पर्व त्यौहार के दिन लोग नये-नये कपड़े पहनते हैं। अच्छा-अच्छा खाना खाते हैं। खुश रहते हैं। खुशियां मनाते हैं। घर में समाज में सभी जगह वातावरण सुहाना रखने की कोशिश मिलकर करते हैं। क्यों? इसलिए कि उस दिन देव-पितर मिलकर देखने आते हैं। मिलकर देखने आते हैं कि हम कितना हिल-मिलकर रहते हैं, उनके जाने के बाद।
भारत में ऋषि-मुनि ने ध्यान दिलाया कि सिर्फ देवताओं का ही नहीं पितरों को भी संतुष्ट करना कर्तव्य है। दोनों ही हम से आहूति पाने के हकदार हैं। हमारी इसलिये देवताओं को स्वाहा और पितरों को आहूति स्वधा के साथ आहूति दी जाती है। किस देवता का हविष्य हमारे भविष्य से सीधा जुड़ा है! भविष्य और हविष्य में बहुत अंतरंग संबंध के होने को महसूस तो किया गया लेकिन सवाल था, ‘कस्मै देवा हविषा विधेम’, किस देवता को हविष्य प्रदान करें यह एक जटिल प्रश्न रहा है।
जीवन के शाश्वत सवालों में से एक है, ‘कस्मै देवा हविषा विधेम’! वे सवाल शाश्वत बन जाते हैं, जिनका कोई शाश्वत जवाब नहीं होता। विभिन्न देश-काल और प्रसंग में सवाल की शब्दावली तो एक ही रहती है, लेकिन उसके जवाब बदलते रहते हैं। हर पीढ़ी को अपने-अपने देश-काल और जीवन प्रसंग में इस के अलग-अलग जवाब ढूंढने पड़ते हैं। पितरों का सवाल है, पुरखों का सवाल है, ‘कस्मै देवा हविषा विधेम’! आज की लोकतांत्रिक परिस्थिति में इस शाश्वत सवाल को इस तरह से रखा जा सकता है कि ‘किस पार्टी, किस नेता को वोट दें’! चाहे जिस पार्टी, जिस नेता को वोट दें, सोचकर, समझकर वोट दें। वोट जरूर दें। पुरखे आते हैं देखने, कुर्बानियों की कद्र और वोट ठगेरों से बचने के उपाय की हमारी कोशिश।
1857 के ‘युद्ध और संघर्ष’ की योजना बनानेवाले अजीमुल्ला खान और रंगो बापूजी आते हैं, पूछने के लिए कि उस ‘रक्त कमल और रोटी’ का क्या हुआ जो हाथो-हाथ चलते हुए क्रांति के कमाल तक की भारत यात्रा पर निकला था। आते हैं मंगल पांडे जांचने, परखने के लिए कि आखिर हुआ तो क्या हुआ! जानना चाहते हैं कि ‘ब्राह्मण व शूद्र तथा हिंदू-मुसलमान’ सभी के अत्याचार के विरुद्ध एक साथ संगठित हो जाने की उस पवित्र भावना का क्या हुआ जो 1857 के दिल में कुर्बानियों की चेतना में प्रवहमान गंगा-जमुनी संस्कृति के गान में झंकार भरती थी।
आते हैं, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त यह देखने के लिए कि मॉडर्न रिव्यू के संपादक को “इन्कलाब जिन्दाबाद” का जो अभिप्राय समझाया था कि ‘यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे ओर वह नई व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके’। “इन्कलाब जिन्दाबाद” का वह अभिप्राय आज भारत के लोगों की समझ में ठीक से आ गया है या नहीं! आते हैं चंद्रशेखर आजाद यह आजमाने के लिए कि जब राष्ट्र हित में अपने जीवन स्वार्थ पर निशाना साधने की बारी आती हो या चुनाव चिह्न पर मुहर लगाने की बारी आती है तो भारतीयों के हाथ आज किसी ज्ञात व्यक्ति के अज्ञात डर से कांपते तो नहीं हैं!
