भाजपा की ओर से उत्तर प्रदेश में 2024 लोकसभा चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी है। 30 मई से पूरे प्रदेश में जिले, तहसील, कस्बे, गांव ही नहीं बूथ लेवल पर सभाएं और रैलियों का आयोजन किया जायेगा। और हो भी क्यों न, संख्या के लिहाज से 80 लोकसभा सीटों के साथ यूपी देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इसके बाद दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र राज्य आता है, जो 48 लोकसभा सदस्यों को चुनकर भेजता है। लेकिन इन दोनों के बीच ही 32 सीटों का अंतर है, जिसमें कई राज्यों की लोकसभा सीटें समाहित हो सकती हैं। इसके अलावा पश्चिम बंगाल 42, बिहार 40, तमिलनाडु 39, कर्नाटक 28, मध्यप्रदेश 29 सहित केरल राज्य की 20 सीटें हैं, जो संख्या के लिहाज से इन्हें महत्वपूर्ण बना देती हैं।
यूपी में 2019 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 80 सीटों में से 62 और सहयोगी पार्टी, अपना दल के खाते में 2 सीटें आई थीं। सपा-बसपा गठबंधन के चलते बसपा को 10 और सपा के हिस्से में 5 लोकसभा सीटें आई थीं। कांग्रेस के खाते में एकमात्र सीट यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जीती थी, और इस प्रकार कांग्रेस अपनी परंपरागत रायबरेली की सीट ही बचा सकी थी। राहुल गांधी को अमेठी में हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके साथ ही माना जा रहा था कि अब कांग्रेस मुक्त भारत का नरेंद्र मोदी का दावा एक सच्चाई बनता जा रहा है। आज भाजपा के लिए एक बार फिर से यूपी सबसे महत्वपूर्ण राज्य है, क्योंकि बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल सहित कर्नाटक में उसके पास पाने से अधिक खोने के लिए बहुत कुछ है।
इस बीच यूपी में विधानसभा चुनाव भी संपन्न हुए और भाजपा ने विपक्ष के सभी कयासों को धता बताते हुए एक बार फिर से पूर्ण बहुमत की सरकार बना डाली। हालांकि सड़क पर मौजूद जन-समर्थन के लिहाज से भीड़ समाजवादी पार्टी के पक्ष में दिख रही थी, क्योंकि हाल ही में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब, हरियाणा के किसानों के बाद पश्चिमी यूपी के किसान भी बड़ी संख्या में आंदोलित थे, और एक लंबी लड़ाई के बाद पीएम मोदी को अपने कदम वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। सपा-राष्ट्रीय लोकदल के संयुक्त गठबंधन और पूर्वी उत्तर प्रदेश में विभिन्न छोटे दलों और भाजपा के ओबीसी समुदाय से जुड़े नेताओं के सपा में जुड़ने से चुनावी माहौल अखिलेश यादव के पक्ष में बनता दिख रहा था।
लेकिन भाजपा ने इस चुनाव को बेहद कौशल एवं रणनीतिक चातुर्य के साथ लड़ा। जहां सपा रोड शो और बड़ी संख्या में युवा-बेरोजगारों के मुखर समर्थन के आधार पर मानकर चल रही थी कि वह बाजी पलटने में सक्षम है, वहीं भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति को विपक्षी मतों में बिखराव, बसपा के साथ उम्मीदवारों के चयन में गुपचुप तैयारी, सपा से अति पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को दूर करने की सुचिंतित रणनीति, हर गरीब को 5 किलो अनाज, नमक, दाल और तेल के साथ लड़ा।
सवर्णों के लिए उसके पास राज्य में बेहतर कानून-व्यवस्था का उदाहरण मौजूद था। इस मुद्दे को लेकर ऐसा नैरेटिव तैयार किया गया कि सवर्णों के सामने योगी शासनकाल में पुलिस अत्याचारों का कोई स्पष्ट खाका ही नहीं बन सका और सपा के शासनकाल के यादव सिपाही, यादव अध्यापक, अधिकारी और हिस्ट्रीशीटर की ऐसी तस्वीर पेश की गई, कि 5 साल के दुःख सहनीय बना दिए गये।
