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2011 के सामाजिक आर्थिक एवं जातीय जनगणना में नाम नहीं, तो एनआरसी कहां से

बच्चों के खेलने के मैदान में एक किनारे एक आदमी ईंट को सजाकर बनाए हुए चुल्हे पर देगची चढ़ाए हुए था। आस-पास की झाड़ियों को तोड़कर जलावन बनाकर चूल्हे में जला रहा था। उसके बगल में कुछ कपड़े समेट कर रखे हुए थे। वह य़ अकेला भात बना रहा था। बीवी और एक बच्चा कहीं गए हुए थे। उसने बताया कि उसका नाम शिवा मल्हार है। यह गोदना गोदने का काम करते हैं और घुमंतू जाति के हैं।

दिसंबर का महीना है। सर्दी बड़ी कड़ाके की पड़ रही है। इस सर्दी में भी इनके पास सर ढकने के लिए महज पन्नी वाली एक छत है। जाहिर है उससे सर्दी तो नहीं रुकती होगी। उन्होंन बताया कि रात में वह एक दुकान के सामने बने बरामदे में सोने चले जाते हैं।

आजादी के इन बहत्तर वर्षों बाद भी हमारा शासक वर्ग देश के हर नागरिक को एक अदद छत तक मुहैया कराने में असफल रहा है। वहीं दूसरी तरफ सत्ता द्वारा तीन तलाक, राम मंदिर, धारा 370, सीएए, एनआरसी, एनपीआर जैसे मुद्दों पर देश को उलझाने की कवायद जारी है।

देश का बौद्धिक वर्ग भी सत्ता के इस मकड़जाले में फंस कर जन सवालों से दूर होता जा रहा है। बेरोजगारी, जीडीपी और अर्थव्यवस्था पर कोई चर्चा नहीं हो रही है।

उसने बताया कि उसके परिवार के कुछ सदस्य पश्चिम बंगाल के पुरुलिया स्थित पालूंजा डाक बंगला के पीछे सरकारी जमीन पर अस्थायी तौर पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं। कुछ सदस्य झारखंड की राजधानी रांची के कांके रोड में सरकारी जमीन पर किसी नेता के कहने पर प्लास्टिक की चादर डाल कर रहते हैं।

इन्हें यह भी नहीं पता कि ये कब और कहां पैदा हुए? इनकी हिंदी में न तो बंगला का पुट था और न ही किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा की झलक थी। गोदना (टैटू) गोदना (उकेरना) इनका पुश्तैनी पेशा है। इनके पास न तो वोटर कार्ड है, न आधार कार्ड और न राशन कार्ड। मतलब सरकारी सुविधाओं के लाभ का कोई भी आधार इनके पास नहीं है।

ऐसे में एनपीआर और एनसीआर में ये कहां बैठते हैं, यह एक गंभीर सवाल है। इसका जवाब सत्ता के पास कितना है? पता नहीं। परंतु ऐसे लोगों पर संकट गंभीर है। छ: भाइयों में तीसरे नंबर का 22 वर्षीय शिवा के दो छोटे भाई अपनी मां के पास रहते हैं और बाकी इसी पेशे में घूम-घूम कर अपना पेट पालते हैं।

एक नजर डालते हैं बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र पांच किमी दूर और चास प्रखंड मख्यालय से मात्र चार कि.मी. दूर बोकारो-धनबाद फोर लेन एनएच-23 के तेलगरिया से कोयलांचल झरिया की ओर जाने वाली सड़क किनारे बसा बाधाडीह-निचितपुर पंचायत पर। इस पंचायत का एक दलित टोला है। टोकरी बुनकर और दैनिक मजदूरी करके अपना जीवन बसर करने वाले यहां बसते हैं। अति दलित समझी जाने वाली कालिंदी जाति के लगभग 16 घर हैं यहां।

इस दलित टोले के कुछ लोगों के पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड तो हैं, मगर किसी के पास सरकारी सुविधाओं के लाभ का कोई भी आधार नहीं है। ऐसे में ये भी शिवा मल्हार जैसे घुमंतु परिवार से अलग नहीं हैं। 2011 के सामाजिक आर्थिक एवं जातीय जनगणना में इनका नाम शामिल नहीं है, अत: इसी कारण इन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाया है। एनपीआर और एनसीआर में ये कहां बैठते हैं, इनके लिए भी यह एक गंभीर सवाल है।
(रांची से जनचौक संवाददाता विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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