आते हैं महात्मा गांधी कि हमारे लोकतंत्र में पंक्ति के आखिरी आदमी की स्थिति आखिर आज क्या है! आते हैं, सरदार पटेल देखने के लिए कि ‘एकत्रित राष्ट्र’ के ‘एक राष्ट्र’ बनने की दिशा में क्या प्रगति हुई है। आते हैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस जांचने, परखने के लिए की अपनी आजादी को बचाने के लिए कितना खून कितना पानी हमारे अंदर आज सुरक्षित है। आते हैं डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर देखने के लिए कि संविधान किन हाथों में पड़कर कैसा बन गया है और यह भी कि भारत के लोग ‘लंबे जीवन’ को अपना आदर्श मानते हैं या ‘महान जीवन’ को।
आते हैं जवाहरलाल नेहरु देखने के लिए कि वह भारत अब कैसा है, जिस भारत को खोजने की उन्होंने बेकल कोशिश की थी। देखने के लिए आते हैं कि उन कल-कारखानों, बांध, परियोजनाओं का क्या हाल है, जिन्हें ‘आधुनिक मंदिर’ कहा था। देखने के लिए आते हैं कि उन ‘आधुनिक मंदिरों’ में दीया-बाती का क्या रिवाज है इन दिनों। डॉ राम मनोहर लोहिया देखना चाहते हैं कि वह ‘सप्त क्रांति’ किस चरण में है। आते हैं जयप्रकाश नारायण जांचने, परखने के लिए कि ‘लोकतांत्रिक तानाशाही’ किस अवस्था में है और ‘संपूर्ण क्रांति’ का असर मतपेटियों पर कितना पड़ रहा है।
आते हैं नारायण गुरु कि ‘मंदिर के दर्पण’ में भारत के लोगों को अपना चेहरा कैसा दिखता है। आते हैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर यह देखने के लिए कि भारतीयों का ‘ज्ञान कितना मुक्त है, चित्त कितना भय शून्य है, माथा कितना ऊंचा’ है। आते हैं विवेकानंद देखने के लिए कि अपने को ‘गर्व से हिंदू’ कहने पर कितना गर्व-बोध होता है। आते हैं प्रेमचंद देखने के लिए कि क्या आज भी होरी की गर्दन राय साहब जैसे दूसरे किसी के पैरों के नीचे सचमुच में दबी हुई है! गरीबों की गर्दन को पैर से दबाकर रखनेवाला स्वतंत्र भारत में दूसरा कौन है? आते हैं गणेश शंकर विद्यार्थी, जानना चाहते हैं कि तरंगी मीडिया क्या है और उसकी भूमिका इस दौर में क्या है?
सभी पुरखों के कुछ-न-कुछ गंभीर सवाल हैं। आम सवाल हैं। क्या जिंदगी भी वर्चस्वशाली लोगों से मिलते-जुलते रहने से ही जीवनयापन संभव होता है? इतनी बेरोजगारी क्यों है? रोजमर्रा की जिंदगी में खपत होनेवाली सामग्रियां और जीवन रक्षक दवाएं इतनी महंगी क्यों है? महंगाई इतनी बेकाबू क्यों है? इतनी आर्थिक विषमता क्यों है! किस विकास का ऐसा हड़बोंग मचा रखा है कि जिस विकास में बहुत सारे लोगों के घरबार, रोजी-रोजगार, इज्जत-अस्मत के लुटते जाने और कुछ अंगुली पर गिन लिये जानेवाले लोगों के लिए देश और दूसरों को लूटने और निर्द्वंद्व विलास के चुनौतीहीन अवसर के अलावा कुछ है ही नहीं! कर्तव्य, धर्म और समाज कि चिंताओं को पास फटकने देने से रोकने की निष्ठुर अनैतिकता का समावेश इस विकास के चरित्र में है। इसी विकास के लिए सब का साथ चाहा था? इस विकास के लिए जिस की सबसे बड़ी ‘देन’ यह जानमारा बेरोजगारी है।
ऐसी सामाजिक दुरवस्था क्यों है? नागरिक दुर्व्यवहार का ऐसा मंजर क्यों है! सत्य को समर्पित दिखने का झांसा देकर भगवा में भ्रम के व्यवसायी को लोग ‘बाबा’ क्यों कहने लगे! संवैधानिक संस्थाएं संविधान के बाहर अन्याय के पनाहगाह में क्यों दाखिल दफ्तर जैसी दिख रही हैं! तरह-तरह की उत्पीड़कताओं को बरतने से शासन को परहेज क्यों नहीं है! वैकल्पिक आत्मीयताओं के बीच जहर कैसे और क्यों घोल दिया गया है! क्या यह समझने कि सलाहियत भी नहीं बची कि बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के कपट से विश्वसनीयता घटती है? सच है कि मछेरे को नहीं, मछली की तड़पती आंख को ठीक-ठीक पता होता है, कहां पानी है और कहां तेल है। स्वतंत्र और प्रकृति-पोषित एवं प्रकृतस्थ जीवन जीनेवालों की जिंदगी में जल-जमीन-जर-जंगल का बखेड़ा किस ने खड़ा किया! जल-जमीन-जर-जंगल का झमेला किसकी स्वार्थ सेवा में शुरू किया गया है!
