क्या गांधी शांति पुरस्कार के लायक है गीता प्रेस?

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भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की प्रकाशक गीता प्रेस को 2021 का गांधी शांति पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की है। यह एक प्रतिष्ठित पुरस्कार है, जिसमें 1 करोड़ रुपये नगद शामिल हैं। पूर्व में यह पुरस्कार जूलियस न्येरेरे (तंज़ानिया), नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीका), शेख मुजीबुर्रहमान (बांग्लादेश) और समर्पित समाजसेवी बाबा आमटे जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को मिल चुका है।

2023 गीता प्रेस का शताब्दी वर्ष है। गीता प्रेस को भारत की “आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत” को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने जागरूकता फैलाने और शांति को बढ़ावा देने के लिए गीता प्रेस की सराहना की। कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने बहुत मौजूं बात कही। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “अक्षय मुकुल ने 2015 में गीता प्रेस के बारे में एक बहुत अच्छी किताब लिखी थी जिसमें बताया गया है कि महात्मा गांधी के प्रति गीता प्रेस किस तरह का बैर-भाव रखती थी और गांधीजी के राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक एजेंडे पर उसने किस तरह के प्रश्न खड़े किये थे। यह निर्णय हास्यास्पद है और सावरकर या गोडसे को गांधीजी के नाम पर स्थापित पुरस्कार देने के समान है।” 

गीता प्रेस की स्थापना एक सदी पहले हुई थी। उस समय कट्टरपंथी हिन्दू इस बात से परेशान थे कि दलित अपनी समानता और आज़ादी के लिए आवाज़ उठा रहे थे और महिलाएं शिक्षा हासिल कर सार्वजनिक जीवन में उतर रहीं थीं। गीता प्रेस की स्थापना के कुछ समय पहले हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन हिन्दू महासभा का गठन हुआ था और उसके कुछ समय बाद आरएसएस अस्तित्व में आया। गीता प्रेस और उसकी पत्रिका ‘कल्याण’ प्रारंभ में गांधीजी के विरोधी नहीं थे और ‘कल्याण’ ने गांधीजी के कुछ लेख भी प्रकाशित किये थे। पूना पैक्ट (1932) के बाद यह सब कुछ बदल गया क्योंकि गांधीजी ने घोषणा की कि वे अछूत प्रथा के उन्मूलन, दलितों के मंदिर प्रवेश और उनके साथ भोजन करने के पक्ष में आन्दोलन और अभियान चलाएंगे।

पूना पैक्ट के पहले गांधीजी के आमरण अनशन ने देश को हिला दिया और हिन्दू समाज, जाति-वर्ण व्यवस्था और अछूत प्रथा की अमानवीयता पर सोचने को मजबूर हो गया। गांधीजी के इस निर्णय का देश पर असर के बारे में अक्षय मुकुल अपनी पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिन्दू इंडिया’, जो कि गीता प्रेस पर लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक है, में लिखते हैं: “पद्मजा नायडू ने इसे ‘कैथार्सिस (दमित भावनाओं से मुक्ति)’ बताया और कहा कि इससे हिन्दू धर्म ‘सदियों से जमा हो रही बुराइयों से मुक्त हो सकेगा’, वहीं रबीन्द्रनाथ टैगोर, जो गांधीजी के उपवास का समाचार सुन दौड़े-दौड़े उनसे मिलने आये, ने उसे ‘अद्भुत’ की संज्ञा दी।”

इसके बाद से गीता प्रेस और उसके संस्थापकों, हनुमान प्रसाद पोद्दार और जयदयाल गोयंदका के असली एजेंडे का खुलासा होना शुरू हो गया। उन्होंने दलितों के मंदिर प्रवेश और सहभोज के पक्ष में गांधीजी के आन्दोलन की निंदा की। कल्याण के एक बाद एक अंकों में जाति-वर्ण व्यवस्था के मूल्यों की गांधीजी की खिलाफत की कटु शब्दों में आलोचना की गयी। कल्याण ने खुल्लम-खुल्ला लिखा कि दलितों का मंदिरों में प्रवेश और विभिन्न जातियों के लोगों के साथ भोजन करने को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। कल्याण और गीता प्रेस के संस्थापकों का मानना था कि हिन्दू धर्मग्रन्थ सर्वोच्च हैं और गांधीजी का आन्दोलन उन ग्रंथों के खिलाफ है।

गीता प्रेस ने अपनी पत्रिकाओं और अन्य प्रकाशनों के साथ-साथ गीता, रामायण, भागवत एवं विष्णु पुराण की प्रतियां भी आम लोगों को अत्यंत कम कीमत पर बेचना शुरू किया। उसने विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भी अपने प्रकाशन उपलब्ध करवाने शुरू किये। उसने अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में अपनी पुस्तकें छापनी शुरू की।

गीता प्रेस महिलाओं की समानता के भी खिलाफ था। इस विषय पर गीता प्रेस की कई किताबें उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार की ‘नारी शिक्षा’, स्वामी रामसुखदास द्वारा लिखित ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ और गोयनका रचित ‘स्त्रियों के लिए कर्त्तव्य शिक्षा’ और ‘नारी धर्म’। इनके अलावा, कल्याण ने महिलाओं पर विशेष अंक भी निकाले। इन पुस्तकों की लाखों प्रतियां बिक चुकीं हैं। कुल मिलकर, इन किताबों की शिक्षाएं भारत के संविधान के मूल्यों के खिलाफ हैं।