एक बड़े तबके के लिए मानो यूपी में सिर्फ कानून और व्यवस्था को चाक-चौबंद करना ही नंबर एक की प्राथमिकता बन गई थी। उनके लिए बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा में निजीकरण, उद्योग धंधों के चौपट होते जाने, राज्य के संसाधन यूपी के दो-तीन केन्द्रों में ही जाकर सिमट जाने, दलितों और मुस्लिमों के खिलाफ अपराध, हिंसा की घटनाओं में बड़ी तेजी से वृद्धि, योगी शासन में विधायिका की कीमत पर नौकरशाही और पुलिसिया राज की स्थापना का मुद्दा सिरे ही नहीं चढ़ पाया।
लेकिन ध्यान से देखें तो यूपी विधानसभा चुनाव से पहले भले ही सपा के कार्यकर्त्ता अपनी सक्रियता जहां-तहां दिखा रहे थे, लेकिन नेतृत्वकारी शक्तियां आराम की मुद्रा में थीं। स्वंय अखिलेश यादव की ओर से ऐन चुनावों से कुछ समय पहले ही सक्रियता दिखाई गई। युवाओं, बेरोजगारों और अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से भारी मात्रा में सड़कों पर उतरने और भाजपा विरोध को मुखरता प्रदान करने से एकबारगी लगा कि अखिलेश यादव के समर्थन में बड़ा उलटफेर संभव है। लेकिन जमीनी सच्चाई से बेखबर हर तरफ से समर्थन और ओबीसी समुदाय के अन्य नेताओं की सपा में आमद, परिवार के एक बार फिर से एकजुट होने ने पार्टी को व्यापक जमीनी तैयारी के लिए कोई आधार ही नहीं छोड़ा।
लेकिन यदि योगी शासन के खिलाफ किसी ने मुखर विरोध की आवाज बुलंद की तो वह कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा थीं। वो यूपी में दलित, महिला उत्पीड़न और पुलिसिया राज के खौफ के साए में जी रहे गरीबों के लिए एक उम्मीद की किरण के रूप में नजर आईं। वो चाहे भारी पुलिस प्रबंध के बीच गिरफ्तारी की आशंका को धता बताते हुए दलित बेटी के इंसाफ के लिए उनका पहुंचना हो, या किसानों को कुचलकर मार डालने की हाई प्रोफाइल घटना के बाद पुलिसिया जोर-जबर्दस्ती को धता बताते हुए लखीमपुर खीरी जाना हो, या उनको डराने के लिए की गई गिरफ्तारी का हो; कांग्रेस ने मुहतोड़ जवाब देते हुए योगी सरकार के खौफ को काफी हद तक कम किया था।
लेकिन यह सही है कि कांग्रेस यूपी में अपने परंपरागत वोट आधार को पिछले कई दशकों से लगातार खोती चली गई है। 1984 के बाद से ही यह प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई, बहुजन समाजवादी पार्टी ने जहां नए सिरे से कांशीराम के नेतृत्व में यूपी में गोलबंद होना शुरू किया, उसने देखते ही देखते दलित, मुस्लिम एवं अन्य वंचित वर्ग के बड़े हिस्से को कांग्रेस से अलग कर यूपी में उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था।
दूसरी तरफ मुलायम सिंह ने यादव-मुस्लिम को आधार बनाते हुए राज्य के तमाम पिछड़े तबकों के बीच अपनी मजबूत उपस्थिति के साथ पहले ही बड़े हिस्से को कवर कर लिया था। रही-सही कसर राम मंदिर आंदोलन के बाद सवर्ण मतदाताओं का भाजपा-आरएसएस के पक्ष में चले जाने से कांग्रेस के पास यूपी में कोई आधार ढूंढ़ना एक झूठी आस से अधिक कुछ नहीं था। इस सबके लिए जिम्मेदार भी कांग्रेस स्वंय थी, जिसने आजादी के समय से ही अपने लिए दलित, मुस्लिम, महिला, ब्राहमण और समाज के कमजोर वर्ग का एक स्थायी आधार बना रखा था, जिसके लिए उसके पास कार्यक्रम भी था और वह उस ओर बढ़ती दिखती भी थी।
