अखंड भारत: सीमाएं समय के साथ बदलती रहती हैं?

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क्या देशों के बीच की सीमाएं हमेशा एक सी बनी रहती हैं? या फिर समय के साथ बदलती रहती हैं? कई मौकों पर साम्राज्यों-सम्राटों और आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं के बीच के फर्क को जानबूझकर नजरअंदाज किया जाता है। कुछ देश हाल में अस्तित्व में आये हैं और कुछ देशों/साम्राज्यों/ राष्ट्र-राज्यों का अपने-अपने क्षेत्रों में जटिल एवं लम्बा इतिहास रहा है।

अक्सर यह कहा जाता है कि ‘हम’ यहां राज करते थे या ‘हमारा’ राज्य यहां से यहां तक फैला हुआ था। दरअसल, ‘हम’ शब्द का प्रयोग सामाजिक विकास के किसी भी चरण में लोगों के लिए किया जा सकता है, फिर चाहे वे साम्राज्यों की प्रजा रहे हों या आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के नागरिक। ‘हमारा’ सामाजिक स्वरुप भी बदलता रहा है।

मानव पहले जब जानवरों का शिकार कर और कंदमूल इकठ्ठा कर और उसके बाद पशुपालन से जीवनयापन करता था तब उसे शायद ही पता रहता था कि वह किस इलाके में रह रहा है। ग्रामीण समाजों और जनजातीय समूहों में लोगों की अपने निवास के क्षेत्र के संबंध में धारणा अत्यंत अस्पष्ट हुआ करती थी। जब इंसान ने खेती शुरू की उसके बाद ही साम्राज्य बने और सीमाओं का अधिक स्पष्ट निर्धारण होना शुरू हुआ।

साम्राज्यों की सीमाएं सदैव बदलती रहीं। चोल साम्राज्य और उसके प्रतिद्वंद्वी साम्राज्यों ने धरती के इस हिस्से पर राज किया। राजेन्द्र चोल के काल में चोल साम्राज्य हालांकि बहुत बड़ा हो गया लेकिन फिर भी वह देश के दक्षिण तक सीमित था। अहोम उत्तर-पूर्व में राज करते थे और उनके साम्राज्य की सीमाओं का बहुत स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है। यह जरूर ज्ञात है कि इन साम्राज्यों की सीमाएं समय के साथ बदलती रहीं और किसी राजा के उत्तराधिकारी को अपने पूर्ववर्ती के समान क्षेत्र पर शासन करने का अवसर नहीं मिलता था।

प्राचीन साम्राज्यों में मौर्य साम्राज्य क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा था और शुंग वंश, जिसने इसके बाद राज किया, द्वारा शासित क्षेत्र इससे बहुत अलग था। यहां तक कि अतिचर्चित ‘विदेशी’ मुगल साम्राज्य भी क्षेत्र की दृष्टि से स्थिर नहीं था। इस वंश द्वारा शासित इलाका औरंगजेब के काल में सबसे बड़ा था जब यह दक्षिण भारत तक फैला हुआ था।

अंग्रेजों के आगमन के साथ भारत की सीमाएं अधिक स्पष्ट रूप से निर्धारित हुईं और वे रियासतें जो अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल रहीं भी अंग्रेजों की दया पर निर्भर थीं। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता से सांठ-गांठ कर राज किया। इन रियासतों को केवल औपचारिक रूप से सार्वभौमिकता हासिल थी।

अंग्रेजों का राज म्यांमार पर भी था, जो उनके साम्राज्य का हिस्सा था और बाद में एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। ठीक ऐसा ही सीलोन के मामले में भी था जो आज श्रीलंका के नाम से जाना जाता है। औपनिवेशिक सत्ता का कांग्रेस और भगतसिंह, अंडमान जेल जाने के पहले सावरकर और नेताजी सुभाष की आजाद हिन्द फौज जैसी राष्ट्रवादी शक्तियों ने विरोध किया।

अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति पर अमल किया जिससे साम्प्रदायिक शक्तियां प्रबल हुईं जो एक-दूसरे के समानांतर परन्तु विपरीत थीं। गांधीजी के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी शक्तियों का स्वप्न उस अखंड भारत का था, जो आज के पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत का क्षेत्र है। विभाजन की त्रासदी से राष्ट्रवादी शक्तियों का स्वप्न टूट गया और अंग्रेजों की देश को बांटने की साजिश सफल हुई। मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों ने मांग की कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बने और हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियां अखंड भारत पर अड़ी रहीं, जो उनके अनुसार चिरकाल से हिन्दू राष्ट्र था!

