शोक की जगह शपथ का जश्न: राजनीति का यह क्रूर चेहरा है!

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राजनीति कितनी क्रूर और बेशर्म हो गयी है। वह महाराष्ट्र की आज की घटना बताती है। मुंबई-नागपुर हाईवे पर हादसे के शिकार 25 लोगों का आज जब दाह संस्कार हो रहा था तो उसी समय राजभवन में अजीत पवार समेत 8 मंत्रियों का शपथ ग्रहण कार्यक्रम चल रहा था। कोई राजनीति अपनी जनता से इतनी कैसे दूर जा सकती है? जनता के गहन शोक और पीड़ा के दौर में उसके साथ खड़े होने और शोक जताने की जगह वह इस तरह के सत्ता के खेल में शामिल होकर अपने लिए आनंद का अतिरेक हासिल करने का कोई दूसरा विकल्प कैसे चुन सकती है? घटना बताती है कि राजनीति का अब अपनी जनता के साथ कोई सरोकार नहीं रह गया है। जिस दिन को सूबे में शोक दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए था उस दिन को सत्ता ने सामूहिक जश्न के मौके के लिए चुना। 

एकबारगी विपक्षी पार्टी सत्ता को नुकसान पहुंचाने के लिहाज से कोई ऐसा काम करती तो सोचा भी जा सकता था। लेकिन यहां तो यह सारा काम सत्ता पक्ष अपनी बुनियादी जिम्मेदारी और कर्तव्यों से विमुख होकर कर रहा है। दरअसल पार्टियां अब जनता की सेवा के लिए नहीं रह गयी हैं। बल्कि वो परिवारों और नेताओं की निजी कंपनियों में बदल गयी हैं। आलम यह है कि जितना कोई बिजनेस कंपनी लाभ नहीं दिलाएगी उससे ज्यादा मुनाफे की गारंटी यहां है। लाभ तो लाभ यहां सत्ता की अतिरिक्त सुविधा भी हासिल है। इसलिए पैसे से लेकर पावर तक की व्यवस्था अगर कहीं हो तो उसे छोड़कर कोई दूसरे क्षेत्र में भला क्यों जाएगा?

अजीत पवार ने जो किया है उसकी आशंका पहले से ही थी। शरद पवार इस बात को अपनी खुली आंखों से देख रहे थे। और उन्होंने इस्तीफा देने का जो नाटक किया था वह इसी विभाजन को बचाने की कसरत थी। दरअसल शरद पवार अपनी बेटी को पार्टी की पूरी कमान सौंपना चाहते थे। अभी तक सेकेंड इन कमांड की भूमिका में अपने तरीके से अजीत पवार ही थे। लेकिन 2009 में सुप्रिया सुले के राजनीति में आने के बाद यह बात साफ हो गयी थी कि सुले ही पवार की राजनीतिक वारिस होंगी। यह बात अजीत पवार को अच्छे से समझ में आ गयी थी। लिहाजा वह लगातार एनसीपी को तोड़ने की अपनी कोशिशों में लगे हुए थे। आखिरी तौर पर जब बड़े पवार ने सुप्रिया सुले को कार्यकारी अध्यक्ष और प्रफुल पटेल को कार्यकारी उपाध्यक्ष घोषित कर दिया तब स्थितियां पूरी तरह से साफ हो गयीं। अब अजीत पवार के लिए फैसला लेना आसान हो गया। उन्होंने चंद दिनों पहले ही पार्टी की स्थापना दिवस के मौके पर विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा देकर पार्टी संगठन में काम करने की इच्छा जतायी थी।

पार्टी के उत्तराधिकार के मामले को जिस तरह से शरद पवार ने हल किया उससे केवल अजीत ही नहीं बल्कि छगन भुजबल समेत दूसरे वरिष्ठ नेता भी नाराज थे। जिन्होंने आज अजीत पवार के साथ शपथ ली है। यह नाराजगी किस स्तर तक थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शपथ लेने वालों में एक मुस्लिम विधायक भी शामिल है। अपने अभिभावकों के खिलाफ विद्रोह करने की परंपरा शरद पवार ने ही डाली है। उन्होंने खुद अपने मेंटर और गार्जियन बसंत दादा पाटिल के खिलाफ 1977 में इसी तरह का विद्रोह किया था। बाद में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से विद्रोह कर दूसरी बार उसी तरह की घटना को उन्होंने अंजाम दिया। 

और इसके पहले 2019 में इन्हीं अजीत पवार के जरिये फडनवीस के साथ सरकार बनाने की पूरी साजिश में वह खुद शामिल थे। हालांकि आखिर दौर में उन्होंने अपना फैसला बदल दिया था। लेकिन तब तक अजीत पवार आगे बढ़ चुके थे। इसका खुलासा दो दिन पहले खुद शरद पवार ने एक प्रेस कांफ्रेंस में की है। इसको उन्होंने अपनी गुगली करार दिया था। जिसके बाद बीजेपी ने कहा था कि फणनवीस के बाउंसर के लिए बड़े पवार तैयार रहें। ये घटनाएं बताती हैं कि अजीत पवार यह सब कुछ अपने चाचा की ही सोहबत में रह कर सीखे हैं।

अगर राजनीति में मूल्य, सिद्धांत और विचारधारा खत्म हो जाएगी और उसकी दिशा तथा संचालन मुनाफे और घाटे के हिसाब से तय होने लगेगा तब यही स्थितियां बार-बार सामने आएंगी। जिसका एनसीपी इस समय सामना कर रही है। मुस्लिम वोटों को लेने के लिए पार्टी को सेकुलर दिखाने की जो मजबूरी है उसका रास्ता लंबा नहीं होता है। शरद पवार को कभी बहुत ज्यादा बीजेपी से परहेज नहीं रहा है। वह सावरकर को उतना ही अपना मानते हैं जितना उन्हें आरएसएस मानता है। पीएम मोदी के साथ उनकी मित्रता जगजाहिर है। गाहे-बगाहे वह पीएमओ में जाकर उनसे मिलते भी रहे हैं। इसमें दोनों की अपनी जरूरतें ही उसका आधार रही हैं। 

एक दौर में यह मोदी की जरूरत थी तो दूसरे दौर में वह पवार की हो गयी। लेकिन पिछले कुछ सालों में लगता है स्थितियां बदल गयीं। मोदी के राजनीतिक जीवन में पवार की भूमिका खत्म हो गयी। लिहाजा पवार के खिलाफ ईडी के छापे की तैयारी से लेकर अभी अमेरिका से लौटने के बाद उनके ऊपर व्यक्तिगत हमलों की उन्होंने जो झड़ी लगायी उससे तस्वीर बिल्कुल साफ हो गयी थी। विपक्षी एकता की राजनीतिक धुरी बनने की उनकी कवायद पर यह बड़ा हमला है। देखना होगा उम्र के आखिरी पड़ाव पर कई बीमारियों से जूझता यह मराठा अपनी इस आखिरी लड़ाई को कैसे लड़ता है?

(जनचौक के फाउंडर एडिटर महेंद्र मिश्र की टिप्पणी।)

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