लेकिन 80 के दशक तक आते-आते कांग्रेस के लिए मुख्य चुनौती ऐन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना रह गया था। इसके लिए इंदिरा गांधी के द्वारा ही अधिनायकवादी कोशिशें शुरू हो गई थीं, राजीव गांधी के दौरान चुनावी अवसरवादिता के लिए पहले मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए शाहबानो केस और बाद में हिन्दू कट्टरपंथियों को अपने पाले में लेने के लिए राम-मंदिर के ताले खुलवाने की घटना उसे अंततः दोनों समुदायों की निगाह में गिरा गई।
फिर तो देश में जो कुछ हुआ है, वह सिर्फ राजनीति और लोकतंत्र के लिए पतन का ही वायस बन कर रहा गया है। यही वह कांग्रेस की अवसरवादी नीति थी, जिसके चलते भाजपा-आरएसएस आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं। भले ही कांग्रेस ने इसके बाद भी देश की हुकूमत कई बार संभाली हो, और दक्षिण के राज्यों में उसे आशातीत सफलता मिलती रही हो, लेकिन यूपी और बिहार जैसे राज्य में उसके लिए अब कोई जगह नहीं बची थी।
ऐसी पृष्ठभूमि में इतने बड़े राज्य में अपने खोये आधार को फिर से वापस पाने के लिए जिस प्रकार की मेहनत, इरादे और दीर्घकालीन रणनीति की जरूरत है, उसके लिए कांग्रेस के पास न तो योग्य नेतृत्व है और न ही उसके पास कार्यकर्ताओं की वह फ़ौज ही है, जो उसे इस मुकाम पर वापस ला सके। लेकिन एक तरफ सामजिक न्याय के नाम पर जिस सपा और बसपा की बुनियाद 80 के दशक में पड़ी थी, उसमें जंग भी उतनी तेजी से लगा है। पिछले 10 वर्षों से इन दोनों पार्टियों के पास अपने जनाधार को संबोधित करने के लिए कुछ नहीं है।
विशेषकर केंद्र में मोदी राज के बाद तो पिछले 9 सालों में उनकी ओर से कोई बड़ी राजनीतिक पहलकदमी नहीं ली गई है। तमाम आर्थिक और संपत्ति के मामलों में उनके बड़े नेता और सगे संबंधियों के फंसे होने का डर उन्हें अपने चौखट से बाहर ही नहीं निकलने देता। ऊपर से योगी राज का डंडा खामोश विपक्ष के चलते यूपी में पूरी गरज के साथ गूंज रहा है। आदित्यनाथ की इस नई पारी में अब भाजपा के भीतर से विरोध के सुर भी नहीं बचे हैं, क्योंकि अब उनकी नियति लगभग तय हो चुकी है।
ऐसा नहीं है कि यूपी में अब लोकतांत्रिक, संवैधानिक मूल्यों के लिए आम लोगों में कोई जगह नहीं बची है। आज भी बड़ी संख्या में लोग एक लोकतांत्रिक, पारदर्शी शासन और खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं। राम और कृष्ण की धरती होने के बावजूद किसान इतने अंधे नहीं हैं कि आवारा बैलों और पशुओं के लिए अपने खेत ही बर्बाद होने दें। कल तक होली और ईद में बराबर साझीदार होने वाले हिंदू-मुस्लिम गंगा-जमुनी तहजीब को भुलाकर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हों।
लेकिन कोई विकल्प हो तब तो खुलकर कह सकें कि यह सब बंद करो। हमारे बच्चों के लिए नौकरियां कहां हैं? लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसर और उनके खिलाफ बढ़ते अपराध के लिए सरकार दोषी है, उसे बदल देंगे। यह सवाल तो तब उठे, जब उनके द्वारा चुने गये विपक्ष की ओर से भी जोरदार ढंग से विधानसभा और सड़क पर आवाज उठे। जब ऐसा होगा तो यूपी में मौजूद जो आज गोदी मीडिया है, उसके लिए भी मजबूरी होगी।
कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में स्वतंत्र रूप से हिस्सेदारी की थी। एक नए तेवर के साथ प्रियंका गांधी के नेतृत्व में “लड़की हूं, लड़ सकती हूं” अभियान चलाया गया, जिसे उम्मीद से बढ़कर समर्थन हासिल हुआ। महिलाओं में एक नई उम्मीद की किरण जगी। लेकिन चुनाव में पहले से भी कम वोट ने कांग्रेस के अभियान को समय से पहले ही ठप कर दिया। चूंकि यह चुनाव मोदी-योगी के विरुद्ध विपक्ष को जिताने का था, इसलिए मतदाताओं ने कांग्रेस समर्थक होने के बावजूद अपना मत मुख्य विपक्षी प्रतिद्वंदी को दिया।
