ग्राउंड रिपोर्ट: कर्मनाशा के कछार में मिट्टी से सोना उपजा रही अनिल-सुनील की जोड़ी, किसानों के लिए बनी मिसाल

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चंदौली, उत्तर प्रदेश। यूपी में बेमौसमी आंधी-तूफान ने रबी सीजन के लाखों किसानों को घाटे के गर्त में धकेल दिया है और लागत निकलना मुश्किल हो गया है। वहीं प्रगतिशील किसान की जोड़ी धान-गेहूं के इतर नकदी सब्जियों में स्ट्राबेरी, ताइवानी तरबूज, शिमला मिर्च, इजराइली विधि से टमाटर, थाईलैंडी खरबूज और खीरे की खेती से जबरदस्त मुनाफा कमा रही है। खेती में नवाचार, कीट, उर्वरक, सिंचाई, फसल चक्र और बाजार प्रबंधन अपनाकर अच्छी उपज प्राप्त कर जनपद के किसानों में चर्चा का विषय बना हुआ है। इससे धान व गेहूं उपजाने वाले किसानों में उम्मीद जगी है कि जागरूकता और कुशल प्रबंधन ने सिर्फ आय ही दोगुनी नहीं की जा सकती बल्कि कृषि घाटे से उबर कर लखपति भी बना जा सकता है।

अब कृषि विभाग के द्वारा भेजी गई किसानों की टीम खेती का प्रशिक्षण लेने आती है। आसपास के दो दर्जन से अधिक गांवों के किसान मुनाफा वाली खेती का मुआयना करने लगातार आते रहे हैं। साढे सात एकड़ की खेती से लागत छोड़ ये किसान 13 से 15 लाख रुपये की आमदनी प्रतिवर्ष कर रहे हैं। रंग-बिरंगे ताजे मीठे फल-सब्जियों के आकर्षण से कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक खुद को न बचा सके। देश की आजादी के बाद पहली बार कड़ाके की सर्दी में मानिकपुर सानी गांव पहुंचे। स्ट्राबेरी का स्वाद चखने के बाद ग्रामीणों से रूबरू हुए और उनकी समस्याओं पर लंबी बातचीत की।

चंदौली जिला मुख्यालय से तकरीबन 15 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग दो पर नौबतपुर बार्डर के बाएं मानिकपुर सानी गांव है। जब जनचौक की टीम यहां पहुंची तो देखा कि स्ट्राबेरी, खीरा, ताइवानी तरबूज (पीला, नीला और सुनहरा), लाल टमाटर और शिमला मिर्च के खेत दूर तक फैले हैं। लाल टमाटर से लदकद पौधे, मल्चिंग पर बिछे पीले और नीले रंग के खरबूज-तरबूज, स्ट्राबेरी और हरे मीठे खीरे के खेतों में आठ-दस महिला श्रमिक काम में जुटी हुई थीं।

खेत में काम करतीं महिला श्रमिक

साढे़ सात एकड़ के खेतों को घेरकर फार्म हॉउस का रूप दिया गया है। चिलचिलाती धूप और दूर तक खाली पड़े खेतों के बीच साढ़े सात एकड़ के रकबे में, तीन बीघे में तरबूज, दो बीघे में खीरा, तीन बीघे में स्ट्राबेरी, दो बीघे में शिमला मिर्च, एक बीघे में टमाटर और दो बीघे में खरबूजे की फसल हर राह चलते राहगीरों का मन मोह लेती हैं। नौबतपुर-मानिकपुर सानी गांवों की सीमा के बीच कर्मनाशा नदी के पश्चिमी कछार पर स्थित बलुई दोमट मिट्टी के खेत सोना उगल रहे हैं। कृषि में वैज्ञानिक प्रबंधन से किसान अनिल मौर्य और सुनील विश्राम नई इबारत लिख रहे हैं। किसान सुनील और अनिल मौर्य मिलकर खेती करते हैं और पचास-पचास फीसदी के साझेदार हैं।

अस्सी हजार की पूंजी और प्रशिक्षण का कमाल

उत्साहित किसान सुनील विश्राम ‘जनचौक’ से कहते हैं कि “हमलोगों ने आधुनिक खेती करने का मन बनाया। प्रशिक्षण के लिए महाबलेश्वर (महाराष्ट्र) और वाराणसी आदि स्थानों पर जाकर आधुनिक खेती का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद चंदौली जनपद के मानिकपुर सानी में अस्सी हजार रुपये में सात एकड़ से अधिक की भूमि लीज पर लिए। शुरुआत में पांच लाख रुपये लगाकर स्ट्राबेरी की खेती की। जिसमें अच्छा मुनाफा तो नहीं मिला, लेकिन इस प्रयास से खेती की उपज बेचने के लिए बाजार तलाश लिये। अब स्ट्राबेरी के साथ शिमला मिर्च, खीरा, टमाटर और तरबूज की खेती कर रहे हैं”।

