऐसे में एक लुटी-पिटी जनता के पास अपनी राय और पीड़ा जताने का और क्या जरिया हो सकता है? राहुल गांधी ने जनता के बीच जाने का यह जो फैसला लिया है वह ऐतिहासिक है। इसे बहुत पहले ले लिया जाना चाहिए था। वैसे तो माओ त्से तुंग का सिद्धांत ही यही था जब कुछ भी समझ में न आए तो नेता को जनता के बीच चले जाना चाहिए। और फिर जनता रास्ता दिखाती है। इस देश में कारपोरेट से लेकर मीडिया और कांग्रेस के भीतर छिपे संघियों ने जो हालत कर दी थी राहुल के पास इसके अलावा अब और कोई दूसरा रास्ता बचा भी नहीं था। कल एक वरिष्ठ संपादक के सोशल मीडिया पर फैल रही राहुल से संबंधित एक टिप्पणी को लेकर चंद बातें यहां बहुत जरूरी हो जाती हैं।

रिटायर्ड संपादक महोदय ने कहा है कि “गांधी से राहुल गांधी का कोई संबंध नहीं है। न खून का, न परंपरा का  न राजनीतिक चातुर्य का न समझदारी का। एक महात्मा थे एक दिलों में राज करते थे। और दूसरे में न दिल न दिमाग। फिर भी कुछ जड़ गांधीवादी राहुल गांधी को कांधे पर उठा रखे हैं”। और कुछ हो न हो यह टिप्पणी यह साबित करती है कि पत्रकारिता में रहते हुए और उसमें बड़े से बड़ा पद हासिल करने के बाद भी राजनीतिक समझदारी और समाज के गति के विज्ञान को कोई समझ ले यह जरूरी नहीं। 

राहुल गांधी की व्यक्तिगत क्षमता और उसके खिलाफ प्रायोजित अभियान पर बाद में। समाज में व्यक्ति से ज्यादा समय, वस्तुगत स्थितियों और परिस्थितियों के साथ राजनीति और समाज का गति विज्ञान बेहद महत्वपूर्ण होता है। एक ऐसे समय में जब कि आम जनता परेशान है और न केवल गरीब बल्कि मध्य वर्ग तक उसकी चपेट में है। और आलम यह है कि बड़ी-बड़ी सोसाइटियों में रहने वाले लोगों को भी खाने का हिसाब लगाना पड़ रहा है।

ऐसे में राजनीतिक बदलाव हर किसी के लिए इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत बन गयी है। झूठ बोलकर, मीडिया के जरिये भ्रम फैलाकर और घृणा एवं नफरत के माध्यम से समाज को बांटकर एक सीमा तक ही चीजों को काबू में रखा जा सकता है। लेकिन अगर कहीं कोई उम्मीद की एक किरण भी दिखी और किसी के साथ भरोसा पैदा हो गया तो वह तिनका ही क्यों न हो लोग उसके साथ चल पड़ेंगे। और राहुल के साथ यही हो रहा है। लोग अब उनको इसी उम्मीद से देख रहे हैं। 

अब रही राहुल के गांधी से जुड़ने, व्यक्तिगत क्षमता और दिल-दिमाग से दूर होने की बात। तो यह पूरा संघ का नैरेटिव है जिसको बनाने के लिए उसने हजारों करोड़ रुपये लगाए थे। लेकिन अब उसके लोग भी राहुल को पप्पू नहीं कह पाते। क्योंकि उन्हें भी समझ में आ गया है कि राहुल गांधी पप्पू नहीं हैं। वह विचारवान हैं उनके पास एक गहरी दृष्टि है। यह अलग बात है कि अभी वह उसका कोई ब्लू प्रिंट नहीं बना पाए हैं। लेकिन अपनी सोच, समझ और दृष्टि को उन्होंने कई बार कई मंचों से सामने लाने का काम किया है। अब उसे किसी संपादक के प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन लगता है कि संपादक महोदय अभी भी संघ के प्रचार के प्रभाव से उबर नहीं पाए हैं। और रही दिल और दिमाग की बात तो राहुल गांधी के पास जितना बड़ा दिल है शायद ही इस समय के किसी नेतृत्व में वह हो। और अनायास नहीं है कि बच्चे से लेकर बुजुर्ग और लड़कियों से लेकर महिलाओं तक उनके गले से लिपटकर दो पल के लिए ही सही सुकून हासिल कर रहे हैं। 

इसलिए इस यात्रा को कोई भी खारिज नहीं कर सकता। बीजेपी और संघ के खेमे में सांप सूंघ गया है। अनायास नहीं आरएसएस चीफ मोहन भागवत को मस्जिद और मदरसों की यात्रा करनी पड़ रही है जो पिछले 97 सालों में किसी सर संघ चालक ने नहीं किया। बताया जाता है कि भोपाल में एक दिन संघ से कभी रिटायर हो चुके पूर्व सरसंघ चालक केएस सुदर्शन जो अब दिवंगत हो चुके हैं, मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए जाने का ऐलान कर दिए तो स्वयंसेवकों ने भद्द पिटने के डर से उन्हें किसी तरीके से रोका। हालांकि कहा तो यह भी जाता है कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। लेकिन भागवत के बारे में तो यह बात नहीं कही जा सकती है।

और कुछ हो न हो मैं इस बात को ज़रूर मानता हूं कि वस्तुगत जगत की स्थितियों को समझने और उसके हिसाब से कार्यनीति तय करने में संघ किसी और से ज्यादा बेहतर है। पिछले 97 सालों के इतिहास ने यही साबित किया है। और भागवत साहब को इस बात का एहसास हो गया है कि पहली बार कोई कांग्रेस का नेता सीधे संघ पर निशाना साध रहा है। उसको पता है कि इस देश में नफरत और घृणा का स्रोत कहां है। इसलिए चोट वहीं करनी होगी और उसी से बचने के लिए भागवत ने यह सब कवायद शुरू की है। 

और इस तरह से राहुल गांधी ने एक बड़ी लकीर खींच दी है जिसे पार कर पाना अब संघ-बीजेपी के लिए मुश्किल हो रहा है। और वैसे भी हर किसी को यह बात समझनी चाहिए कि किसी देश और समाज को घृणा और नफरत के सहारे बहुत दिनों तक नहीं चलाया जा सकता है। प्रेम, सद्भाव और भाईचारा मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। और यही उसकी पहली जरूरत। ऐसे में अगर कृत्रिम तरीके से कुछ दिनों के लिए घृणा और नफरत का माहौल बनाया भी जा सका तो वह स्थायी नहीं हो सकता लोगों को लौटकर फिर से प्रेम के घोंसले में ही आना होगा।

दिलचस्प बात यह है कि जिन लोगों ने इस घृणा और नफरत को फैलाने का काम किया है वह खुद ही उसके शिकार हो गये हैं और जीवन में खुश नहीं हैं। उन्हें प्रेम की जरूरत है। एक दूसरे के साथ रहते और समर्थन करते हुए भी आपस में एक दूसरे से प्रेम नहीं कर पाते। और राहुल गांधी ने इसी प्रेम के रास्ते को खोल दिया है। भारत जोड़ो यात्रा के पूरे होने के साथ जो अपने अंजाम तक पहुंचेगा। और हां धर्म और उसके चक्के से किसी लोकतांत्रिक देश को नहीं चलाया जा सकता है। अंत में लोगों के रोजी-रोटी के सवाल, उनके जीवन की बेहतरी, बच्चों का भविष्य और देश का समावेशी विकास ही मुद्दा बनेगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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