जहां हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने धर्म का सहारा लिया और ‘दूसरे’ समुदाय के लोगों के खिलाफ घृणा फैलाई वहीं राष्ट्रवादी शक्तियों को उस भारत को स्वीकार करना पड़ा जिसकी सीमाएं रेडक्लिफ ने निर्धारित की थीं।

भारत धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर चला। धर्मनिरपेक्षता की राह में कई मुसीबतें थीं क्योंकि समाज पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष नहीं था और सत्ताधारी कांग्रेस में बहुत से हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व भी थे। नेहरू ने पार्टी के अंदर साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती ताकत के बारे में चेताया था लेकिन इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं किया जा सका क्योंकि आरएसएस की शाखाओं में प्रशिक्षित हिन्दू सम्प्रदायवादियों का समाज और राजनीति पर प्रभाव बढ़ता गया जिसके कारण अंततः आज की स्थिति बनी।

इन साम्प्रदायिक शक्तियों ने न केवल मुसलमानों और ईसाईयों को हाशिये पर धकेल दिया है बल्कि वे भारतीय संविधान के विरूद्ध प्रचार कर रहे हैं और अपनी विस्तारवादी सोच प्रदर्शित कर रहे हैं। यह नए संसद भवन के उद्घाटन से भी प्रकट होता है जहां अखंड भारत का एक भित्तीचित्र लगाया गया है। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और श्रीलंका को भारत के हिस्से के रूप में दर्शाया गया है।

संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी ने ट्वीट कियाः “हमारा स्पष्ट संकल्प है अखंड भारत”। जोशी ने कहा “अखंड भारत की अवधारणा प्राचीन भारतीय संस्कृति से आई है। संसद का नया भवन भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है, जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों और उनके सभी आयामों का प्रतिनिधित्व करता है।” एक अन्य भाजपा नेता मनोज कोटक ने ट्वीट किया “नए संसद भवन में दर्शाया गया अखंड भारत एक शक्तिशाली और आत्मनिर्भर भारत को दर्शाता है”।

भारत सरकार के अधिकृत प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा ‘‘इस भित्तीचित्र में अशोक का साम्राज्य दिखाया गया है और यह उनके (अशोक) द्वारा अपनाई गई और प्रचारित उत्तरदायी और जनोन्मुखी शासन की अवधारणा को दर्शाता है।”

पाकिस्तान और नेपाल की सरकारों ने भाजपा नेताओं द्वारा ‘अखंड भारत’ की बातें करने पर चिंता जाहिर की है। यह काबिलेगौर है कि ये नेता चीन द्वारा भारत की भूमि के एक बड़े टुकड़े पर कब्ज़ा ज़माने पर चुप हैं। अखंड भारत की परियोजना आरएसएस के दिमाग की उपज है। महात्मा गांधी ने यह एकदम साफ़ कर दिया था कि बर्मा और श्रीलंका जैसे देशों के सन्दर्भ में भारत की किसी तरह की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं।

भारत ने अपनी सीमाओं को स्वीकार किया और अपने पड़ोसी देशों से कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। इसी दिशा में दक्षिण एशियाई ‘क्षेत्रीय सहयोग संगठन’ (सार्क) की स्थापना हुई और भारत ने इसकी गतिविधियों में उत्साह से भागीदारी की। सार्क के कारण दक्षिण एशियाई देशों में संस्कृति, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में परस्पर सहयोग बढ़ा और अंतर्देशीय पर्यटन में भी बढ़ोत्तरी हुई। पीछे कुछ सालों से सार्क की गतिविधियां ठप्प हैं।

क्या अखंड भारत का यह मतलब है कि भारत इन देशों पर हमला कर उन पर कब्ज़ा कर लेगा और फिर दिल्ली में बैठा बादशाह (जो पहली ही से बादशाह की तरह व्यवहार कर रहा है) उन पर शासन करेगा? इस तरह का विस्तारवाद, केवल संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित देशों को शोभा देता है। हिटलर के राज में जर्मनी इसका एक उदाहरण है। राममनोहर लोहिया और अन्यों ने भारत और पाकिस्तान का महासंघ बनाने की बात कही थी। इस सन्दर्भ में सार्क का अनुभव अत्यंत सकारत्मक था परन्तु भारत में बढ़ती साम्प्रदायिकता और पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार जैसे देशों में कट्टरपंथी ताकतों के बढ़ते बोलबाले के कारण सार्क मृतप्राय हो गया है।

हमें अगर एक होना है, तो क्षेत्रीय सहयोग ही एकमात्र रास्ता है। हमें सीमाओं को सेतु बनाना होगा। यह एक सपना लग सकता है परन्तु यूरोपियन यूनियन इसका उदाहरण है कि किस प्रकार लम्बे समय तक एक-दूसरे से युद्धरत रहे देश एक हो सकते हैं। आज पूरे यूरोप में एक मुद्रा और एक वीसा है। देशों की सीमाएं खुली हुईं हैं और शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन और लगभग हर अन्य क्षेत्र में यूरोप के देश एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं और एक बेहतर यूरोप बनाने का प्रयास कर रहे हैं। हां, पिछले कुछ समय से कतिपय महाशक्तियों की महत्वाकांक्षाओं के कारण दुनिया में उथल-पुथल ज़रूर मची हुई है।

हमें अखंड भारत की ज़रुरत नहीं है। हमें क्षेत्रीय सहयोग की ज़रुरत है ताकि दक्षिण एशिया के देश अपनी-अपनी सरकारों को एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों से मुक्त कर आम आदमी की ज़िन्दगी बेहतर बनाने की दिशा में काम कर सकें। संसद में लगे भित्तीचित्र को अशोक के साम्राज्य के उच्चतर मूल्यों का प्रतिनिधि माना जाना चाहिए। अशोक का साम्राज्य जनकल्याणकारी था, विस्तारवादी नहीं। विस्तारवादी तानाशाहों ने अपने और अपने आसपास के देशों को बर्बाद करने और लाखों लोगों का खून बहाने के अलावा कुछ हासिल नहीं किया।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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