थाई खरबूजे के साथ किसान सुनील विश्राम।

सुनील विश्राम कहते हैं कि “लंबी अवधि तक टिकने वाले और गुणवत्ता पूर्ण उत्पादन के लिए अन्य राज्यों और विदेशों से हाइब्रिड बीज मांगना पड़ता है। लागत छोड़कर प्रतिवर्ष 13 से 15 लाख रुपये की कमाई हो रही है। जिले में एक कृषि मंडी को छोड़कर सब्जी उत्पादक किसानों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इससे जनपद के किसान काफी पिछड़े हुए हैं। जनपद के गांव भी काफी पिछड़े हुए हैं व किसानों के पास पूंजी, तकनीक और जागरूकता नहीं होने से सैकड़ों किसान चाहकर भी अपनी खेती में नवाचार नहीं अपना पा रहे हैं। सरकार और जिला प्रशासन को चाहिए कि किसानों के लिए पूंजी, तकनीक, प्रशिक्षण शिविर, खाद, बीज और अन्य सहायता मुहैया कराये। जिससे अधिक से अधिक किसान खेती में मुनाफा प्राप्त कर जिले को आत्मनिर्भर बनाएं।”

चंदौली की माटी में उगाई मीठी स्ट्राबेरी, अब ड्रैगन फ्रूट की बारी

सुनील आगे बताते हैं कि “शुरुआत में स्ट्राबेरी की ही खेती करनी थी। एक-दो साल के बाद लगातार तीन साल तक कोरोनाकाल में महामारी की वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद भी हम लोगों ने स्ट्राबेरी उगना बंद नहीं किया। उच्च गुणवत्ता और टिकाऊपन के चलते स्ट्राबेरी की डिमांड पूर्वांचल की पहाड़िया (वाराणसी) मंडी, चंदौली मंडी और फुटकर आउटलेट्स में जबरदस्त है। स्ट्राबेरी और खरबूज-तरबूज की खेप मंडी में पहुंचते ही व्यापारियों में खरीदारी को लेकर प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। जिलाधिकारी और नेता-नगरी भी आते रहते हैं। हमारे यहां से प्रशिक्षण लेकर अब जनपद में कई किसान स्ट्राबेरी की खेती करने लगे हैं। मैं अपने खेतों में कई प्रकार की नगदी फल और सब्जियां उगाता हूं। आगामी वर्ष से ड्रैगन फ्रूट की खेती करने का विचार चल रहा है।”

स्ट्राबेरी की खेती

महिलाओं को मिल रहा काम

सुनील और अनिल की जोड़ी ने धान-गेहूं उपजाने वाले किसानों के लिए न सिर्फ जमीनी विकल्प दिया है, बल्कि अपने खेतों पर साल के बारह महीने 10 से 12 महिला-पुरुष श्रमिक के लिए रोजगार के अवसर का भी सृजन किया है। इनके खेतों पर दो साल से अधिक से काम करती आ रही पड़ोसी गांव की चालीस वर्षीय विधवा तेतरा बेगम पहले मनरेगा में मिट्टी फेंकने का काम करती थीं। जिसमें मजदूरी का पैसा मिलने में लेट-लतीफ़ी होती थी, जिससे घर चलाना भी मुश्किल होता था।

वह बताती हैं कि “जब से यहां काम कर रही हूं तब से तीन बच्चों समेत मेरे परिवार का खर्च चल रहा है। यहां छह से सात घंटे काम करना पड़ता है। एक दिन की मजदूरी 300 रुपये तक मिल जाती है। सब्जी और फल किसान ऐसे ही दे देते हैं। यहां पूरे साल काम मिल रहा है। अब तो यहां दस से अधिक महिला श्रमिक काम कर रही है।”

फलों की तुड़ाई कर लौटतीं महिला श्रमिक।

देसी प्रयोग ने घटाई लागत, बढ़ाया मुनाफा

किसान अनिल मौर्य ने बताया कि “कुछ वर्ष बाद जब उत्पादन कम हुआ तो मिट्टी की जांच कराई तो मिट्टी में जैविक कार्बन के तत्व औसत से भी कम मिले। कृषि अधिकारी की सलाह और खुद के प्रयोग से फल व सब्जियों के पौधों के जैविक पोषक तत्व, डी-कंपोजर और खाद बनाया। फसलों में रासायनिक उर्वरक के बजाय इन्हें ही डालना शुरू किया। इसका असर भी थोड़े ही दिनों बाद दिखने लगा और उत्पादन में सुधार हो गया”।

अनिल मौर्य आगे कहते हैं कि “मैं अब भी नीम, धतूरा, दही, मट्ठा, अदरक, हल्दी, गोबर, गोमूत्र, गुड़ और सूखे पत्तों का इस्तेमाल करके जैविक खाद और पोषक तत्व बनाता हूं। इनके इस्तेमाल से रासायनिक उर्वरक का प्रयोग एकदम से कम हो गया है। वहीं नीलगाय, सांड और छुट्टा पशुओं से फसल भी सुरक्षित रहती है। देसी खाद, कीटनाशक और पोषक तत्वों के इस्तेमाल से बाजार में मिलने वाले महंगे खाद, कीटनाशक और माइक्रोन्यूट्रेंट से छुटकारा मिल गया है। इससे साल भर में कम से कम पचास से अस्सी हजार रुपये तक की बचत हो जाती है।”