स्वामी रामसुखदास कहते हैं कि पतियों द्वारा पत्नियों की पिटाई जायज़ है क्योंकि इससे उन स्त्रियों को अपने पिछले जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है। स्वामीजी एक बलात्कार पीड़ित स्त्री और उसके पति को यह सलाह देते हैं: “जहां तक संभव हो उसके (बलात्कार पीड़िता) के लिए चुप रहना की श्रेयस्कर है। अगर उसके पति को यह बात पता चल जाती है तो उसे भी चुप रहना चाहिए। दोनों के लिए चुप रहना ही फायदेमंद होगा।” वे महिलाओं के पुनर्विवाह के भी खिलाफ हैं, “एक बार उसके माता-पिता द्वारा लड़की को विवाह में दान कर दिया जाता है, उसके बाद वह कुमारी नहीं रहती है। ऐसे में भला उसे किसी और को कैसे दान किया जा सकता है? उसका पुनर्विवाह करना पाशविकता होगी।”

जून 1948 में कल्याण ने लिखा: “अविवाहित महिलाओं की भरमार, असंख्य गर्भपात, तलाक की बढ़ती दर, अपने सम्मान और शुचिता की चिंता न करते हुए महिलाओं का होटलों और दुकानों में काम करना– ये सब चीख-चीख कर हमें बतला रहे हैं कि पश्चिमी सभ्यता, महिलाओं के लिए अभिशाप है।” कल्याण हमें यह भी बताता है कि, “ऋषि-मुनियों ने घर और समाज में महिलाओं के बारे में जो व्यवस्था निर्मित की है, वह उनके ज्ञान से संपन्न है।”

‘हिन्दू कोड बिल’ का मसविदा तैयार करने का काम शुरू होते ही, गीता प्रेस के प्रकाशनों और उसके संस्थापकों ने उसका कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि जो प्रावधान इसमें प्रस्तावित हैं वे शास्त्रों और भारतीय संस्कृति के खिलाफ हैं।” तत्कालीन विधि मंत्री बी.आर. अम्बेडकर उस समय गीता प्रेस के निशाने पर थे। इसके पहले से ही, कल्याण अम्बेडकर की खिलाफत करता आ रहा था। वह उनकी मांग के सख्त खिलाफ था कि अछूतों को समानता मिलनी चाहिए। हिन्दू कोड बिल के विषय पर कल्याण में प्रकाशित लेख में अम्बेडकर के बारे में अत्यंत अपमानजनक और जातिवादी टिप्पणियां की गई हैं। 

“अब तक तो हिन्दू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी। परन्तु अब यह साफ़ है कि अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित हिन्दू कोड बिल, हिन्दू धर्म को नष्ट करने के उनके षड़यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर उनके जैसा व्यक्ति देश का विधिमंत्री बना रहता है तो हिन्दुओं के लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात होगी और यह हिंदू धर्म पर एक धब्बा होगा।”

गीता प्रेस के संस्थापकों को महात्मा गांधी की हत्या में उनकी भूमिका के लिए गिरफ्तार भी किया गया था। उस समय घनश्यामदास बिरला, जो महात्मा गांधी के बहुत नजदीक थे, ने कहा था कि जहां गांधीजी सनातन हिन्दू धर्म का आचरण कर रहे हैं वहीं गीता प्रेस के संस्थापक शैतानी हिन्दू धर्म के पैरोकार हैं।

बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियों को स्थापित करने के षड़यंत्र में भी गीता प्रेस शामिल थी। इसके अलावा यह संस्था गौरक्षा एवं राम मंदिर आंदोलनों में भी सक्रिय रही है और यह समय-समय पर लोगों को भाजपा को वोट देने की सलाह भी देती रहती है।

कुल मिलाकर कट्टरपंथी हिन्दू मूल्य या दूसरे शब्दों में ब्राम्हणवादी मूल्यों को गीता प्रेस बढ़ावा देती रही है और हिन्दू धर्म के संकीर्ण संस्करण को प्रचारित करती रही है। गांधीजी का हिन्दू धर्म मानवीय और समावेशी था और वे धर्म के मानवीय पहलू पर जोर देते थे। इसके विपरीत गीता प्रेस अपनी असंख्य पुस्तकों और अपनी पत्रिका ‘’कल्याण’ के जरिए गांधीजी के हिन्दू धर्म, उनकी राजनीति और साम्प्रदायिक सद्भाव पर उनके जोर की विरोधी रही है।

हम एक ऐसे काल में जी रहे हैं जब गांधीजी के नाम पर ही उनके मूल्यों और सिद्धांतों की बलि चढ़ाई जा रही है। अब समय आ गया है कि हम सद्भावना और जातिगत व लैंगिक समानता के मूल्यों पर आधारित अपनी राष्ट्रीय संस्कृति को पुनर्स्थापित करें।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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