यही करण है कि सपा को अपने इतिहास में सबसे अधिक 32.06% वोट हासिल हुए। 2017 में सपा को इससे करीब 10% वोट कम प्राप्त हुए थे। लेकिन मत प्रतिशत में इतने बड़े उछाल के बावजूद सपा के विधायकों की संख्या 64 से बढ़कर 111 ही हो सकी। 403 सदस्यों वाली विधानसभा में 312 सीट की तुलना में इस बार भाजपा घटकर 255 पर सिमट गई है, लेकिन इसके बावजूद यह पूर्ण बहुमत से काफी अधिक है।
लेकिन सबसे खराब प्रदर्शन बसपा का रहा, जिसके पास पिछले विधानसभा में 22% वोट और 19 विधायक थे, लेकिन इस बार इसमें करीब 9.5% की कमी के साथ मात्र एक विधायक सदन में मौजूद है। कांग्रेस के लिए भी करीब 4% वोटों में घटोतरी उसे 7 से 2 सीट पर ले आई है। लेकिन इन 10 वर्षों के राजनीतिक-आर्थिक-सामजिक और सांप्रदायिक झंझावात ने लगता है यूपी के व्यापक गरीब पीड़ित समुदाय को खुद से नई राजनीतिक जमीन की तलाश के लिए मजबूर कर दिया है।
यही मजबूरी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में भी पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिली है, जिसके लिए मोदी-आरएसएस की दोहरी चुनौती से बड़ी कांग्रेस के भीतर घर कर चुकी अवसरवादिता, सत्ता के इर्द-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिनभिनाते दलालों से घिरे लोगों से मुक्ति और अपने मूल जनाधार के बीच में वापस लौटने की चुनौती बनी हुई थी। इस खोज में कांग्रेस में लगातार टूट-फूट जारी रही। बड़े-बड़े स्वनामधन्य नेता आज भाजपा के सांसद, विधायक, राज्यों में मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
लेकिन हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी ने जहां एक तरफ गांधी परिवार के ऊपर लगने वाले शाही खानदान और कांग्रेस उनकी जागीर है, से मुक्त होने का मौका दिया है। कर्नाटक में उम्मीद से बढ़कर सही मायने में काफी अर्से बाद दलित, मुस्लिम, पिछड़ा, आदिवासी सहित समाज के अन्य वर्गों से भी वोट हासिलकर कांग्रेस ने एक बार फिर से अपने पुराने आधार पर लौटने का संकेत दिया है।
यह जीत राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस के भीतर साहसिक सुधारों को अंजाम देने के लिए आवश्यक खुराक और बल देगा। खुर्राट जड़ जमाए पुराने सत्ताधीशों को उदार हिन्दुत्ववादी झुकाव से अलग भारत में ‘नफरत छोड़ो-भारत जोड़ो’ के संदेश को मजबूती से आगे बढ़ाने में आड़े नहीं आने देगा।
यह उम्मीद कर्नाटक से पहले ही यूपी के मुसलामानों ने लगता है कांग्रेस से लगा रखी थी। यही वजह है कि नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में उम्मीद से कहीं बेहतर परिणाम आये हैं।
भले ही महापौर की सभी सीटें भाजपा ने किसी प्रकार जीत ली हों, लेकिन गहराई से विश्लेषण बताते हैं कि न सिर्फ भाजपा के लिए समर्थन में कमी आई है, बल्कि कांग्रेस, आप और एआईएमआईएम के लिए मतदाताओं में आकर्षण बढ़ा है। सपा और बसपा के नेतृत्व का बौनापन उसके अपने जनाधार में अब अनिश्चय के बजाय विकल्पों की तलाश की ओर ले जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि यदि 22 में विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ सपा मुख्य मुकाबले में न होती तो 32% के बजाय उसे अपने पिछले मत प्रतिशत 22% से भी काफी कम वोट हासिल होते।