गुड़, गोबर और छाछ से बनाये जा रहे हैं पोषक तत्व और जैविक कीटनाशक

जैविक खेती मुनाफे का आधार

चंदौली कृषि उपनिदेशक बसंत दुबे कहते हैं, कि “जैविक मिट्टी, कार्बन समेत सभी पोषक तत्वों का सोर्स होता है। वर्तमान समय में किसान सिर्फ अपने खेतों में यूरिया, फास्फोरस और पोटास इस्तेमाल करते हैं, जबकि फसल या पौधों के विकास के लिए कुल 17 प्रकार के तत्वों की आवश्यकता होती है। मिट्टी में इन तत्वों का संतुलन बिगड़ने से पौधे का विकास प्रभावित होता है और उत्पादन घट जाता है। वर्तमान में इंडो-गंगेटिक प्लेन में औसत आर्गेनिक कार्बन की मात्रा 0.5 फीसदी से कम हो गई है, जो रासायनिक खादों के प्रयोग से घटती ही जा रही है।

ऐसे में किसान जैविक खादों, हरी खाद, गोबर खाद और केंचुआ खाद का प्रयोग करके बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए मनचाही फसल उगा सकते हैं। इस खेती में पशुओं का अधिक महत्व है, जैविक प्रदूषण रहित होते है और कम पानी की आवश्यकता होती है, फसल अवशेषों को खपाने की समस्या नहीं होती और कम लागत में स्वास्थ्यवर्धक पौष्टिक फसल की प्राप्ति होती है। बहरहाल, देसी जुगाड़ की बदौलत अनिल-सुनील की सफलता का राज उनके खेतों में जैविक कार्बन की मात्रा 0.7 फीसदी होना भी अहम पहलू है।

इजरायली विधि से टमाटर की खेती

मल्चिंग विधि से खेती यानी कम उर्वरक और सिमित सिंचाई

अनिल का अन्य सब्जी उत्पादक किसानों को सन्देश हैं कि ‘जिन भी किसानों को खेत में घास की समस्या, जल्दी-जल्दी सिंचाई की जरूरत और उत्पादकता धीरे-धीरे कम हो रही है, ऐसे किसान प्लास्टिक मल्चिंग का प्रयोग करके खेती की उत्पादकता को बढ़ा सकते हैं। खेत में लगे पौधों की जमीन को चारों तरफ से प्लास्टिक फिल्म के द्वारा सही तरीके से ढकने की प्रणाली को प्लास्टिक मल्चिंग कहते है। मल्चिंग खेत में पानी की नमी को बनाए रखती है, साथ ही वाष्पीकरण रोकती है। खेत में मिट्टी के कटाव को भी रोकती है। घास और खरपतवार से बचाव करती है। खरपतवार नियंत्रण और पौधों को लम्बे समय तक सुरक्षित रखती है। यह भूमि को कठोर होने से बचाती है। पौधों की जड़ों का विकास अच्छी तरह होता है।

ग्राउंड पर किसानों को मिले योजनाओं का लाभ

किसान सुनील ने सरकार और शासन से मांग रखी कि “देश के आजादी के 74 बरस से अधिक का समय हो चला है। अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कृषि में सबसे अधिक जोखिम है। अब कृषि भी मोटी पूंजी आधारित व्यवसाय हो गया है। चंदौली जनपद डेल्टा जिलों में चिंहित है। इस जिले में भूमिहीन, लघु और बंटाईदार किसानों की संख्या लाखों में हैं। इनके पास पूंजी का अभाव है। सरकार के कई स्कीमों का लाभ किसानों को ग्राउंड पर नहीं मिल पा रहा है।”

मंडी जाने के लिए सब्जियों को वाहन पर लादा जा रहा है

सुनील आगे कहते हैं कि “ऐसे में यहां के किसानों को धान-गेहूं से इतर मुनाफा देने वाली खेती के लिए सबसे पहले वैज्ञानिक खेती के लिए जागरूकता शिविर, सस्ते दर पर कृषि ऋण, खाद और बीज में सब्सिडी, देश-विदेश के कृषि मेलों में किसानों की यात्रा, फसल की गारंटी, कोल्ड स्टोरेज और कृषि मंडियों की छोटी-छोटी इकाई गांवों के नजदीक खोली जानी चाहिए ताकि किसानों को नवाचार अपनाने में सहूलियत हो। साथ ही साथ मानिकपुर में कर्मनाशा नदी पर लग रहे पम्प कैनाल को जल्द से जल्द चालू करवाया जाए। इससे किसानों की पानी समस्या दूर होने से किसानों में आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी।”

(चंदौली से पत्रकार पवन कुमार मौर्य की स्पेशल रिपोर्ट।)

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