यह सच भी है, यह झूठ भी है; यह न सच है, न झूठ है। ‘जा की रही भावना जैसी’, दिल से पूछो तो दिल कहेगा कि हां मीडिया का ही नहीं आजादी के आंदोलन में कुर्बानियों के गीत गानेवाले पुरखों का भी चुनावी सर्वेक्षण जारी है। बस इतनी-सी प्रार्थना है कि वे कहीं नींद की चौकठ पर खड़े होकर चेतना के द्वार पर दस्तक दें तो उन्हें निराश न किया जाये। उन्हें सम्मान के साथ मन में बैठाया जाये, गुड़-पानी पूछा जाये। उन्हें ध्यान से सुना जाये और विश्वास दिलाया जाये कि उनकी कुर्बानी बेकार नहीं गई है, न बेकार जाने दी जायेगी।
पुरखों के उन सपनों को पानी देना हमारा कर्तव्य है, जिन सपनों को सच करने के लिए वे कुर्बान हो गये। सपनों में सुख का आश्वासन और सम्मोहन होता है। भविष्य का आकर्षक वर्णन पुरखों के मन को और अपने मन को भी वर्तमान की पीड़ा से बाहर निकालकर सपनों की दुनिया के प्रवेश द्वार तक पहुंचा देता है।
पुरखे अगर पूछें कि भविष्य को संवारने के लिए ‘कस्मै देवा हविषा विधेम’, अर्थात किस दल, किस नेता को वोट दोगे तो क्या कहा जाये? कहा जाये, इलेक्ट्रॉल बांड की तरह गुप्त तो नहीं, लेकिन गुप्त है जरूर। पुरखों को भरोसा दिलाया जाये कि बहुत जल्दी सब ठीक हो जायेगा। पुरखे आते हैं देखने, कुर्बानियों की कद्र और वोट ठगेरों से बचने के उपाय, उन्हें भरोसा दिलाना ही होगा कि कुछ ही दिनों की बात है! हां ध्यान रहे पुरखे हर पांच साल बाद आते हैं; देखने के लिए कि उनकी कुर्बानियों का क्या हुआ! “इन्कलाब” का क्या हुआ! इसलिए कोई बहाना नहीं! मन परेशान रहता है आम और ईमानदार नागरिकों का यह सोचकर कि क्या हम त्यागी और बलिदानी पुरखों की हड़पबाज लोभी संतान हैं!
चुनाव संघर्ष के लिए दलों के बीच समान अवसर (Level Playing Field) उपलब्ध करवाया जायेगा या नहीं करवाया जायेगा, यह सब अब उन के सोचने की बात है, जिनका यह संवैधानिक दायित्व है। आम नागरिकों के लिए ध्यान देने की बात फिलहाल यह है कि लोकतंत्र में सब से बड़ा दान होता है, अपना-अपना मतदान। जी हां, मतदान जो सामने है। बस चूकना नहीं है।
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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