यह बात इसी तथ्य से स्थापित हो जाती है, जब महापौर की 17 सीटों पर कांग्रेस को चार सीटों पर दूसरा स्थान हासिल हो जाता है। मेयर के चुनावों में भले ही कांग्रेस ने एक भी सीट न जीती हो, लेकिन 4 सीटों पर उसका दबदबा साफ़ नजर आया। खासकर मुस्लिम मतदाताओं का रुझान सपा, बसपा से हटकर अब अन्य राजनीतिक विकल्पों की ओर जाता दिखता है, उसमें भी विशेषकर कांग्रेस में उसे उम्मीद नजर आ रही है।
मुरादाबाद मेयर सीट पर भाजपा के विनोद अग्रवाल, कांग्रेस प्रत्याशी से मात्र 3,500 मतों से जीत पाए। उन्हें 121,475 वोट (41.71%) जबकि कांग्रेस प्रत्याशी मो. रिजवान 1,17,832 (40.46%) वोट मिले। जबकि सपा प्रत्याशी को मात्र 13,447 और बसपा उम्मीदवार को 15,858 वोट ही हासिल हो सके। जबकि यहां पर सपा के सांसद और पांच विधायक हैं।
इसी प्रकार शाहजहांपुर में भी कांग्रेस मेयर प्रत्याशी निकहत इक़बाल को 50,484 वोटों (30.94%) के साथ दूसरा स्थान हासिल हुआ है। झांसी में भी कांग्रेस का मेयर प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर रहा। संभल सपा का मजबूत गढ़ रहा है। यहां से शफीक़ुर्रहमान बर्क़ सांसद हैं। कभी मुलायम सिंह यादव भी यहां से सांसद थे। लेकिन निकाय चुनाव में सपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। मुसलमानों ने सपा के बजाए यहां पर एआईएमआईएम को वोट करना बेहतर समझा।
मेरठ में कांग्रेस का प्रत्याशी मजबूत न होने के कारण लोगों ने एएमआईएम को वोट देकर दूसरे नम्बर पर ला दिया। यहां पर सपा से अतुल प्रधान की पत्नी लड़ रही थीं, लेकिन मुसलमानों का वोट उन्हें नहीं मिला। इस प्रकार मुरादाबाद, शाहजहांपुर, झांसी और मथुरा में कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही जबकि कानपुर में उसे तीसरा स्थान हासिल हुआ। ये आंकड़े कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में बड़ी उम्मीद जगाते हैं।
इतना ही नहीं कर्नाटक चुनाव के परिणामों ने यूपी में दलित समाज के एक तबके के बीच में एक नई उम्मीद जगा दी है। बसपा से उम्मीद छोड़ सपा के पक्ष में कुछ हिस्सा पिछले चुनाव में अवश्य गया था, लेकिन यहां से भी निराश दलित समाज अब कांग्रेस में नई उम्मीद देख रहा है। अभी तक कांग्रेस की ओर से यूपी में हो रही इन हलचलों पर कोई अधिकारिक टिप्पणी नहीं आई है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही उत्तर प्रदेश के लिए भी खड़गे के नेतृत्व में एक ठोस शुरुआत हो।
भाजपा को जो भी दल यूपी में खुले में आकर चुनौती देगा, पुलिसिया आतंक के खिलाफ जमीन पर खड़े हो देश के संविधान में हासिल नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी, धार्मिक आजादी, महिलाओं की गरिमा और बुनियादी विकास में बेरोजगार युवाओं की आवाज बनकर सामने आएगा, यूपी का बहुसंख्यक तबका उसे हाथों-हाथ लेगा।
भाजपा को नाथने के लिए यूपी ही वह सबसे बड़ा चुनावी अखाड़ा है, जहां सबसे मुखर विपक्षी दल की जरूरत है, जिसे सपा-बसपा ने अपनी विरासत समझ ली है। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, जनता जब अपने पर आती है तो वह बड़े-बड़े तंबू कनात उखाड़ फेंकती है। फिलहाल तो यूपी में विपक्ष का स्थान पूरी तरह से रिक्त है, और उत्तरप्रदेश को उसका बेसब्री से इंतजार है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
लेकिन आप यह भी भूल रहे हे कि ईवीम बदल कर चुनाव जीता जा रहा है